उस्ताद नईम साबरी की कहानी उन्हीं की जुबानी

खुशनवीसी के फन में हैदराबाद से जिन लोगों ने अपनी ख़ास जगह बनाई है, उनमें उस्ताद नईम साबरी का नाम सरे फेहरिस्त है। ख़ुशनवीसी, खत्ताती या कैलिग्रैफी को उन्होंने सिर्फ एक फन के तौर पर नहीं अपनाया, बल्कि अपने श़ौक की रगों में रचा बसा कर उसकी खुश्बू को दूर-दूर तक पहुंचाया। निज़ाम की जानिब से क़ायम किये गये स्कूल ऑफ आर्ट्स एण्ड क्राप्ट्स की पैदावार नईम साहब ने यूँ तो सरकारी मुलाज़िमत में डॉसमैन की हैसियत से काम किया, लेकिन उन्होंने एक आर्टिस्ट के तौर पर असली ज़िन्दगी रिटायरमेंट के बाद शुरू की। छत्ताबाज़ार में उनकी कैलिग्राफी का बोलबाला था। आज उनके कई शागिर्द हिन्दुस्तान के अलावा ख़लीजी मुमालिक में भी फैले हुए हैं। पेश है, उनकी कहानी उनकी ही ज़ुबानी।—– एफ. एम. सलीम
पुरानी हवेली

वो भी क्या दिन थे। पुरानी हवेली के पास बाप-दादा के आठ-दस मकान हुआ करते थे, लेकिन जब आला हज़रत ने वहाँ पर सड़क बनाने का फैसला किया तो हमारे मकान ख़ाली करवा दिये गये। उसके बदले हमें आग़ापुरा में दो तीन मकान दिये जाने की तजवीज रखी गयी, लेकिन उन मकानों को देखकर वालिद साहब ने कहा कि इससे तो अच्छे हमारे साइंस के मकान हैं..और मुतबादिल मकान के बदले कुछ मुआवज़े पर ही इक्तेफा किया। आज आग़ापुरा में वहाँ शानदार मकान बने हुए हैं। खैर..

मेरी इब्देताई तालीम दारुल उलूम स्कूल में हुई। वहाँ से दारुशिफा स्कूल में आये। शायद 1945 का साल था। आठवीं जमात में पढ़ते हुए उस्तादों और जानपहचान वालों ने जब मेरा ख़त देखा तो मश्वरा दिया कि दसवीं जमात तक पढ़ने की ज़रूरत ही क्या है। इन दो बरसों में तो एक अच्छा आर्टिस्ट बन जाऊंगा। फिर आठवीं जमात के आगे की तालीम छोड़कर मैं स्कूल ऑफ आर्ट्स एण्ड क्राप्ट्स में दाखिल हो गया। निज़ाम की जानिब से हिमायतजंग की देवढ़ी में शुरू किया गया यह स्कूल उस वक्त दुनिया के बेहतरीन आर्ट्स स्कूलों में एक था। यहाँ के उस्तादों का अच्छे आर्टिस्टों में शुमार होता था।

स्कूल ऑफ आर्ट्स एण्ड क्राप्ट्स

राजा किशन प्रसाद के लड़के भी इसी स्कूल में पढ़ा करते थे। हैदराबादा का यह पहला स्कूल था, जहां लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ने की इजाजत थी।
मुझे याद है मॉडल की पेंटिंग उतारनी होती तो सभी तलबा उसके चारों जानिब बैठ जाते और जिसकी जानिब जो पोस्चर होता, उसी को तस्वीर के हवाले करना होता।
होता यहीं से तुलबा मुंबई और मद्रास के इम्तेहानात लिखा करते थे। मैंने भी दोनों जगहों से इम्तेहान लिखा। फ्री हैंड राइटिंग, नेचर लैंड स्केप, पोर्ट्रेट और दीगर सिन्फों में मद्रास का डिप्लोमा काफी अहमियत रखता था।

मुझे याद है शोबे इशायत में मीर महबूब अली साहब थे। वो उस वक्त के अच्छे उस्तादों में से थे। उन्हेंने कहा था, `तुम बड़े आदमी बनोगे। शायद उन्होंने फन के लिए ही कहा था।’

स्कूल में रहते हुए फन को ख़ूब सरहा गया, लेकिन उन चार पांच बरसों में काफी तबदीलियां आ गयी थीं। खानदान के मआशी हालात अच्छे नहीं रहे थे। उन्हीं हालात में 18 बरस की उम्र में रिसर्च डिपार्टमेंट में डॉसमैन के तौर पर नौकरी हासिल की। वहाँ नक्शे और ड्राप्ट बनाने का काम चलता रहता।

पोचम पहाड़ के दिन

हैदराबाद रियासत के इंडियन यूनियन में शामिल होने के के बाद मेरा गोदावरी वैली पोचम पहाड़ कर दिया गया। वहाँ मैं पेंटिंग की वज्ह से ओहदेदारों का चहीता था। हर महफिल में बुलाया जाता। लड़कियाँ ऑटोग्राफ लेतीं। क्लब में बैडमिंटन खेला जाता। मैं भी अंग्रेज़ी वज़ा के कपड़े पहना करता था। दस्तावेज़ों की ड्राप्टिंग और नक्शे बनाने के साथ साथ मैं शौक़िया तौर पर आर्किटेक्चर का काम भी करने लगा। कई इमारतों के नक्शे बनाए। जब तक सरकारी खिदमात में रहा। हर दिन कुछ न कुछ नया करने की धुन रहती थी। काम सिर्फ नौकरी समझकर नहीं किया, यही वज्ह रही कि ओहेदादार और साथी काफी पसंद करते थे।

छत्ता बाज़ार का मर्कज़
रिटायरमेंट के बाद नयी दुनिया से मेरा तआरुफ हुआ। त़करीबन 25 बरस पहले की बात है। बहुत सोचा कि अब क्या करें और फिर छत्ता बाज़ार को अपना मर्कज़ बनाया। अब सारी सरगर्मियाँ सिमट कर खत्ताती तक महदूद हो गयीं। आर्ट्स स्कूल में पढ़ते हुए कैलिग्राफी को स्पेशन सब्ज़ेक्ट के तौर पर पढ़ा था। वही अब ओढ़ना बिछोना बन गया। हालांकि शुरू में फिल्मों के पोस्टर बनाए, शोकार्ड बनाए, तेलुगु, हिन्दी और अंग्रेज़ी के बोर्ड लिखे, लेकिन बाद में यह सब काम दूर हो गये। घर के बड़ों ने कहा कि यह सब काम ग़ैर इस्लामी है। बल्कि यह कहूँ तो ग़लत नहीं होगा कि पेंटिंग मुझसे मार-मार कर छुड़ाई गयी। इसलिए पेंटिंग और उससे जुड़ी दूसरे कामों की तरफ ज्यादा तवज्जो नहीं दी। छत्ताबाज़ार में धूम से काम चलता रहा। जहाँ भी लोगों को पता चलता चले आते। इस तरह मेरी खुशनवीसी के नमूने सऊदी अरब, कुवैत, अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप कई मुल्कों में लोग अपने साथ ले गये।

बहुत मुश्किल फन
कैलीग्राफी बहुत मुश्किल है, लेकिनसह जिन्हें श़ौक है, उन्होंने इस फ़न में ख़ूब नाम कमाया है। मेरे पास कई शागिर्द आये, जिन्होंने सीखा और अपने फ़न मे आगे बढ़े। यासीन हुसैन दस्तगीर, मुहम्मद मुनीरुद्दीन जैसे अच्छे फनकार भी रहे। कई औरतों ने भी सीखा। इन दिनों जर्मन की एक लड़की भी कैलिग्राफी सीख रही है। हालांकि उसने यूरोप से आर्ट में डिग्री की है और आगे भी अपनी पोस्टग्रेज्वेट तालीम जारी रखना चाहती है, लेकिन कैगीग्राफी सीखने के लिए उसका श़ौक दीवानगी की हद तक है।

इस फन के लिए यूँभी श़ौक दीवानगी की हद तक चाहिए। मैंने बहुत लोगों को पकड़-पकड़कर सिखाने की कोशिश की। कई लोगों को सामान भी मुहय्या किया। बहुत से लोग सिखाने का मुआवज़ा पूछते। औरतों में कैलिग्राफी सीखने की बहुत जुस्तजू मैंने देखी। वह सीखती तो हैं, लेकिन उसे ज़िन्दगी की मशग़लों की वज्ह से उसका सिलसिला क़ायम नहीं रहता। फन के उरूज पहुंचने वाली खत्तात खवातीन के नाम बहुत कम मिलते हैं। कहा जाता है कि औरंगज़ेब के की दुख्तर बहुत अच्छी खुशनवीस थीं। मैंने हिप्ज़ के साथ-साथ खुशनवीस बनने की तरग़ीब बहुत लोगों को दी और इसकी हौसला अफ़ज़ाई भी हुई।

दिल्ली वालों का दिल लूटा
सियासत ने जब दिल्ली मेंन कैलिग्राफी की नुमाइश की तो दिल्ली वाले हैरत में थे। दिल्ली के फनकार ये समझते थे कि उनसे अच्छे खुशनवीस हिन्दुस्तान में कहीं और नहीं हैं, लेकिन जब उन्होंने हैदराबाद के फ़नकारों को देखा तो वो लोग मान गये कि हैदराबादी सिर्फ उर्दू या अरबी ही नहीं, किसी भी ज़ुबान में अच्छी ख़ुशनवीसी कर सकते हैं।

एक बार मैंने अपने ख़ुशनवीसी के कुछ नमूने एम.एफ.हुसैन को भी दिखाए थे। उन्होंने उसे बहुत पसंद किया, लेकिन बाद में उनसे मुल़ाकात नहीं हो सकी।