कलिमात-ए-नबवी का असर

फूंकों से ये चिराग़ बुझाया ना जाएगा …..ज़माद नामी शख़्स अपने जंतर मंतर से लोगों के जिन्न और भूत प्रेत वग़ैरा का ईलाज किया करता था। एक मर्तबा जब वो मक्का मुअज़्ज़मा आया तो वहां के बाअज़ लोगों को ये कहते सुना कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जिन्न का साया है, या जुनून है। मआज़ अल्लाह!। ज़माद ने कहा में ऐसे बीमारों का ईलाज अपने जंतर मंतर से किया करता हूँ, लिहाज़ा मुझे मरीज़ तक पहुंचा‍ओ। मक्का के लोग ज़माद को हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास ले गए।

ज़माद जब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास पहुंचे तो आप‌ने फ़रमाया ज़माद! अपना जंतर मंतर बाद में सुनाना, पहले मेरा कलाम सुनो!। चुनांचे हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी ज़ुबान-ए-हक़ तर्जुमान से ये ख़ुतबा पढ़ना शुरू किया:

अल्हम्दो लिल्लाही नहम्दुहू व नस्तईनुहु वनस्तग्फिरुहू वनुमिनु बिहि व नतावक्कलू अलैहि वनाआऊजू बिल्लाही मिनशुरुरी अनफुसिना वमिन सय्ये आति आमालिना मय्यहदिल्लाहू फला मुज़िल्ला लहू वमययुज़लिल्हू फला हादीयलहू वअशहदू अल्लाइलाहा इल्लल्लाहू वहदहू लशरीकालहू व अश हदू अन्ना मुहम्मदन अबदुहू व रसूलुहू |

ज़माद ये ख़ुत्बा-ए-मुबारका सुन कर मबहूत हो गए और अर्ज़ करने लगे
हुज़ूर! एक बार फिर सुना दीजिए।

हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक बार फिर यही ख़ुतबा पढ़ा। इसके बाद ज़माद (जो जिन्न उतारने आए थे, उन
के कुफ्र का साया उतर जाता है) बर्दाश्त ना कर सके। उन्होंने कहा ख़ुदा की क़सम! मैंने कई काहिनों, साहिरों और शाइरों का कलाम सुना, लेकिन जो कलाम मैंने आप‌से सुना है, ये कलाम तो एक बहर ज़ख़्ख़ार है।

अपना दस्ते मुबारक बढ़ाइए, मैं आपकी बैअत करता हूं। ये कह कर ज़माद मुसलमान हो गए और जो लोग उन्हें हुज़ूर अकरम
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ईलाज करने के लिए लाए थे, हैरान-ओ-परेशान वापस हो गए। (मुस्लिम, जलद१, सफ़ा ३२०)
वाज़िह रहे कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ुबान-ए-हक़ तर्जुमान में ऐसी तासीर थी कि बड़े से बड़े संगदिल भी मोम हो जाया करते थे और जो लोग आप को साहिर-ओ-मजनून कहा करते थे, दरअसल वो ख़ुद ही मजनून थे।

इसी तरह आज भी अगर कोई शख़्स हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नूर-ओ-जमाल का इनकार करता है तो दरअसल वो ख़ुद ही सयाह दिल और सयाह रूह‌ है।