कभी बचपन में मां के साथ सड़कों पर चूड़ियां बेचते थे, आज हैं IAS अफ़सर

कहते हैं, लाख बाधाएं भी किसी की लगन, हौसले और जुनून को रोक नहीं सकतीं। सच्ची लगन, ईमानदार कोशिश और क्षमतावान इंसान अपनी मंजिल ढूंढ़ ही लेता है। भारत के राष्ट्रपति पद को सुशोभित करने वाले मिसाइल मैन स्वर्गीय डॉक्टर एपी जे अब्दुल कलाम ने तभी तो कहा था ” छोटे सपने देखना अपराध है। (Dreaming small is a crime)” शायद यही वो बड़े सपने थे जो महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के वारसी तहसील के महागांव के रमेश घोलप को सफलता के इस मकाम पर ले आई है।

Facebook पे हमारे पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करिये

कांच की रंग-बिरंगी चूड़ियों की तरह रमेश का बचपन रंगों भरा तो बिलकुल भी नहीं था। हर सुबह जब वह नन्ही सी जान अपनी मां के साथ चिलचिलाती धूप में गांव की गलियों, चौक चौराहों पर नंगे पाँव चूड़ी बेचने निकलता थी, तब दो वक़्त की रोटी के ख़ातिर उसके संघर्ष की कहानी हर रोज़ हर वक़्त एक जंग साबित होती थी। मां की परछाई की तरह नन्हे कदमों से होड़ लगाता, माँ सड़कों पर जब-जब आवाज़ लगाती, ‘चूड़ी ले लो.. चूड़ी’, तो पीछे से वह लड़का तोतली आवाज़ में दोहराता “तुली लो …तुली”
ias506_1459841058

ias
भूख ऐसे हालात को जन्म देती है, जहाँ अच्छे से अच्छे इंसान के हौसले पस्त हो जाते है। पर कहते है पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते है। हालात ने उसे जीवन के लिए लड़ना सिखाया, वहीं ग़रीबी, पिता का शराबी होना और भूख ने इस नन्ही जान के आखों में एक सपने को जन्म दिया। खाली हाथ, न सर पे छत, कलम के बल पर कठिन परिश्रम और सच्ची व् ईमानदार लगन ने उस सपने को हक़ीकत में तब्दील कर दिया, जो आज लाखों लोगों के लिए प्रेरणा है। उसका नाम है ‘आईएएस रमेश घोलप’। जिन्दगी के हर मोड़ ने ली परीक्षा, पर रमेश घोलप कभी मंज़िल से भटके नहीं।

वर्त्तमान में रमेश घोलप झारखंड मंत्रालय के ऊर्जा विभाग मे संयुक्त सचिव हैं और उनकी संघर्ष की कहानी प्रेरणा पुंज बनकर लाखों लोगों के जीवन में ऊर्जा भर रही है। रमेश के पिता नशे की लत की वजह से कभी भी अपने परिवार पर ध्यान नहीं देते थे। जीविका के लिए रमेश और उनकी मां को सड़कों पर जाकर कांच की चूड़िया बेचने के लिए विवश होना पड़ता था। इससे जो पैसे जमा होते थे, उसे भी पिता अपनी शराब पर खर्च कर देते थे।

रमेश के पास न रहने के लिए घर था और न पढ़ने के लिए पैसे। था तो महज वो अदम्य हौसला, जो उनके सपनों को पूरा करने के लिए काफ़ी था। रमेश का बचपन उनकी मौसी को मिले सरकारी योजना के तहत इंदिरा आवास में बीता। वह वहां आजीविका की तलाश के साथ पढ़ाई करते रहे, लेकिन जिन्दगी को तो अभी रमेश को और आज़माना था।मैट्रिक परीक्षा में कुछ दिन ही बाकी होंगे की रमेश के पिता की मृत्यु हो गई। इस घटना ने उनको झकझोर दिया, लेकिन जिन्दगी के हर उठा-पटक का सामना कर चुके रमेश हौसला नहीं हारे। विपरीत हालात में भी उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा दी और 88.50 फीसदी अंक हासिल किए।

बकौल रमेश घोपल,

“अपने संघर्ष के लंबे दौर में मैंने वह दिन भी देखे हैं,जब घर में अन्न का एक दाना भी नहीं होता था। फिर पढ़ाने खातिर रूपये खर्च करना उनके लिए बहुत बड़ी बात थी। एक बार मां को सामूहिक ऋण योजना के तहत गाय खरीदने के नाम पर 18 हजार रूपये मिले, जिसको मैंने पढ़ाई करने के लिए इस्तेमाल किया और गांव छोड़ कर इस इरादे से बाहर निकले कि वह कुछ बन कर ही गांव वापस लौटेंगे। शुरुआत में मैंने तहसीलदार की पढ़ाई करने का फ़ैसला किया और तहसीलदार की परीक्षा पास कर तहसीलदार बना, लेकिन कुछ वक़्त बाद मैंने आईएएस बनने को अपना लक्ष्य बनाया।”

कहते है न कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती। इस बात को पुनः साबित करने वाले रमेश घोलप की कहानी अब महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के वारसी तहसील और उनके गांव के बच्चे समेत बड़े-बुजुर्गो की जुबान पर है। संघर्ष की कहानी बच्चा-बच्चा जानता है। तंगहाली के दिनों में रमेश ने दीवारों पर नेताओं के चुनावी नारे, वायदे और घोषणाओं इत्यादि, दुकानों का प्रचार, शादी में साज़ सज्जा वाली पेंटिंग करते थे। इन सब से जो कुछ भी थोडा बहुत मेहनताना मिलता था, वह पढ़ाई पर खर्च करते थे।

कलेक्टर बनने का सपना आंखों में संजोए रमेश पुणे पहुंचे। हालांकि, पहले प्रयास में रमेश विफल रहे। लगा जैसे एक बार फिर ज़िन्दगी ने रमेश के इरादों को आखिरी बार आज़माने का मन बनाया हो। लेकिन मजबूत इरादे और बुलन्द हौसलों ने उन्हें कभी हिम्मत न हारने दिया। वर्ष 2011 में एक बार फिर से यूपीएससी की परीक्षा दी। इसमें रमेश को 287वां स्थान प्राप्त हुआ। इस तरह उनका आईएएस बनने का सपना साकार हुआ।

रमेश अपने गांव में बिताए कुछ यादों के साथ बताते हैं,

“मैंने अपनी मां को 2010 के पंचायती चुनाव लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया था। मुझे लगता था गांव वालों का सहयोग मिलेगा, लेकिन मां को हार का सामना करना पड़ा। उसी दिन मैंने यह प्रण किया था कि इस गांव में मैं तभी अपने कदम रखूंगा जब, अफसर बन कर लौटूंगा।”

आईएएस बनाने के बाद जब 4 मई 2012 को अफसर बनकर पहली बार गांव पहुंचे, तब उनका जोरदार स्वागत हुआ। आख़िर होता भी क्यों नही? वह अब मिसाल बन चुके थे। उन्होंने अपने हौसले के बलबूते यह साबित कर दिया था,जहां चाह है वहां राह है, बशर्ते सच्ची लगन और ईमानदार कोशिश की जाए।

साभार: yourstory