पटना : इतवार को 24 जनवरी को बिहार के साबिक वज़ीरे आला कर्पूरी ठाकुर की 92वीं बरसी मनाने के लिए बिहार की सियासत में होड़ लगी हुई है। जनता दल यूनाइटेड-राजद इत्तिहाद और भारतीय जनता पार्टी, दोनों ही खेमे कर्पूरी के बरसी को बड़े पैमाने पर मनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं।
आखिर बिहार में जिस हज्जाम समाज की आबादी दो फ़ीसदी से कम है, उस समाज के सबसे बड़े लीडर कर्पूरी ठाकुर की सियासी विरासत के लिए इतनी हाय तौबा उनके मौत के 28 साल बाद क्यों मच रही है? भारतीय जनता पार्टी मुल्क भर में अपने लिए नये नये नायकों को तलाश कर रही है, ऐसे में पार्टी का ध्यान कर्पूरी ठाकुर पर जरूर गया होगा। कर्पूरी के वारिस कहलाने वाली पार्टियों को बीजेपी की कोशिश रास नहीं आई होगी. लेकिन क्या ये पार्टियां कर्पूरी पर दावे के साथ उनकी विरासत को संभालने की भी कोशिश करेंगी?
मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर बिहार की सियासत में वहां तक पहुंचे जहां उनके जैसी ज़मीन से आने वाले सख्श के लिए पहुँचना तकरीबन मुमकिन नहीं था। 24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्में कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार नायब वज़ीरे आला , दो बार वज़ीरे आला और दशकों तक एमएलए और विरोधी दल के लीडर रहे. 1952 के बाद बिहार एसेम्बली का इन्तिखाब कभी नहीं हारे। सियासत में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने अहले खाना को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने आबाई घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।
कांग्रेस मुखालिफत सियासत के अहम लीडरों में कर्पूरी ठाकुर शुमार किए जाते रहे। इंदिरा गांधी इमरजेंसी के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें गिरफ़्तार नहीं करवा सकीं थीं। पहली बार नायब वज़ीरे आला बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की लाज्मियत को खत्म किया। उन्हें तालीम वजीर का ओहदा भी मिला हुआ था और उनकी कोशिशों के चलते ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया।
1977 में वज़ीरे आला बनने के बाद रियासत में रिजर्वेशन लागू करने के चलते वो हमेशा के लिए अगड़ी जातियों के दुश्मन बन गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पसमांदा के हितों के लिए काम करते रहे।