कयामत के नजदीक होने की अलामात

(आबिद अली) हजरत हुजैफा (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल0) ने फरमाया-बहत्तर चीजे कयामत के नजदीक होने की अलामत है, जब तुम यह अलामात देखो तो फिर सुर्ख आंद्दी, जमीन में द्दंस जाने, शक्लें बिगड़ जाने और आसमान से पत्थर बरसने जैसे अजाबों का इंतजार करना। लोग नमाजे गारत करने लगेंगे यानी नमाजों का एहतमाम रूखसत हो जाएगा।

नमाज इस्लाम का सबसे अहम सतून है। कयामत के दिन बंदे से सबसे पहले नमाज के मुताल्लिक ही पूछा जाएगा। हदीस में है कि कयामत के दिन बंदे से पहला सवाल नमाज के बारे में होगा। अगर उसकी नमाज दुरूसत है तो सारे अमल फासिद हैं। कुरआने हकीम में भी इबादात में से सबसे ज्यादा नमाज का हुक्म दिया गया है। बीमारी, सफर यहां तक कि हालते जंग में भी नमाज की माफी नहीं है। हदीस में नमाज को मोमिन की मेराज कहा गया है।

यह हदीस हम आमतौर पर पढ़ते-सुनते हैं लेकिन कभी इस पर गौर नहीं करते कि नमाज और मेराज का क्या ताल्लुक है? सबसे पहले तो यह कि पंज वक्ता नमाज मेराज के मौके पर फर्ज हुई। दूसरा बारीक नुक्ता यह है कि मेराज के मौके पर नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और अल्लाह तआला की मुलाकात हुई थी। जाहिर सी बात है कि खालिके कायनात जैसी अजीम हस्ती से मुलाकात कोई मामूली बात नहीं। यह एक शर्फ व मरतबे का मकाम है। इसी तरह जब मोमिन बंदा अल्लाह के हुजूर नमाज की हालत में खड़ा होता है तो दर हकीकत वह भी अल्लाह तआला से मुलाकात कर रहा होता है।

हदीस जिब्रील में नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ‘एहसान’ की तारीफ करते हुए बयान फरमाया कि तुम अल्लाह तआला की इबादत इस तरह करो गोया तुम अल्लाह को देख रहे हो और यह कि अगर तुम अल्लाह तआला को नहीं देख पा रहे हो तो अल्लाह तआला तो जरूर तुम्हे देख रहा है।

इन अहादीस की रौशनी में नमाज की अहमियत और भी वाजेह हो जाती है कि नमाज कोई मामूली अमल नहीं बल्कि बंदे के लिए अपने रब से मुलाकात और मनाजात का जरिया है। इसको दुनियावी एतबार से समझें कि अगर कोई अफसर अपने मातहत को यह हुक्म दे कि तुम फलां फलां वक्त मुझसे मुलाकात के लिए आ जाना और वह मातहत मुलाकात के लिए हाजिर न हो तो उस मातहत के लिए क्या सजा हो सकती है।

लाजिमन तंबीह और बाद में नौकरी से इखराज ही इस अमल का नतीजा निकलेगा। इसी तरह अगर बंदा अपने रब के हुजूर वक्त पर पेश होकर मुलाकात न करे तो उस बंदे का क्या अंजाम होगा?

हम आमतौर पर दफ्तरी और तिजारती कामों में इतने मसरूफ होते हैं कि अक्सर नमाजें या तो कजा हो जाती हैं या फिर जमाअत फौत हो जाती है। अल्लाह तआला ने ऐसे ही लोगों की फजीलत बयन की है जो नमाज के लिए अपना दुनियावी काम द्दंद्दा छोड़कर मस्जिद में हाजिर होते हैं अल्लाह तआला का इरशाद है- ‘उनमें ऐसे लोग सुबह व शाम उसकी तस्वीह करते हैं जिन्हें तिजारत और खरीद व फरोख्त अल्ला तआला की याद से और अकामते नमाज व जकात अदा करने से गाफिल नहीं कर देती वह उस दिन से डरते रहते हैं जिससे दिल उलटने और दीदे पथराने की नौबत आ जाएगी।’ (सूरा अलनूर-378)

मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी अपनी तफसीरूल कुरआन में लिखते हैं-‘यानी मआश के द्दंद्दे उनको अल्लाह तआला की याद और अल्लाह के एहकाम की बजा आवरी से गाफिल नहीं करते, बड़े से बड़ा ब्योपार या मामूली खरीद व फरोख्त कोई चीज खुदा के जिक्र से नहीं रोकती, सहाबा की यही शान थी।’

तफसीर इब्ने कसीर में मंकूल है कि यहां अल्लाह के जिक्र से जमाअत की नमाज मुराद है। मजीद लिखते हैं कि एक बार हजरत अब्दुल्लाह इब्ने मसूद (रजि0) ने कुछ लोगों को देखा कि वह अजान होते ही खरीद व फरोख्त बंद करके नमाज के लिए चल दिए हैं, आप (रजि0) ने यह देखकर फरमाया-यही लोग हैं जिनको अल्लाह तआला ने ‘रिजालुल्लाह’ से याद फरमाया है।

हजरत अब्दुल्लाह इब्ने मसूद (रजि0) ने फरमाया-जो शख्स यह चाहता है कि कल (महशर में) अल्लाह तआला से मुसलमान होने की हालत में मिले तो उसको चाहिए कि इन (पांच) नमाजों के अदा करने की पाबंदी उस जगह करे जहां अजान दी जाती है। यानी मस्जिद क्योंकि अल्लाह तआला ने तुम्हारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के लिए हिदायत के कुछ तरीके बतलाए हैं और इन पांच नमाजों को जमाअत के साथ अदा करना इन्हीं ‘सनन हदी’ में से है और अगर तुमने यह नमाजे अपने घर में पढ़ लीं जैसे यह जमाअत से अलग रहने वाला अपने घर में पढ़ लेता है (किसी शख्स की तरफ इशारा करके फरमाया) तो तुम अपने नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत को छोड़ बैठोगे और अगर तुमने अपने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सुन्नत को छोड़ दिया तो तुम गुमराह हो जाओगे (और जो शख्स वजू करे और अच्छी तरह पाकी हासिल करे) फिर किसी मस्जिद का रूख करे तो अल्लाह तआला उसके हर कदम पर नेकी उसके आमाल नामे में दर्ज फरमाता है और उसका एक दर्जा बढ़ा देता है और एक गुनाह माफ कर देता है और हमने अपने मजमे को ऐसा पाया है कि मुनाफिक बीन निफाक (यानी खुले मुनाफिक) के सिवा कोई आदमी जमाअत से अलग नमाज न पढ़ता या यहां तक कि बाज हजरात को उज्र और बीमारी में भी दो आदमियों के कंद्दे पर हाथ रखकर मस्जिद में लाया जाता था और सफ में खड़ा कर दिया जाता था।

(मुस्लिम) नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया-‘अगर तुम्हारे घर के सामने कोई नहर बहती हो और तुममें से कोई हर रोज पांच बार उसमें गुस्ल करे तो क्या उसके बदन पर कोई मैल-कुचैल बाकी बचेगा?’ सहाबा (रजि0) ने अर्ज किया-नहीं, उसके बदन पर कोई मैल नहीं होगा।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया-‘यही मिसाल पांच नमाजों की है, अल्लाह तआला उनके जरिये गुनाहों की मिटा देता है।’ (सही बुखारी) ‘जो नमाजों की हिफाजत करे तो पांचों नमाजें और जुमा के बाद दूसरा जुमा पढ़ना गुनाहों का कफ्फारा बन जाता है।

बशर्ते कि गुनाह कबीरा न किए जाए।’ (सही मुस्लिम) ‘जब तक नमाजी अपने मुसल्ले पर हो उस वक्त तक फरिश्ते रहमत की दुआएं करते रहते हैं जब तक वह नमाजी बेवजू न हो जाए।’ (सही मुस्लिम) ‘जो शख्स इशा की नमाज बाजमाअत पढ़े तो गोया वह आद्दी रात तक कयाम करता रहा। जो शख्स सुबह की नमाज बाजमाअत पढ़ता है तो गोया उसने सारी रात कयाम किया है।’ (सही मुस्लिम) ‘जब कोई शख्स मस्जिद में नमाज पढ़ता है तो उसको घर के लिए नमाज का हिस्सा रखना चाहिए।

अल्लाह तआला ने उसके घर की नमाज के हिस्से में बड़ी खैर रखी है।’ (सही मुस्लिम) यानी घर में नवाफिल पढ़ने से घर वाले भी नमाजी बन जाएंगे, इससे बढ़कर और क्या खैर व बरकत होगी।

‘जो शख्स मुसलसल चालीस दिन तक तकबीर ऊला के साथ नमाज पढ़ता रहा तो अल्लाह तआला उसके लिए दो आजादियां लिख देता है एक, जहन्नुम से आजादी और दूसरी मुनाफिकत से आजादी।’ (तरगीब व तरहीब) ‘जो शख्स फज्र की नमाज बाजमाअत पढ़ता है फिर बैठ कर जिक्रे इलाही करता है यहां तक कि सूरज तुलूअ हो जाए फिर दो रिकात नफिल पढ़ता है तो उसे हज व उमरा का सवाब मिल जाता है।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया- ‘मुकम्मल-मुकम्मल यानी मुकम्मल अज्र व सवाब मिलेगा।’ ‘जो शख्स हर रोज बारह रिकात नफिल (यानी सुन्नतें) पढ़ेगा तो अल्लाह तआला उसके लिए जन्नत में एक घर बनाएगा।’ (सही मुस्लिम) ‘जो शख्स अल्लाह तआला के लिए एक सजदा करता है तो अल्लाह तआला उसके लिए एक नेकी लिख
देता है, एक गुनाह मिटा देता है और एक दर्जा बुलंद फरमाता है। इसलिए तुम कसरत से सजदे करो।’ (तरगीब)
नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सिर्फ नमाज अदा करने की तालीम नहीं दी बल्कि कुरआने करीम के हुक्म के मुताबिक नमाज को कायम करने की तरगीब दी। अहादीस में बाजमाअत नमाज की अदाएगी की फजीलत बयान की गई है।

नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इरशाद है कि आदमी अपने घर पर नमाज पढ़े तो सिर्फ एक नमाज का सवाब उसको मिलता है और मोहल्ले की मस्जिद में पच्चीस गुना सवाब मिलता है और जामा मस्जिद में पांच सौ गुना सवाब ज्यादा मिलता है और बैतुल मुकद्दस की मस्जिद में पचास हजार नमाजों का सवाब है और मेरी मस्जिद (यानी मस्जिदे नबवी) में पचास हजार का सवाब है और मक्का मुकर्रमा की मस्जिद में एक लाख नमाजों का सवाब है।’ (इब्ने माजा)

हजरत अबू हुरैरा (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इरशाद है- ‘आदमी की नमाज बाजमाअत घर या बाजार की नमाज से पच्चीस दर्जा बढ़ कर होती है (यानी सवाब के एतबार से) क्योंकि जब कोई शख्स अच्छी तरह वजू करके मस्जिद की तरफ नमाज के इरादे से निकलता है तो हर कदम पर एक दर्जा बढ़ता है और एक गुनाह माफ हो जाता है, फिर जब नमाज से फारिग होकर उसी जगह बैठा रहता है तो जब तक बावजू बैठा रहता है, फरिश्ते उसके लिए मगफिरत व रहमत की दुआ करते हैं और जब तक वह नमाज के इंतजार में रहता है, नमाज का सवाब पाता रहता है। (बुखारी)

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के नजदीक जमाअत की अहमियत का अंदाजा इससे भी किया जा सकता है कि आप (सल0) ने नाबीना सहाबी को भी घर में इंफिरादी नमाज पढ़ने की इजाजत नहीं दी। हजरत अबू हुरैरा (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की खिदमत में एक नाबीना शख्स ने हाजिर होकर दरयाफ्त किया कि मुझे कोई मस्जिद पहुंचाने वाला नहीं है (यानी क्या ऐसी हालत में इस उज्र की वजह से तनहा नमाज पढ़ सकता हूं?) यह सुनकर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे इजाजत दे दी मगर जब वह शख्स जाने लगा तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे बुलाकर दरयाफ्त फरमाया कि क्या तुम अजान की आवाज सुनते हो? उसने अर्ज किया-जी हां! इस पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया- ‘तब तो तुम को जमाअत में हाजिर होना चाहिए।’ (मिश्कात)

हजरत अबू उमामा (रजि0) से मरवी है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया- ‘जमाअत से पीछे रहने वाले को अगर जमाअत की तरफ जाने का सवाब मालूम हो जाए तो वह अपने हाथों और पैरों पर घिसटता हुआ आए।’ (तरगीब) उम्मुल मोमिनीन सैयदा आयशा (रजि0) रिवायत करती हैं कि ‘जब नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपनी जिन्दगी के आखिरी दिनों में बीमार हुए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नेक बीवियों से इजाजत चाही कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तीमारदारी मेरे घर में की जाए इसलिए सबने इजाजत दे दी, फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) (उसी बीमारी की हालत में) दो शख्सों के सहारे (यानी) हजरत अब्बास (रजि0) और एक दूसरे शख्स के साथ जमीन पर पांव घसीटते हुए (जमाअत से नमाज पढ़ने के लिए) तशरीफ ले गए।’ (बुखारी) आज हम नमाज के हवाले से मुस्लिम समाज का पूरा जाएजा लें तो मिसाली सूरतेहाल नजर नहीं आती।

अगरचे इस वक्त इस्लाम में दाखिल होने वालों की तादाद में खूब इजाफा हो रहा है लेकिन पैदाइशी मुसलमानों की हालत देख कर अफसोस होता है। अल्लाह तआला हमें खुलूस दिल के साथ नमाज पंजगाना बाजमाअत अदा करने की तौफीक अता फरमाए-आमीन।

बशुक्रिया: ज\दीद मरकज़