एक मुलाक़ात ‘बेगुनाह दहशतगर्द’ के लेखक आज़मगढ़ निवासी ‘मसीहुद्दीन संजरी’ के साथ

फ़रहाना रियाज़
मसीहुद्दीन संजरी दिल्ली से साढ़े सात सौ किलोमीटर दूर एक के रहने वाले हैं| संजरपुर गांव जो 19 सितंबर 2008 को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में उस वक़्त आया था जब दिल्ली के जामिया नगर के इलाके बाटला हाउस में एक मुठभेड़ में साजिद और आतिफ नाम के दो युवकों को आतंकी कहते हुए मारे जाने खबर आई  थी | उसके बाद एक–एक करके दर्जन भर लोगों का नाम लेते हुए आज़मगढ़ के संजरपुर गांव को आतंकियों का गांव कह दिया गया| वह गांव, वह शहर जिसका नाम लेना एक दौर में मुस्लिम समुदाय के लिए एक गुनाह जैसा महसूस होता था|

लखनऊ कोर्ट द्वारा रिहा किए गए 14 नवजवानों पर लिखी गई किताब “बेगुनाह दहशतगर्द” के लेखक 50 वर्षीय मसीहुद्दीन संजरी का यह सफर भी बहुत दिलचस्प है| एएमयू में पढ़े संजरी को नहीं मालूम था कि उनको कभी इस विषय पर लिखना–पढ़ना या फिर इतना सोचना होगा|

1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सूरत और मुम्बई की साम्प्रदायिक हिंसा को बहुत करीब से अपनी आंखों से देखे संजरी कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम था कि साढ़े सात सौ किलोमीटर दूर की यह आग उनके गांव को कब लग जाएगी|  दिसम्बर 2007 में आज़मगढ़ से तारिक कासमी के उठाए जाने के बाद नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी में अपने साथी नेताओं–कार्यकर्ताओं के साथ आतंकवाद के नाम पर बेकसूरों को फंसाए जाने के खिलाफ होने वाले आंदोलन में शामिल होना उनका ऐसी लड़ाइयों का पहला अनुभव था|  लेकिन 19 सितंबर को जब उनके गांव के दो लड़कों को दिल्ली में मार गिराया गया तो उन्होंने बहुत पास से मीडिया द्वारा आतंक की मंडी में अपने गांव को परोसते हुए देखा| वह बड़े–बड़े घर न जाने कब आतंकी संगठनों से उनके रिश्ते जुड़ने लगे तो उनके गांव के आस–पास के खेत और झाड़ियां जहां कूद–फांदकर उनका बचपन बीता था वह कब मीडिया द्वारा ट्रेनिंग सेन्टर के रूप में तबदील कर दिए गए|  इसी कसक में उन्होंने अखबार के कतरनों की चीर–फाड़ शुरू की और इस दरमियान वह और उनके साथी 2008 से अपने गांव की गढ़ी गई इस छवि के खिलाफ मानवाधिकार सम्मेलनों का आयोजन करने लगे|  इस दौरान मानवाधिकार संगठन पीयूएचआर और पीयूसीएल से भी जुड़े और बाद में उन्होंने और उनके साथियों ने मिलकर रिहाई मंच का गठन किया जिसके वह संस्थापक सदस्य हैं|  मसीहुद्दीन संजरी मीडिया द्वारा आतंक की छवि गढ़े जाने को लेकर पहले भी “बनारस धमाका 2010 और आज़मगढ़ का मीडिया ट्रायल” बुकलेट लिख चुके हैं| मसीहुद्दीन ने भगवा आतंकवाद, ऑपरेशन अक्षरधाम, कैदी नम्बर 100, फुक्कुलआनी, किताबों अनुवाद भी किया है|

संजरपुर गांव में रहकर अपने पुरखों के यूनानी दवाओं के कारोबार से जुड़े संजरी को समय और राजनैतिक हालात ने कम्प्यूटर जानने की उत्सुकता बढ़ाई तो वह अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू भाषाओं के ज़रीए आतंकवाद पर विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं, वेब और सोशल मीडिया के ज़रीए अपना हस्तक्षेप दर्ज कराते रहते हैं| मसीहुद्दीन का कहना है कि जो मीडिया किसी व्यक्ति को “आतंकी कहता है तो उसके परिवार को ही सिर्फ डर नहीं होता बल्कि उसके गांव और ज़िले को भी कलंक झेलना पड़ता है| उसको हमने बहुत पास से देखा है इसलिए यह सिर्फ मेरे लिए किताब नहीं है बल्कि एक वह आईना है जिससे हम उन लोगों को दिखा सकें जो उनको सिर्फ एक मज़हब के नाम पर आतंकी कह देते हैं|  

संजरी की इस किताब का पहला अध्याय मुखबिर से शुरू होता है और जिस पर उनका कहना है कि मुखबिर ही इस आतंक की राजनीति का कल्पनिक किरदार होता है जिसके सहारे दमन और उत्पीड़न का यह अध्याय लिखा जाता है और किसी समुदाय के कलंक का इतिहास बन जाता है|  संजरी का मानना है कि आज भी जो तबका आतंक की सच्चाई से रूबरू है वह मुसलमानों को दहशतगर्द के रूप में नहीं देखता|  इसीलिए आतंकवाद के नाम पर फंसा दिए गए एक मामूली से दिहाड़ी मज़दूर नासिर की जिंदगी को बचाने के लिए अपने खर्चे से हवाई जहाज़ से मुनि की रेती, टेहरी गढ़वाल से महंत सेवानंद आकर न्यायालय में गवाही देते हैं कि नासिर आतंकी नहीं है तो वहीं हमारे पड़ोस के गांव सम्मोपुर से उठाए गए तारिक के अपहरण के सोलह गवाहों में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ने अपना हलफनामा दिया था|

किताब का नाम – बेगुनाह दहशतगर्द
लेखक – मसीहुद्दीन संजरी
8090696449
पृष्ठ – 100,  सहयोग राशि – 115रू
110/46, Harinath Banerjee Street, Naya Gaaon (E), Laatouche
Road, Lucknow