कमज़ोर और मराआत से महरूम अफ़राद की इंसानी हुक़ूक़ से महरूमी अफ़सोसनाक

जनाब ज़ाहिद अली ख़ान एडीटर सियासत ने आज कहा कि अक्सर ये देखा गया है कि हक़ूक़-ए-इंसानी की पासदारी करने वाले इदारे और अथॉरिटीज़ से भी हक़ तलफ़ियों का सहीह इदराक नहीं हो पाता जिस के बाइस कई शहरी अपने बुनियादी हुक़ूक़ से भी महरूम होजाते हैं। इंसानी हुक़ूक़ से महरूमी पर अदल-ओ-इंसाफ़ के लिए जिन इदारों यह अथॉरिटीज़ से रुजू किया जाता है वो भी हुकूमत की पालिसीयों और क़वानीन के आगे कभी कुभार बेबस होजाते हैं।

जनाब ज़ाहिद अली ख़ान आज यहां महबूब हुसैन जिगर हाल, इदारा सियासत में नेशनल कॉन्फैडरेशन आफ़ ह्यूमन राईट्स आर्गेनाईज़ेशनस के ज़ेर एहतिमाम समेनार तर कुयात, बेघर कर दिया जाना और हक़ूक़-ए-इंसानी से ख़िताब कररहे थे। जनाब ज़ाहिद अली ख़ान ने कहा कि अक्सर मौक़ों पर ये देखा गयाह कि पर कमज़ोर और महरूम लोगों को उन के बुनियादी इंसानी हुक़ूक़ से महरूम कर दिया जाता है और उन की हक़ूक़-ए-इंसानी के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क़ायम इदारों में भी दाद रस्सी नहीं होपाती।

जनाब ज़ाहिद अली ख़ान ने कहा कि मफ़ाद-ए-आम्मा के प्रोजेक्ट के लिए बहुत से मवाज़आत को ख़ाली कर दिया जाता है और किसानों की ज़मीनात हासिल करली जाती हैं जिन का उन्हें मुआवज़ा दिया जाता है जो कभी उन से हासिल करदा ज़मीन के हक़ीक़ी क़दर के मुसावी होता है तो कभी ज़ाइद ही होता है मगर फ़सादाद में बेघर होजाने वालों को महरूमियों का ही सामनाकरना पड़ता है।

उन्हें अपने हुक़ूक़ के लिए बरसों जद्द-ओ-जहद करने के बावजूद मायूसी का ही सामना करना पड़ता है। जनाब ज़ाहिद अली ख़ान ने कहा कि हुकूमत की पालिसीयां इस नवीत की बनाई जाती हैं कि अक़लियतें तरक्कियाती मंसूबों से इस्तिफ़ादा नहीं कर पाते। प्रोफेसर नागर गेरा (पीपल्ज़ डेमोक्रेटिक फ़ोर्म कर्नाटक) ने कहा कि दस्तूर हिंद नामी एक किताब है जो मुल्क में क़ानून की हुक्मरानी की ज़ामिन है जो हिंदुस्तानी शहरियों के बुनियादी हुक़ूक़, मसावात, समाजी इंसाफ़ और सैकूलर इज़म की हिमायत करता है मगर बहुत से लोग उसे दस्तूर के तौर पर क़बूल नहीं करते।

इस के बर ख़िलाफ़ हज़ारों बरस क़बल बनाए गए स्मृतियों को आज भी क़ानून का दर्जा हासिल है। इन क़वानीन के बाइस मआशी, सयासी हत्ता कि सक़ाफ़्ती इम्तियाज़ात का शिकार बनना पड़ता है। उन्हों ने कहा कि गांधी जी ने कहा था कि अगर आम आदमी के आँसू पोंछे जाएं तो समझे कि हक़ीक़ी आज़ादी हासिल होगी। उन्हों ने कहा कि पण्डित नहरू ने आबपाशी प्रोजेक्ट को जदीद हिंदुस्तान के मुनादिर कहा था जिस के लिए लोगों को बेघर कर दिया जाता है। हमें इसी ज़हनियत दी गई है कि मंदिर, घर से ज़्यादा अहम है।

उन्हों ने कहा कि बसा औक़ात एसा होता हैकि किसान को जो ज़मीन का मालिक होता 10-20 लाख रुपये का मुआवज़ा तो ज़रूर होता है मगर बाद में वो यौमिया मज़दूर बन जाता है। उन्हों ने कहा कि ज़मीन के मालिक ही जब बे ज़मीन होजाए तो बे ज़मीन ज़रई मज़दूरों का क्या हश्र होगा? मिस्टर डी सुरेश कुमार ( ए पी सियोल लिबर्टीज़ कमेटी) ने कहा कि तमाम सियासी पार्टियों का असल एजंडा होता है।

जो पार्टियां इक़तिदार पर नहीं होती हैं हुक्मराँ पार्टी की जिन पालिसीयों और प्रोग्रामों की मुख़ालिफ़त करती है वही जब इक़तिदार पर आजाती है तो उन्ही पालिसीयों और प्रोग्रामों को रुबा अमल लाती है। उन्हों ने कहा कि पार्टियों का एजंडा और नाम मुख़्तलिफ़ होते हैं मगर वो इक़तिदार पर आजाती हैं तो वो अवामी मुफ़ाद पर अपने मुफ़ाद को तरजीह देती हैं।

उन्हों ने कहा कि स्कूलस में टॉयलेट्स के फ़ुक़दान का मुआमला हो कि किसी थर्मल प्लांट के लिए बेघर किए जाने वाले अफ़राद के हुक़ूक़ का मुआमला अवाम को बाअज़ औक़ात अदलिया से भी इंसाफ़ नहीं मिल पाता।

उन्हों ने कहा कि हुकूमत अपने एजंडा को पूरा करने के लिए पार्ल्यमंट में क़ानूनसाज़ी का सहारा लेती है और गांव में पोलीस का सहारा लेती है।इस तक़रीब से प्रोफेसर पी कोया (एडीटर थेजास डेली केराला) मिस्टर रैणी आए लाईन क़ौमी कोआर्डीनेटर नेशनल कॉन्फैडरेशन आफ़ ह्यूमन राईट्स आर्गेनाईज़ेशनस औरदीगर ने भी मुख़ातब किया।