एक छोटी कहानी: ख़्वाहिशें

“8 साल हो गए मेरी इस नौकरी को, 8 साल…क्या मिला? कुछ महीनों के ख़र्च के रूपये और कुछ उमीदें, वो उमीदें जो पिछले कई सालों से सिर्फ़ उमीदें हैं, वो ख्व़ाब जो शायद कभी पूरे नहीं होंगे…या होंगे? क्या कभी मैं अपने बॉस के शानदार ऑफिस की सबसे शानदार कुर्सी पे बैठ पाउँगा? क्या वाक़ई मैं कभी वो गिटार जो बॉस के ऑफिस में यूं ही पडा रहता है.. .छू पाउँगा ? आठवीं मंजिल की बालकनी से क्या मैं भी बाहर देख पाउँगा ? ”
सिटी बस में अक्सर जमील ख़ुद से बातें करता….इन बातों में जो शफ्फाफ़ उदासी है वो उसकी आँखों के सादेपण से साफ़ झलकती है… अपना काले रंग का बैग ठीक करता हुआ वो उठा और बस के दुसरे मुसाफिरों को इधर उधर करके साइड लेते बस के एग्जिट गेट पे आ पहुंचा …..और उतर गया, सामने उसके दफ़्तर की शानदार बिल्डिंग अपनी ओर उसे बुला रही है,वो जा रहा है …..
3 घंटे बाद, बिल्डिंग के अन्दर ..

जमील काम से कुछ फ़ुर्सत पा के facebook अपडेट चेक ही कर रहा था के फ़ायर अलार्म बजने लगे, अचानक ही दफ़्तर में अफ़रातफ़री मच गयी …..लोग बेहिस भागने लगे, … जमील ने भी अपना बैग उठाया और भागने लगा… गैलरी में देखा तो…राईट साइड पे लिफ्ट का रास्ता ब्लाक था,वहाँ आग ने मूंह बना लिया था ….दूसरी साइड से जब सब भाग रहे थे तो वो साइड में हो गया,… अगले दस मिनट में सब लोग चले गए…जमील के पीछे आग की लपटें और आगे ख़ामोश सन्नाटे…एग्जीक्यूटिव लिफ्ट के बग़ल में लगी सीढ़ियों से वो भागता हुआ ऊपर गया और जल्दी जल्दी उस कमरे की तरफ़ जाने लगा जो बॉस का ऑफिस है….”कहीं लॉक हुआ तो?” एक बार के इस ख़याल ने उसे परेशान तो किया लेकिन वो चलता रहा …ऑफिस खुला था, वो रुक गया…वापिस होने लगा लेकिन फिर…

दरवाज़े को धक्का दिया और ऑफिस में दाख़िल हुआ…
शानदार डिज़ाइन , फूल गुलदस्ते , बड़ी बड़ी कुर्सियां, अलमारियां, कंप्यूटर’स, बॉस के शौहर की फ़ोटो , दो बच्चों की फ़ोटो जो शायद उन्हीं के हैं….मोबाइल्स, लैपटॉप’स,चाय के जूठे कप …
“गिटार ? कहाँ है ? एकदम से इस ख़याल ने उसे बेचैन कर दिया लेकिन फिर सामने की दीवार से लगा के रखा हुआ लाल रंग का गिटार एकदम से उसकी नज़र में आया..वो गिटार की तरफ गया, उठा लाया और बॉस की कुर्सी पे बैठ गया…बॉस अपने पाँव इस मेज़ पे रख के ये गिटार कभी कभी बजाती होंगी … ये सोच के उसने अपने पाँव मेज़ पे रखने की कोशिश की, लेकिन साफ़ मेज़ गन्दी ना हो उसने जूते उतार दिए, मोज़े भी और फिर मोजों से दो दो बार पैर साफ़ किये …. अब उसने पैर मेज़ पे रखे और गिटार को बजाने की कोशिश की, उसे गिटार बजाना नहीं आता… लेकिन वो बजा रहा था..इतने में आग की तेज़ लपटें कमरे में दाख़िल हुईं और वो भागा ….गिटार ले के ….
बालकनी का दरवाज़ा खुला था…वो चला गया,.. “wow , क्या बात है …कितना सुकून है यहाँ… ना खुशियाँ ना ग़म, ना दुनिया ना हम…ख्व़ाब कितने संजीदा होते हैं, इन ख़्वाबों में भी ख्व़ाब होते हैं ….वाक़ई बहुत ख़ूबसूरत मंज़र है, बॉस यहाँ रोज़ आती होंगी, वो भी ख़ूबसूरत हैं पर ये मंज़र उनसे ज़्यादा ….” अपने पीछे से आ रहीं आग की लपटों से बेख़बर जमील अपनी दुनिया में खो गया था…
उसने फिर गिटार उठाया ..और यूं ही बजाने लगा .. फिर अचानक सोचने लगा
“बॉस कितने मज़े से ज़िन्दगी गुजारती होंगी? कहते हैं अमीरों को भी कुछ परेशानियां होती ही हैं… होती होंगी ! लेकिन.. वो घूमते हैं , पार्टियां करते हैं …मुझे पार्टियां नहीं पसंद, पर अगर पसंद होतीं तो भी !! खैर ..वैसे मैने भी अक्सर सोचा है कि हवाओं में उडूं जैसे डिस्कवरी चैनल पे दिखाते थे पहले…कितना पैसा चाहिए होता होगा ? क्या पता.. ”
फिर दफ़’अतन ये ख़याल उसके ज़हेन में आया कि अब वापिस चलना चाहिए लेकिन जिस रास्ते वो आया उस पर आग का मकान हो गया है …उसने नीचे खिड़की से पाइप का रास्ता ढूंढा..
कुछ थोड़ी मुश्किलों के बाद वो खिड़की पे पहुंच गया ….
लेकिन फिर जल्दी से वो बालकनी पे गया और जोर जोर से साँसें लेने लगा….
“मैं उड़ना चाहता हूँ…मैं उड़ना चाहता हूँ …मैन उड़ना चाहता हूँ” ज़ोर ज़ोर से कहने लगा और फिर ….

कूद गया !

लेखक: अरग़वान रब्बही