एहसान नबी स.व. ने हम पे कीया सर से पांव तक

ली जिए अब एक बार फिर मुक़द्दस माह रबी उलअव्वल अपनी पूरी आब-ओ‍ताब (चमक दमक) के साथ हमारे सामने जलवागीर (उपस्थीत) है। इसी मुबारक-ओ-मसऊद माह में आप के हमारे ही नहीं बल्कि दोनों आलम (विशव) के महबूब तरीन पैग़ंबर सरवरे कौनैन ख़ातिमू न्नबीय्यीन हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा अहमद मुज्तबा स.व. की तशरीफ़ आवरी हुई।

हुज़ूर अकरम स.व. का हम तमाम पर ये एहसान ए अज़ीम( बडा ) है कि उन्हों ने ख़ुदा ए अज़्ज़‍ व‌ जल्ल की वहदानीयत का ब बाँगें दहल(बगेर डरे) ना सिर्फ ऐलान फ़रमाया बल्कि हर तरह से भटकी हुई क़ौम को दामन ए इस्लाम में लाकर सारे आलम में सबज़ हिलाली पर्चम(नीला चोँद वाला फरेरा) बुलंद फ़रमाया। ये फ़क़त हमारे हूजूर स.व. की नालैन मुबारक (जूतों) का सदक़ा है कि आज हम अल्लाह रब्बू लइज्ज़त की बंदगी कर रहे हैं। वर्ना हमारा तो ये हाल था कि हम ज़मीन, आसमान, चांद, सूरज, आग, पानी, दरख़्त, पहाड़ और फिर आख़िर-ए-कार एक मामूली से बेजान पत्थर को नऊजूबिल्लाह (अल्लाह की पनाह) ख़ुदा मानने पर ना सिर्फ तुले हुए थे बल्कि इस का बुत (मूर्ती) बनाकर इस के आगे सरनीगूं (पूजारी) हो रहे थे। लेकिन क़ुर्बान जाईए अपने नबी मुकर्रम स.व. पर कि उन्हों ने हम कम‌ अक़ल-ओ-कम फ़ह्म नादानों को अल्लाह ताला की ज़ात बाबरकत से वाक़िफ़ करवाते हुए गुनाह कबीरा यानी शिर्क करने से बचा लिया।
बेशक करम है आप का हम सब पे या नबी स.व‌
पाई जो हम ने रब की इताअत की रोशनी
हूजूर ऐ अक़्दस के उमती होने पर हम जितना भी नाज़ करें कम है। क्योंकि आप स.व. से पहले तशरीफ़ लाने वाले एक लाख 24 हज़ार अन्बीया की भी यही ख़ाहिश-ओ-आरज़ू थी कि वो हमारे नबी स.व. के उमती होते।
उमतें वैसे हुई हैं और भी
सुरख़रू (काम्याब) सरकार (सल.) की उमत हुई
अब ज़रा तसव्वुर की आँख से देखिए कि ख़ुदा नाख़ासता बल्कि हज़ारों लाखों बार ख़ुदा-ना-ख़ासता, इस जहाँ-ए-फ़ानी(अंत होने वाली दुनया) में अगर हमारे सरकार तशरीफ़ ना लाते तो आज हमारी क्या हालत होती? बिलाशुबा सब से पहले हम अपनी नाम निहाद इज़्ज़त-ओ-नामूस की हिफ़ाज़त के उनवान पर अपनी मासूम-ओ-बेक़सूर बच्चीयों को पैदा होते ही गला घूँट कर क़तल कर देते या फिर ज़िंदा दफ़न करदेते। जिस का नतीजा ये निकलता कि आज रूये ज़मीन पर लड़कीयों का क़हत(काल) होजाता। इन की तादाद आटे में नमक के बराबर होती। फिर इस के बाद हम किन हालात का शिकार होते इस के तसव्वुर से ही हम पर कपकपी(थरथराहट) तारी होजाती है।

इस के बाद जूवे की लत में इतना मुलव्वीस थे कि घर की हर चीज़ यहों तक‌ कि अहलिया मुहतरमा (अप्नी बीवी) को भी हार बैठते। ऐसे में उम्मू लख़बाइस(बूराइयों की जड) शराब कब नजरअंदाज़ करतें? वो भी कुछ इस तरह हम पर हावी होजाती कि घर घर में शराब की भट्टियां होतीं। हम होते और फिर हमारा दर्दनाक‍ ओ‍र अलमनाक अंजाम!!
जीनाकारी और अय्याशी में भी हमारा कोई सानी ना होता। नतीजा में हर घर में ना सही हर बस्ती में HIV एडज़ के एक आध मरीज़ हमें ज़रूर दीख जाता।

क़ुर्बान जाईए हमारे प्यारे नबी स.व. पर कि उन्हों ने अहकाम इलाही का बरवक़्त ऐलान फ़रमाते हुए अपनी उमत को इन लानतों और बुराईयों से बाल बाल बचा लिया। आज जबकि हम सरकार (स. ल.) की सीरत-ओ-एहसानात का ज़िक्र करने बैठे हैं तो उन के आला-ओ-अर्फ़ा(बूलंद) अख़लाक़-ओ-एहसानात हमारे ज़हन के पर्दा पर सुनहरी हर्फ़ों में रोशन नज़र आरहे हैं।

ईमानदारी, शराफ़त और हुस्न-ए-अख़्लाक़ की इंतेहा बस हमारे नबी हैं। चुनांचे आप स.व. को देखते ही वूफ़ूरे मुसर्रत (बहूत ही खूशी) से लोग चीख़ उठते थे (अमीन आ रहे हैं । अमीन आ रहे हैं)
आप जैसा दुनिया में आया ना सहर सादिक़
ज़िंदगी में आक़ा की सच्च का बोल बाला है
रसूल ऐ अकरम स.व. के बावक़ार एहसानों की तवील फ़हरिस्त में हम इस एहसान ए अज़ीम को कैसे भूल सकते हैं जब आप ने हमें बराबरी और मुसावात के बेमिसाल दरस से सरफ़राज़ फ़रमाया।
हूजूर स.व. ने ये वाज़िह ऐलान फ़रमाया कि किसी अरब को अजमी पर, गोरे को काले पर, अमीर को ग़रीब पर और मर्द को औरत पर कोई बरतरी हासिल नहीं। चुनांचे आप स.व. के इस ऐलान ए अज़ीम को आज सारी अक़्वाम ए आलम बहुत ही इज़्ज़त‍ ओ‍ एहतेराम से क़बूल-ओ-तस्लीम कर रही है।
सब को मेरे नबी स.व. ने दिया दरस-ए-मुसावात ।
आक़ा स.व. ने मरे की ना कभी बरतरी की बात।
एक दूसरे की ख़ुशीयों और मसर्रतों में शरीक होना कोई कमाल नहीं। कमाल तो ये है कि हम एक दूसरे के दुख दर्द में शामिल रहें। बीमारों की इयादत-ओ-तीमारदारी भी करें। याद कीजिए हमारे आक़ा स.व. के इस मुबारक हूस्न ए अमल को जब आप स.व. ने नाशाइस्ता सुलूक करनेवाली यहूदन से नफ़रत नहीं की बल्कि उस की मिज़ाज पुरसी फ़रमाई। ये आप के हुस्न ए अख़लाक़ का मोजिज़ा(करीशमा) ही तो था कि इस यहूदी ने कुफ्र को ख़ैरबाद कह कर दामन ए इस्लाम में पनाह ले ली।

ईमान एक पल में यहूदन ने लालिया
काम आगई नबी स.व. की इयादत की रोशनी!

दुनिया के कोने कोने में इन दिनों तालीम की एहमीयत-ओ-इफ़ादीयत पर गुफ़्तगु और अमली जद्द-ओ-जहद जारी है। लेकिन हमारे सरकार (सल.) की फ़हम-ओ-फ़िरासत का आलम देखिए कि आज से चौदह सौ साल क़बल ही ये ऐलान फ़रमाया हर मुस्लमान मर्द-ओ-औरत पर इलम का हासिल करना फ़र्ज़ है।

आप उमी हैं मगर आप का एजाज़ है ये
आप पढ़ने नहीं आए हैं पढ़ाने आए
हमारी तारीख़ ए इस्लाम गवाही देती है कि पढ़े लिखे क़ैदीयों को तोह्फ़ा-ए-आज़ादी अता करते हुए सरकार (सल.) ने इन से इलम सिखाने की ज़िम्मेदारी क़बूल करवाई।
सरकार (सल.) दो आलम ने शूअरा हज़रात की भी हिम्मतअफ़्ज़ाई फ़रमाई है। चुनांचे इस्लामी तारीख़ की मुख़्तलिफ़ किताबों के मुताला से पता चलता है कि उमैयाह बिन सल्त, सामा बिन लूई, अबदुल्लाह बिन रवाहा और हस्सान बिन साबित वग़ैरा से हमारे आक़ा ना सिर्फ मदहीया-ओ‍इन्केलाबी शेर समाअत फ़रमाते बल्कि हिम्मतअफ़्ज़ाई भी फ़रमाते थे।

हसान से जो सुनते थे मिदहत मरे आक़ा स.व.
सदक़े में बस उन्हीं के क़दर शायरी की है
आलम इंसानियत पर आक़ा दो जहां के बेशुमार एहसानों में इस हक़ीर-ओ-फ़क़ीर ने गोया समुंद्र से सिर्फ चंद मोतीयों को तलाश किया है। अब आख़िर में एक और शानदार-ओ-बेमिसाल एहसान का ज़िक्र करते हुए रुख़सत होता हूँ।
याद कीजिए शब असरा की इन मुबारक घड़ीयों को जब सरवरे कायनात अपनी उमत के लिए पच्चास नमाज़ों की बजाय पाँच नमाज़ों का तोहफ़ा वो भी पच्चास नमाज़ों के सवाब के साथ लेकर लौटे। आज जबकि हम पाँच नमाज़ें भी ठीक से अदा नहीं कर पार है हैं तो भला पच्चास नमाज़ें कहां अदा कर पाते थे? इसी लिए हम सभी समीम क़लब से हूजूर‌ पुरनूर की ख़िदमत में हदया तशक्कुर पेश करते हुए ये अर्ज़ करते हैं :
आक़ा स.व. से मरे कोई बड़ा हो नहीं सकता
सूरज से बढ़ के कोई दिया हो नहीं सकता
पहले पच्चास फ़र्ज़ हुईं पाँच फिर सहर
सरकार की एहसां तो अदा हो नहीं सकता