ओलिंपिक में भारत का निराशाजनक प्रदर्शन जारी है. जी, अभी भी जारी है लेकिन इस बार दुःख इसलिए भी ज़्यादा हो रहा है क्यूंकि पिछले दो ओलिंपिक में भारत ने अपनी उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया था और इस बार ये उम्मीद की जा रही थी कि इस बार भारत दहाई का आंकड़ा पार करेगा लेकिन दहाई का आंकडा तो क्या अभी तक एक पदक भी हाथ नहीं आया है. अब इसकी विवेचना होने लगी है कि आख़िर ऐसी क्या बात है कि भारत जैसा इतना बड़ा देश, इतनी अधिक आबादी वाला देश सबसे फ़िसड्डी क्यूँ है. कुछ लोगों का तर्क है कि भारत में मूलभूत सुविधाओं की कमी है तो कुछ ये भी कहते हैं कि देश की राजनीति खेल के बीच अपनी जगह बना लेती है. हालाँकि इन दोनों बातों को दरकिनार नहीं किया जा सकता लेकिन जब मैं फ़ेहरिस्त देखता हूँ तो पाता हूँ कि उन देशों ने भी कुछ पदक जीते हैं जहां पर सुविधाओं की उम्मीद हम नहीं कर सकते. अब केन्या में ऐसी कौन सी सुविधाएं होंगी जो भारत अपने खिलाड़ियों को नहीं दे पा रहा? या फिर इसी तरह के दूसरे छोटे छोटे देशों के पास कौन सी मूलभूत सुविधाएं हैं जिससे उन्हें ओलिंपिक में मेडल जीतने में मदद मिल रही है. असल में एक बात जो है वो ये कि भारत के लोगों में ओलिंपिक को लेकर जागरूकता बिलकुल ना कि बराबर है. लोग ये तो चाहते हैं कि देश को पदक मिलें लेकिन ये पदक वो ख़ुद नहीं कोई और ही जीते और अगर किसी तरह उनमें ये जज़्बा आता भी है कि वो देश के लिए ओलिंपिक में कुछ करें तो वो या तो उतनी मेहनत ख़ुद नहीं करते या उनके माँ बाप उन्हें करने नहीं देते क्यूंकि देश में स्पोर्ट्स को लेकर रूझान अच्छा नहीं है. ये तो ओलिंपिक की बात है लोग तो अपने बच्चों को क्रिकेट भी खेलने नहीं देना चाहते, उनका कहना है कि पढ़ाई करो और नौकरी हासिल करो…उसके बाद जो मर्ज़ी वो करते रहना. अब इस कुतर्क के आगे तो कुछ चलने से रहा, अगर आप 25 साल की उम्र के बाद ही ओलिंपिक की तय्यारी करवा रहे हैं तो पदक तो भूल ही जाइए. कहीं ना कहीं जज़्बे की भी कमी है क्यूंकि ये जज़्बा ही है जिसकी वजह से हर भारतीय क्रिकेट खेलना चाहता है लेकिन ये जज़्बा दूसरे खेलों की तरफ़ नहीं जा पा रहा, इसके लिए सरकार को बुनियादी तौर पर आज ही से काम करना चाहिए कि 2020 में जब टोक्यो में भारतीय खिलाड़ी जाएँ तो बेहतर प्रदर्शन कर पायें.
(अरग़वान रब्बही)