करबला का आख़िरी सजदा

दुनिया भर में मुसलमानों की हालत-ए-ज़ार पर जहां कुछ मुस्लिम ग़ैर मुस्लिमों को इसका ज़िम्मेदार ठहराते हैं, वहीं कुछ मुसलमानों का ये मानना है कि बहुत हद तक वो ख़ुद भी इसके ज़िम्मेदार हैं। इबादत ए इलाही हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है और इससे बेएतिनाई मुसलमानों को अल्लाह से दूर कर देती है, जिससे वो कमज़ोर और तबाह-ओ-बरबाद होते हैं।

लफ़्ज़ ए इबादत के साथ ही फ़ौरन नमाज़ का तसव्वुर आ जाता है। हालाँकि कई दीगर इबादतें भी हैं, जो मुसलमानों पर फ़र्ज़ की गई हैं, लेकिन ज़िक्र होता है तो बस नमाज़ का। गोया नमाज़ ही इबादत की असल पहचान है। कोई शख़्स चाहे कितनी ही इबादतें करता हो, लेकिन नमाज़ ना पढ़ता हो तो कोई इसे इबादतगुज़ार नहीं कहता और कोई सिर्फ़ नमाज़ पढ़ता हो और दीगर इबादतें ना भी करता हो, फिर भी लोग इसे इबादतगुज़ार कहते हैं।

इबादत की इब्तिदा कब और किस तरह हुई?

अल्लाह तआला का इरशाद है कि मैं एक छुपा हुआ ख़ज़ाना था। मैंने चाहा कि पहचाना जाऊं। अब इस मक़सद के लिए इसने ख़ल्क़ किया अक्ल (यानी नूर ए मुहम्मद स०अ०व०)को और उसे सरफ़राज़ किया इल्म से।

इल्म के अता होते ही अक्ल ने सजदा किया। ये था कायनात का पहला सजदा और ये सजदा अक्ल का अपना ज़ाती फे़अल था, इसकी अपनी इताअत, अपनी मुहब्बत, अपनी ख़ुद सुपुर्दगी और वारिफ़्तगी थी।

अल्लाह तआला को अक्ल (नूर ए मुहम्मद स०अ०व०)की ये अदा इतनी पसंद आई कि इसने इसी अदा को, इसी फे़अल-ओ-अमल को मख़लूक़ से अपने रब्त महकूम का मुस्तह्कम तरीन ज़रीया बना दिया, मेराज इबादत बना दिया और इसे महफ़ूज़ कर दिया नमाज़ के हिसार में।

इससे ये साबित हुआ कि सजदा इसी से मुम्किन है, जिसके पास इल्म हो और इल्म उसी को अता किया जाता है, जिसके पास अक्ल हो और अक्ल कामिल वही है, जो मुकम्मल ख़ुद सुपुर्दगी और भरपूर ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू के साथ इताअत ख़ुदावंदी में हमावक़त हाज़िर बारगाह-ए-रब्बुल ज़ूलजलाल रहे।

काम ऐसे करो कि वो इबादत बन जाए, ना कि इबादत ऐसे करो कि वो काम मालूम हो। इबादत वो जो सिर्फ़ फ़र्ज़ की अदायगी के लिए नहीं, बल्कि इबादत जज़्बा-ए-शौक़ से सरशार होकर हो।

इबादत वो जो लुत्फ़-ओ-सुरूर अता कर दे, जो शर को मिटाकर अमन क़ायम कर दे, जो ज़ुल्म को पछाड़कर हक़ को बुलंद कर दे। इबादत वो जो यक़ीन पैदा कर दे, इबादत वो जिससे दिल सैर ना हो और इबादत वही है जो बारगाहे इलाही में कुबूल हो जाए और कुबूलीयत की पहचान ये बताई गई कि किसी भी इबादत के बाद इत्मीनान हासिल हो जाए, सख़्ती दूर होकर नरमी पैदा हो, ख़ौफ़ ए ख़ुदा दामन गीर हो जाए और गुनाहों से परहेज़ करने लगे तो समझ लें कि इबादत कुबूल हो गई, वरना नमाज़ी, रोज़ादार, हाफ़िज़-ए-क़ुरआन और गट्ठे वाली पेशानीयां तो करबला के मैदान में क़ातिलाँ-ए-ख़ानदान रिसालत माब (स०अ०व०) के पास भी थीं।

हज़रत अली रज़ी० ने बताया कि इबादत वो है, जो सबसे बेनयाज़ कर दे, ना किसी की चाह, ना ख़ुद का एहसास, सिर्फ़ ख़ुदाए क़दीर पेशे नज़र हो और ये इस तरह साबित हुआ, जबकि दौरान नमाज़ आप के पैर में तीर लगा और आप को एहसास तक ना हुआ। अब इन्ही के फ़र्ज़ंद हज़रत इमाम हुसैन (रज़ी०) ये बात कर रहे हैं कि इबादत वो जो हर ख़ौफ़ से आज़ाद कर दे, सिवाए रब्बुल ज़ूल जलाल के।

इबादतों को मेराज मिलती है नमाज़ में और नमाज़ को मेराज मिलती है सजदा में और सजदा को मेराज मिली क़त्लगाह ए करबला में और सजदा को ये मेराज अता की फ़र्ज़ंद ए रसूल हज़रत इमाम हुसैन रज़ी० ने। जितना तूलानी सजदा इतनी ही तूलानी मेराज। ये वो सजदा है, जिसके अदा करने से रोज़ ए अव्वल ख़ल्क़ आदम अलैहिस्सलाम पर इबलीस ने इनकार किया था।

वो सजदा जो तमाम तर सहूलतों के बावजूद बातिल से मुम्किन ना हो सका, इस सजदा को हक़ ने तमाम तर मुश्किलों और रुकावटों के बावजूद मुम्किन कर दिखाया और इसे रोज़ ए आख़िर औलाद-ए-आदम तक के लिए क़ायम‍ ओ‍ दायम कर दिया।

पहला सजदा नाना रसूल अल्लाह स० अ०व० ने किया था ख़लक़त कायनात से पहले और आख़िरी सजदा नवासे ने किया ख़त्म कायनात के बाद भी बाक़ी रह जाने के लिए।

आग के दरिया में, तीरों के मसले पर, ख़ूनी मशाम में ख़ाक ए करबला पर अपनी पेशानी को रख कर हज़रत इमाम हुसैन( रज़ी०) ने अपने सजदा की महर साबित करते हुए इबलीस के मुँह पर ऐसा तमांचा रसीद किया कि अब वो कभी अपने सजदा ना करने पर घमंड नहीं कर सकेगा और ना ही रोय ज़मीन से सजदों को मिटाने और इबादतों को ख़त्म करने का इसका ख्वाब कभी शर्मिंदा-ए-ताबीर हो सकेगा।

हक़ तो ये है कि जिसकी मिल्कियत उसी की हुकूमत हो। हज़रत इमाम हुसैन ( रज़ी०)ने बता दिया कि मैं अबू तुराब का बेटा हूँ, ये ज़मीन मेरी मिल्कियत है, इस पर मेरी ही हुकूमत होगी।