(मौलाना सैयद अशहद रशीदी )हजरत मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन हजस (रजि0) से मरवी है कि हम मस्जिदे नबवी के सेहन में नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ) के साथ उस जगह बैठे हुए थे जहां जनाजे रखे जाते थे। आप ने अचानक अपनी नजरें आसमान की तरफ उठाईं और झुका ली और फिर अपनी पेशानी पर हाथ रखकर फरमाया- सुब्हानल्लाह! सुब्हानल्लाह! कैसे-कैसे सख्त अजाब नाजिल हो रहे हैं? हम लोग एक दिन और एक रात (अजाब के इंतेजार में) खामोश रहे, मगर हमने खैर और भलाई के सिवा कुछ नहीं देखा।
जब सुबह हुई तो हजरत मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह (रजि0) फरमाते हैं कि मैंने नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) से सवाल किया कि कैसे अजाब नाजिल हुए? आपने फरमाया कि कर्ज के सिलसिले में यानी इसके हवाले से सख्त तरीन एहकाम नाजिल हुए हैं। फिर फरमाया- कसम है उस जात की जिसके कब्जे में मोहम्मद की जान है कि अगर कोई शख्स खुदा की राह में कत्ल किया जाए, फिर जिंदा हो जाए, फिर उसको अल्लाह की राह में कत्ल किया जाए, फिर जिंदा हो जाए और उसके ऊपर कर्ज हो तो वह जन्नत में दाखिल नहीं हो पाएगा। जब तक कि अपने कर्ज को अदा न कर दे।
नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की तालीमात में खासतौर पर मामलात को सुधारने की बहुत जबरदस्त ताकीद की गई है। चूंकि जिसके मामलात खराब होंगे उसका किरदार खराब होगा, जिसके मामलात खराब होंगे उसकी नीयत खराब होगी और जिसके मामलात खराब होंगे, लोगों में उसकी पहचान खराब हो जाएगी। नेक नामी से वह महरूम हो जाएगा गोया मामलात की खराबी बहुत सी परेशानियों और बुराइयों की जड़ है। इसीलिए नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने बेहतरीन मामला पर जोर दिया है ताकि इंसान दुनियावी और उखरवी नुक्सानात से बचने में कामयाब हो जाए।
ऊपर लिखी रिवायत भी उसी मामले की एक कड़ी है जिसमें नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) कर्ज जैसे अहम मामले की नजाकतों को अपनी उम्मत के सामने पेश फरमा रहे हैं।
क्या निजात के लिए नेकियां काफी हैं?:- उखरवी निजात के लिए जिस तरह नेकियों का होना जरूरी है। इसी तरह इंसान के आमालनामे का हक तल्फी और बदमामलगी से पाक व साफ होना भी इंतिहाई जरूरी है। अगर किसी शख्स के पास नेकियां खूब हो मगर दूसरों के हुकूक की पामाली से उसने अपने आप को न बचाया हो तो कल कयामत के दिन कोई नेकी उसके काम न आएगी और हक तल्फी के जुर्म में उसको जहन्नुम में भेज दिया जाएगा। इसी हकीकत की तरफ इशारा करते हुए नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने इरशाद फरमाया कि अगर कोई शख्स अपनी सबसे अजीज तरीन चीज यानी जान अल्लाह की राह में कुर्बान करे और एक बार नहीं बल्कि बार-बार भी कुर्बान करता चला जाए फिर भी अगर उसके ऊपर किसी का कर्ज है तो जब तक वह उसको अदा नहीं कर देगा, जन्नत में दाखिल न हो पाएगा गोया खुदा की राह में कुर्बान होकर शहादत के मरतबे पर फायज होने वाला शख्स भी अगर मकरूज होने की हालत में दुनिया से गया है तो जब तक दूसरों का हक अदा न कर दे वह जन्नत की नेमतों से महरूम ही रहेगा।
गरज कि जब तक मरने वाले के वारिस उसकी तरफ से कर्ज अदा न कर दें उस वक्त तक कोई नेकी उसके काम न आएगी और अल्लाह तआला की पकड़ से वह बच नहीं सकेगा।
जरूरत के वक्त कर्ज लेना कोई ऐब की बात नही है। हां, कर्ज लेकर वापस न करना नाकाबिले माफी जुर्म है। नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) सिर्फ कर्ज अदाएगी की ताकीद ही नहीं फरमाया करते थे बल्कि शदीद नाराजगी का इजहार करते हुए ऐसे शख्स की जनाजे की नमाज पढ़ाने से भी इंकार फरमा दिया करते थे जो कर्ज अदा किए बगैर दुनिया से रूखसत हो गया हो गोया आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) दूसरे लफ्जों में यह एलान कर दिया करते थे कि नबी की दुआएं भी उसको बख्शवा नहीं सकेंगी।
इसलिए हजरत अबू सईद खुदरी (रजि0) से मरवी है कि नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की खिदमत में एक जनाजा लाया गया तो आप ने नमाजे जनाजा शुरू करने से पहले मालूम किया कि क्या तुम्हारे इस मरने वाले साथी पर कोई कर्ज है? लोगों ने कहा जी हां! आप ने फरमाया- क्या इसने कुछ माल छोड़ा है जिससे कर्ज अदा हो जाए? लोगों ने कहा- नहीं।
आपने फरमाया कि तुम लोग अपने साथी की नमाजे जनाजा पढ़ लो। हजरत अली ने फरमाया- या रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम)! इसका कर्ज मेरे जिम्मेे हैं तो आप आगे बढ़े और नमाजे जनाजा पढ़ाई।
शरअन कर्ज लेना कैसा है?:- शरीयत ने जरूरत पर कर्ज लेने की इजाजत दी है लेकिन इसके लिए चंद रहनुमा उसूल तय फरमाए हैं ताकि समाज में झगड़े और इख्तिलाफात न हों। और अल्लाह के बंदे हक तल्फी के गुनाह से बच सकें। आमतौर पर लोग कर्ज के लेन देन में शरई उसूल व जाब्तों को नजरअंदाज कर देते हैं जिसके नतीजे में नाइत्तेफाकियां और बदगुमानियां का बाजार गर्म हो जाता है जिस पर रोक लगाने के लिए कुरआने करीम में अल्लाह तआला सूरा बकरा में इरशाद फरमाते हैं-‘‘ ऐ ईमान वालो! जब तुम देन और कर्ज का मामला करो तो मुद्दत मुकर्रर करके उसको लिख लिखा करो।’’
गौर कीजिए, अल्लाह तआला कर्ज और उधार का मामला करने वालों को झगड़ों से बचाने के लिए दो बातों को अख्तियार करने की ताकीद फरमाता है। एक यह कि जब कर्ज या उधार का कोई मामला करो तो रकम की वापसी की कोई तारीख मुकर्रर कर लिया करो। दूसरे यह कि सिर्फ जबान से तारीख मुकर्रर करने पर इक्तफा न करो बल्कि कागज पर उसको लिख भी लिया करो ताकि झगड़े और इख्तिलाफ का दरवाजा पूरे तौर पर बंद हो जाए और वक्त मुकर्ररा पर अदाएगी कर दी जाए।
आजकल या तो अदाएगी की मुद्दत ही तय नहीं की जाती या अगर मजबूरी में मुद्दत तय भी कर ली जाए तो उसका पास व लिहाज नहीं किया जाता और अब तो हालात यहां तक बिगड़ गए हैं कि अगर कर्ज देते वक्त यह पूछ लिया जाए कि आप वापसी कब तक कर देंगे तो कर्ज लेने वाला बिगड़ कर यह कहता है कि क्या आपने मुझ को बेईमानी समझ लिया है। मैं जल्द से जल्द आपके पैसे वापस कर दूंगा गोया वापसी की मुद्दत मुकर्रर करना तौहीन का बाइस समझा जाने लगा है।
हालांकि कुरआने करीम में अल्लाह तआला कर्ज लेने वाले पर यह जिम्मेदारी डालता है कि वह खुद वापसी की मुद्दत मुकर्रर करके उसको लिखवा दे और फिर अल्लाह से डरते हुए उसका पास व लिहाज करे। अल्लाह का इरशाद है- ‘‘और मुद्दत लिखवाए वह शख्स जिस पर कर्ज है और डरे उस खुदा से जो उसका रब है और इसमें कोई कोताही न करें।’’(बकरा)
आमतौर पर नीयतों की खराबी की वबा ने समाज को अपनी जद में ले लिया है। कर्ज लेते वक्त ही नीयतों में फुतूर पैदा हो जाता है। अदाएगी के जज्बे से जद्दोजेहद करने के बजाए उसको माले गनीमत समझ कर हज्म कर जाने का इरादा दिल में होता है। इसीलिए बाद में इंसान अदाएगी से दूर भाने लगता है और लेते वक्त नीयत की खराबी का नतीजा यह निकलता है कि बाद में लोगों के कहने-सुनने से मजबूर होकर अगर अदा भी करना चाहता है तो नहीं कर पाता।
इसलिए कर्ज लेते हुए इंसान को सच्चे दिल से वापसी की नीयत करनी चाहिए और बराबर इसकी कोशिश में अगर लगा रहेगा तो अल्लाह तआला उसकी मदद फरमाएगा और कर्ज से निजात की राहे गैब से पैदा फरमा देगा जैसा कि इरशादे नबवी है- ‘‘नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने फरमाया जो शख्स लोगों का माल ले और उसको अदा करने का इरादा रखे तो अल्लाह तआला अदाएगी में मदद फरमाएगा और जो शख्स लोगों के माल को ले और उसको बर्बाद करने यानी वापसी न करने का इरादा रखता हो तो अल्लाह तआला अदाएगी-ए-कर्ज में ऐसे शख्स की मदद नहीं फरमाएगा।
मालूम हुआ कि मकरूज की नीयत ठीक है और वह अदाएगी की कोशिश में लगा हुआ है तो यकीनन अल्लाह तआला उसकी मदद फरमाएगा और यकीनन वह एक न एक दिन कर्ज के बोझ से आजाद हो जाएगा।
क्या कर्ज की अदाएगी के लिए माल व दौलत को बेचा जा सकता है:- अगर कोई शख्स मकरूज हो, उसके पास नकद की शक्ल में तो कुछ नहीं जिससे वह अपना कर्ज अदा कर सके लेकिन जमीन जायदाद और चीजों की शक्ल में उसके पास कई चीजें हैं तो कर्ज की अदाएगी के लिए अपनी ममलूका चीजों को बेच कर कर्ज के बोझ से आजादी हासिल करना जरूरी है या इन चीजों को महफूज रखे और दीगर जराए से कोशिश करके कर्ज की अदाएगी की जद्दोजेहद करे। किसी भी शख्स को न अपनी जिंदगी का यकीन है न मौत के वक्त की खबर।
इसलिए कर्ज के बोझ को अपनी गर्दन पर रखकर दुनिया से रूखसत होने के बजाए हर शख्स को इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि वह जल्द से जल्द इस हक को अदा करके अपने दामन को साफ-सुथरा कर ले।
अगर वह यह समझता है कि माल व दौलत और जमीन व जायदाद को बेंच कर वह जल्द से जल्द आसानी से कर्ज अदा कर सकता है तो हरगिज इसमें देर नहीं करनी चाहिए। और यह सोंच कर कि मुस्तकबिल में क्या होगा बच्चों का क्या बनेगा? सुबह-शाम की रोजी-रोटी कैसे चलेगी कर्ज की अदाएगी को नजर अंदाज न करे क्योंकि रिज्क का मालिक तो अल्लाह तआला है और वह हम को भी खिलाता है और हमारे बाल-बच्चो को भी खिलाता है गोया जिस की तकदीर में जो लिखा है वह उसको मिलेगा, हमें तो आखिरत की फिक्र करते हुए जल्द से जल्द कर्ज की अदाएगी करके अपने आमाल नामे को हक तल्फी के गुनाह से पाक करने की कोशिश करनी चाहिए।
एक बार हजरत मआज बिन जबल (रजि0) के ऊपर बहुत कर्ज हो गया। आप को इत्तेला हुई तो आपने उनके कर्ज ख्वाहों को बुलाकर उनका तमाम माल बेंच दिया और कर्ज की अदाएगी फरमा दी यहां तक कि हजरत मआज बिन जबल (रजि0) के पास कुछ भी बाकी नहीं रह गया। लेकिन अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने इसकी कुछ भी परवा नहीं की। इसको बयान करते हुए हजरत काब बिन मालिक (रजि0) फरमाते हैं कि हजरत मआज बिन जबल (रजि0) एक सखी नौजवान थे जिनके पास कोई चीज रूकती नहीं थी।
वह बराबर कर्ज लेते रहे यहां तक कि उनका तमाम माल कर्ज में घिर गया। वह अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के पास आए और अपनी परेशानी रखते हुए दरख्वास्त की कि आप कर्जख्वाहों से यह फरमा दें कि अगर वह किसी को माफ कर सकते हों तो मआज बिन जबल इसके ज्यादा हकदार हैं कि उनको नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की वजह से छोड़ दिया जाए यानी माफ कर दिया जाए।
आपने हजरत मआज का तमाम माल कर्ज ख्वाहों के बीच बेंच दिया यहां तक कि हजरत मआज बिन जबल (रजि0) के पास एक चीज भी बाकी नहीं रही।
आमतौर पर लोेग अपनी जरूरतों को पूरा करते रहते हैं बाल-बच्चों की ख्वाहिशात की भी तकमील की जाती रहती है लेकिन कर्जख्वाहो को यह कहकर टाल दिया जाता है कि अभी इंतजाम नहीं हो पाया जब हो जाएगा तो अदाएगी कर दी जाएगी हालांकि कर्ज के वबाल से बचने के लिए इंसान को फिक्रमंद होना चाहिए। अपनी ख्वाहिशात और जरूरियात में कटौती करके कर्ज की अदाएगी को फौकियत देनी चाहिए और हरगिज इसको नहीं टालना चाहिए क्योंकि कभी भी आंख बंद हो सकती है जिस के बाद न रूपया पैसा काम आएगा और न बाल-बच्चे इंसान को अल्लाह की पकड़ से बचा सकेंगे। अल्लाह तआला हम सबकी हिफाजत फरमाए और जो मकरूज है गैब से उनके कर्जों की अदाएगी की शक्लें पैदा फरमाएं- आमीन
———– बशुक्रिया: जदीद मरकज़