दिल्ली : राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़, पिछले एक साल में पुलिस के ख़िलाफ़ 32,498 मामले दर्ज हुए, जिनमें 206 मामले ‘एनकाउंटर’ के थे. 66 ‘एनकाउंटर’ मामलों के साथ छत्तीसगढ़ पुलिस इस सूची में सबसे ऊपर थी. उसके बाद असम (43), झारखंड (15), ओडिशा (7) का नंबर था.
नज़र डालते हैं ऐसे पांच मामलों पर, जिनमें पुलिस पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ के आरोप लगे.
इशरत जहां मामला : 15 जून 2004 को गुजरात पुलिस और अहमदाबाद के स्थानीय इंटेलिजेंस ब्यूरो पर ख़ालसा कॉलेज मुंबई की इशरत जहां, केरल के जावेद ग़ुलाम शेख़ (प्राणेश पिल्लई) और दो कथित पाकिस्तानियों अमजद अली राणा और ज़ीशान जौहर को फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारने के आरोप लगे थे.इस टीम की अगुवाई उस उस वक़्त के अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के उपायुक्त डीजी वंजारा कर रहे थे. गुजरात पुलिस ने दावा किया कि इन कथित चरमपंथियों का संबंध लश्कर-ए-तैयबा से था और ये लोग गोधरा दंगों का बदला लेने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की योजना बना रहे थे. सीबीआई ने जांच के बाद इस मुठभेड़ को इंटेलिजेंस ब्यूरो और गुजरात पुलिस के आला अफ़सरों की मिली भगत बताया था. हाल ही में ख़बर आई कि इशरत जहां मामले से जुड़ी फ़ाइल ग़ायब हो गई है और पुलिस ने एफ़आईआर दर्ज की है.
सोहराबुद्दीन शेख़ मामला – मीडिया रिपोर्टों में सोहराबुद्दीन शेख़ को अंडरवर्ल्ड का अपराधी बताया गया था. सोहराब अपनी पत्नी के साथ हैदराबाद से महाराष्ट्र जा रहे थे. गुजरात पुलिस की एटीएस शाख़ा ने बस को बीच में रोका और दोनो को पकड़ कर ले गई. तीन दिनों के बाद शेख़ को अहमदाबाद के बाहर फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मार दिया गया. मीडिया में इस मामले के उठने के बाद सीबीआई ने इसकी जांच की और कई पुलिस अफ़सरों को गिरफ़्तार किया गया. गुजरात सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में दिए हलफ़नामे में इस बात को मान लिया था कि ये फ़र्ज़ी मुठभेड़ थी.
हाशिमपुरा हत्याकांड – यह हत्याकांड 22 मई 1987 को मेरठ शहर में हुआ था. सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलेरी (पीएसी) को बुलाया गया था. लेकिन पीएसी के जवानों ने शहर के हाशिमपुरा इलाक़े के 42 मुसलमानों को पहले पकड़ा और फिर उन्हें मार दिया. उनके शवों को पास के नहर में फेंक दिया गया. कई साल तक इसस जुड़ा मुक़दमा ग़ाज़ियाबाद की स्थानीय अदालत में चला. सुप्रीम कोर्ट के कहने पर इसे दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में भेज दिया गया. तीस हज़ारी अदालत ने 2015 में दिए अपने फ़ैसले में 16 अभियुक्तों को बरी कर दिया. अदालत ने ये तो माना कि उन 42 लोगों को पीएसी ले गई थी और उन्हें पुलिस हिरासत में मारा गया लेकिन अभियोजन पक्ष ये साबित नहीं कर पाया कि जिन लोगों पर मुक़दमा चलाया गया था दरअसल उन्हीं लोगों ने उन मुसलमान युवकों को मारा था. फ़ैसले के ख़िलाफ़ ज़िंदा बच गए दो लोगों ने हाईकोर्ट मे अपील दायर की. उत्तर प्रदेश सरकार भी फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट पहुंची. वहां यह मामला अभी भी चल रहा है.
माछिल हत्याकांड – यह मामला 2010 का है. बारामुला के नदिहाल गांव के रहने वाले शहज़ाद अहमद, रियाज़ अहमद और मोहम्मद शफ़ी को किस्तान से लगे नियंत्रण रेखा के माछिल सेक्टर बहला फुसलाकर ले जाया गया और उन्हें गोली मार दी गई. बाद में उन्हें पाकिस्तानी चरमपंथी बताया गया. उनके बारे में जानकारी क़रीब एक महीने बाद सामने आई और स्थानीय लोगों के विरोध के बाद उनका दफ़नाया गया शव बाहर निकाला गया. सेना ने 2013 में कोर्ट मार्शल की शुरुआत की. बाद में कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नाएक लक्ष्मी, लांस नाएक अरुण कुमार और राइफ़लमैन अब्बास हुसैन को आजीवन कारावास की सज़ा दी गई. सेना ने पहले कहा था कि इन सैनिकों पर सिविल कोर्ट में मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता. राज्य सरकार और मानवाधिकर संगठनों ने इसका विरोध किया था.
आंध्र प्रदेश ‘स्मगलर’ एनकाउंटर – सात अप्रैल 2015 को आंध्र प्रदेश की पुलिस ने राज्य के सेशाचलम जंगल में 20 कथित चंदन तस्करों को गोली मार दी. पुलिस का कहना था कि पुलिसकर्मियों पर हंसियों, छड़ों, कुल्हाड़ियों से हमला किया गया और बार बार चेतावनी देने के बावजूद हमले जारी रहे. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मामले पर ध्यान दिया और इसकी जांच की. आयोग ने आंध्र प्रदेश सरकार पर सहयोग नहीं करने का आरोप लगाया और इसकी सीबीआई जांच कराने की बात कही थी. राज्य सरकार ने आयोग के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील की, जहां यह मामला चल रहा है. उधर इस मामले से जुड़ी वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा कि पीड़ितों के परिवारों की मांग है कि मामले की जांच सीबीआई या कोई दूसरी निष्पक्ष संस्था करे. यह मामला हैदराबाद हाई कोर्ट में चल रहा है.
स्रोत : बीबीसी हिंदी डॉट कॉम