‘ए टेल आफ़ शेकन फ़ेथ ‘

ए टेल आफ़ शेकन फ़ेथ (मुतज़लज़ल एतिमाद की कहानी) के ज़रिये ब्रीगेडीयर मनमोहन शर्मा ने फ़ौज में पाई जाने वाली बदउनवानियों और अक़रबा परवरी से पर्दा उठाने की कामियाब कोशिश की है।

ये किताब नहीं बल्कि एक ऐसा दस्तावेज़ है, जिसका मुताला करने के बाद एक आम आदमी को भी ये पुख़्ता यक़ीन हो जाता है कि कांग्रेस हुकूमत चाहे जैसे हीले बहाने करे, लेकिन बोफोर्स तोपों के सौदे में करोड़ों रुपये की रिश्वत ली गई है और यहां तक कि शहीद फ़ौजियों के लिए तैयार किए जाने वाले ताबूतों के सौदे में भी बदउनवानियाँ उरूज पर रही होंगी।

मनमोहन शर्मा एक अहम शख़्सियत और मुसन्निफ़ कहलाये जाने के यक़ीनन मुस्तहिक़ हैं। उन्होंने जिस चाबुकदस्ती से मुख़्तलिफ़ अबवाब के ज़रिये मुख़्तलिफ़ बदउनवानियों का जो तज़किरा कहीं कहीं अशआर का सहारा लेकर और कहीं कहीं भगवत गीता के श्लोक के ज़रिये किया है वो सिर्फ़ पढ़ने से ही ताल्लुक़ रखता है। मिस्टर शर्मा ख़ुसूसी रियाज़ी में ग्रैजूएट होने के इलावा अंग्रेज़ी और उर्दू अदब में ऑनर्ज़ के हामिल हैं। मौसूफ़ फ़ुनूने जंग के इंस्ट्रक्टर के इलावा डिफ़ैंस सरविसेस स्टाफ़ कॉलिज के ग्रैजूएट भी हैं।

मौसूफ़ ने ज़ेरे तबसेरा किताब के सफ़ा 12 पर ही सब को चौंका दिया है, जहां उन्होंने 1959 में हिंदुस्तानी फ़ौज में अक़रबा परवरी के पहले रिकार्ड शुदा मुआमले का तज़किरा किया है जहां उस वक़्त के वज़ीर-ए-आज़म जवाहर लाल कौल (नेहरू) ने उस वक़्त के फ़ौजी सरबराह जनरल के एस थमाया की तमाम सिफ़ारिशात और तजावीज़ को नज़रअंदाज करते हुए अपने भतीजे मेजर जनरल बृजमोहन कौल को ओहदे पर तरक़्क़ी दी थी जबकि उनके पास जंग का कोई तजुर्बा नहीं था। शायद जवाहर लाल नेेहरू के सिविल सुप्रीमसी (बालादस्ती) तर्ज़े फ़िक्र की वजह से ही हिंदुस्तान को चीन के साथ 1962 की जंग में शर्मनाक शिकस्त हुई थी। अपने शख़्सी तजुर्बात का भी मनमोहन शर्मा ने इंतिहाई ख़ूबी से अहाता किया है। इनका कहना है कि वक़्त सब से बड़ा मरहम है। ज़ख़्म तो भर जाते हैं, लेकिन उन की टीस हमेशा बाक़ी रहती है। उन्हें इंसाफ़ के मंदिर यानी अदालतों की कारगुज़ारियों से भी शिकायत है, जहां उनका साबिक़ा ऐसे सैंकड़ों अफ़राद से पड़ा जो इंसाफ़ के हुसूल के लिए अदालतों पर एतिमाद के साथ वहां पहुंचते हैं। यहां आकर शर्मा कहते हैं-
नाल- ए – बुलबुल के सुनूं और हमातन गोश रहूं
हमनवा मेैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूं

किताब के सफ़ा नंबर 17 पर उन्होंने हिंदुस्तान के साबिक़ वज़ीर-ए-दिफ़ा के. सी. पंत पर भी तन्क़ीद की है (शर्मा कहते हैं कि एक ऐसा शख़्स जो अब इस दुनिया में नहीं रहा, उसकी शिकायत करने से किया फ़ायदा।) ताहम चूँकि उन्हें कुछ हक़ायक़ ज़बत तहरीर में लाने थे इसी लिए उन्होंने के. सी. पंत की सिविल सुप्रीमेसी (बालादस्ती) का भी तज़किरा किया है जिसका रास्त असर मादरे हिंद पर मुरत्तिब होता है, चाहे वो मन्फ़ी हो या मुसबत। उन्होंने ख्वाहिश की कि सिविल सुप्रीमेसी की आख़िरी हद क्या है। इसकी तशरीह किस तरह की जा सकती है ? मौसूफ़ ने ज़ेरे तबसेरा किताब में जुमला 26 अबवाब के ज़रिये ज़िंदगी के (ख़ुसूसी तौर पर फ़ौज के) हर नशेब-ओ-फ़राज़ पर रोशनी डालने की कामियाब कोशिश की है।

एक फ़ौजी होने के बावजूद साहबे किताब शायरी से भी शग़फ़ रखते हैं, जिसकी मिसाल उनके वो अशआर हैं, जो उन्होंने अपनी बात समझाने के लिए इस्तिमाल किए है। सब से ज़्यादा दिल को छू लेने वाला वाक़िया प्रभाकरण और राजीव गांधी से मुताल्लिक़ रक़म है वज़ीर-ए-आज़म के जलील-उल-क़द्र ओहदे पर फ़ाइज़ होने के बाद उन्होंने कई मसाइल की यकसूई की कोशिश की जैसे पंजाब में अकाली, मीज़ोरम और नागालैंड में शोरिश पसंदों से भी बातचीत की।

प्रभाकरण की एल टी टी ई मुसलसल दर्द-ए-सर बनी हुई थी। दिल्ली तलब करके राजीव गांधी ने प्रभाकरण को नज़र बंद करवा दिया और ये सिलसिला उस वक़्त तक जारी रहा जब तक प्रभाकरण ने श्रीलंका के साथ अमन मुआहिदा पर दस्तख़त नहीं करदिए। प्रभाकरण जब श्रीलंका के लिए रवाना हुआ तो इस ने अज़म कर लिया था कि वो राजीव गांधी को सबक़ ज़रूर सिखायगा और इस तरह हिंदुस्तान से अमन बर्दार फ़ौज को श्रीलंका रवाना किया गया। उस वक़्त के सदर श्रीलंका जयवरधने ने अपनी चाल कुछ इतने शातिर अंदाज़ में चली कि अमन बरदार फ़ौज ने एल टी टी ई से लड़ाई शुरू करदी। शायद ये तरीका-ए-कारश्रीलंकाई अवाम को और ख़ुसूसी तौर पर फ़ौजियों को पसंद नहीं आया।

यहां इस बात का तज़किरा ज़रूरी है कि जिस वक़्त राजीव गांधी श्रीलंका के दौरे पर पहुंचे और गार्ड आफ़ आनर का मुआइना कर रहे थे तो उस वक़्त एक श्रीलंकाई फ़ौजी ने राजीव गांधी को हलाक करने की कोशिश की थी। बिलआख़िर हुकूमत श्रीलंका और एल टी टी ई की मुफ़ाहमत से अमन बर्दार फ़ौज को श्रीलंका से इख़राज के लिए मजबूर कर दिया गया। 1991 में एल टी टी ई की एक ख़ातून ख़ुदकुश हमलावर ने श्रीपेरमबदुर में राजीव गांधी को हलाक कर दिया। ब्रीगेडीयर शर्मा को ये फ़िक्र लाहक़ है कि जिस तरह अदलिया के नक़ाइस से पर तरीका-ए-कार समेत जजस और वुकला मुतास्सिर हुए हैं दीगर अब्ना-ए-वतन उसी सूरत-ए-हाल के शिकार ना हों। ज़ेरे तबसेरा किताब में कुछ नायाब तसावीरें भी शाये की गयी हैं।

सब से दिलचस्प तहरीर शर्मा का वो disclaimer है, जो उन्होंने सफ़ा 9 पर पेश किया है। जिस तरह किसी फ़िल्म की इब्तिदा-ए-से क़ब्ल ये बताया जाता है कि फ़िल्म का हर किरदार महज़ फ़र्ज़ी है उसकी किसी भी बाहयात या रेहलत कर गए शख़्स से मुमासिलत महज़ इत्तिफ़ाक़ी हो सकती है जिसकी ज़िम्मेदारी फ़िल्म के राईटर , प्रोडयूसर-ओ-डायरेक्टर पर आइद नहीं होती। चूँकि मिस्टर ये किताब हक़ायक़ की एक ऐसी मिनी इन्साईक्लोपीडिया है जिस से इन्कार नहीं किया जा सकता। उन्होंने बबांगे दहल कहा है कि किताब हाज़ा के ज़रिये वो दरअसल एक सच्ची रिपोर्ट का पेश कर रहे हैं जो पढ़ने वालों के ग़ौर व ख़ौज़ की तालिब है। किताब के सब ही किरदार हक़ीक़ी हैं। रिपोर्ट में जो भी बयानात दर्ज हैं इन सब का ज़िम्मेदार मैंं (मिस्टर शर्मा) हूँ।
अलबत्ता किताब के आख़िरी सफ़हात में ब्रिगेडियर शर्मा अपने हम वतनों से मुख़ातब हो कर जहां ये शेअर पढ़ रहे हैं-
ये मुल्क , नेहरू ना गांधी ना आज़ाद का
ये मुल्क आप का और आप की औलाद का

वहीं दूसरी तरफ़ ये निकहत कौन है , इसकी वज़ाहत उन्होंने नहीं की है जिसकी नज़र उन्होंने दो अशआर किए हैं-
सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं.. और
कितनी मुख़्तसर है वस्ल की रात
नापेंगे हम दोनों , साथ -साथ

बहरहाल ज़ेरे तबसेरा किताब का हर शख्स को मुताला करना चाहिए जो महकमे दिफ़ा को बदउनवानियों से पाक महकमा और फ़ौजी आफ़िसरान को पार्सा तसव्वुर करता है। किताब की इशाअत त्रिशूल पब्लिकीशनज़ नोएडा से अमल में आई है। इस के लिए फ़ोन 009350868285 पर रब्त पैदा किया जा सकता है, सफ़हात 377 और किताब की क़ीमत 793 रुपय है। बेहतरीन तबाअत, उम्दा काग़ज़ और गर्द पोश (Dust cover) पर इंसाफ़ की देवी अपनी आँखों पर पट्टी और हाथ में तराज़ू के साथ हमें दावत फ़िक्र देती नज़र आती है। मनमोहन शर्मा की इस किताब को हाथों हाथ लिए जाने की ज़रूरत है क्योंकि ये अपने मौज़ू की इन्फ़िरादियत की वजह से दीगर किताबों से मुमताज़ है। मेरा शख़्सी ख़्याल ये है कि अरविंद केजरीवाल अगर इस किताब का मुताला करें तो वो यक़ीनन वज़ारत-ए-दिफ़ा में पाई जाने वाली बदउनवानियों के ख़िलाफ़ दिल्ली के जंतर मंतर पर अपना एक और धरना ज़रूर मुनज़्ज़म करेंगे।