क़ब्रिस्तान की देढ़ एकर् अराज़ी (ज़मीन) पर नर्सरी बन गई मुस्लमान लाइल्म

नुमाइंदा ख़ुसूसी – आज जो इन्किशाफ़ हम कर रहे हैं इस से वाज़िह हो जाएगा कि औक़ाफ़ी जायदादों (पदों) को हड़पने में हुकूमत का क्या रोल रहा है । मूसा नदी के किनारे मुस्लिम जंग पुल से मुत्तसिल (सटे हुए) महिकमा हॉर्टीकल्चर पब्लिक गार्डन के तहत एक नर्सरी है । ये नर्सरी दरगाह हज़रत सयदी सदी बाबा (रह) के बिलकुल रूबरू है । तक़रीबा 40 साल से ये नर्सरी क़ायम है और ये बाग़ आम्मा में वाक़्य गार्डन्स के महिकमों के हेड ऑफ़िस के तहत है ।इस नर्सरी से मुत्तसिल (सटे हुए) एक बुलंद चबूतरे पर चंद क़ुबूर हैं । अफ़ज़ल गंज और मुस्लिम जंग पुल की दरमियानी सड़क से कोई भी इस चबूतरे तक पहुंच सकता है और अक्सर लोग उसकी ज़ियारत के लिए आया जाया करते हैं ।

जब हम इस चबूतरे पर पहुंचे और मज़ारात की ज़ियारत की तो हैरत अंगेज़-ओ-चौंका देने वाला इन्किशाफ़ हुआ कि तक़रीबा देढ़ एकड़ अराज़ी (ज़मीन) में फैली हुई इस नर्सरी के बीच-ओ-बीच कई क़दीम क़ुबूर हैं ।जिन में एक बुज़ुर्ग हज़रत सय्यद सआदत उल्लाह हुसैनी(रह) का भी मज़ार शरीफ है । जब हम इस नर्सरी में दाख़िल हुए तो कई मालियों से मुलाक़ात हुई इन में से एक जंगया नामी माली ने बताया कि मैं पिछले 20 सालों से इस नर्सरी में झाड़ों की देख भाल करता हूँ । इस ने कहा कि मैं ने कभी नहीं देखा कि कोई मुस्लमान यहां क़ब्रों को देखने आया हो । क़ारईन (पाठकों) शहर के बुज़ुर्ग हज़रात से जब हम ने इस ताल्लुक़ से सवाल किया तो एक मुअम्मर शख़्स ने बताया कि 1908 मैं जो तबाहकुन तुग़यानी आई थी ये क़ब्रिस्तान उसी वक़्त का है ।

उन्हों ने कहा कि ये पूरी नर्सरी क़ब्रिस्तान में ही वाक़ै है । क़ारईन (पाठकों)! मुशाहिदा करने से भी ऐसा ही लगता है क्यों कि तमाम क़ुबूर इंतिहाई क़दीम और पुख़्ता गुच्ची से बनी हुई हैं । ये क़ब्रें करीब ज़माने की क़तई तौर पर नहीं हैं । हम ने इस ज़िमन में डायरेक्टर हॉर्टीकल्चर गर्वनमेंट गार्डन्स जनाब एल वेंकट रामा रेड्डी से मुलाक़ात की तो उन्हों ने भी बताया कि ये नर्सरी 40 साल क़दीम है और देढ़ एकड़ ज़मीन में है । हाइकोर्ट और ट्रब्यूनल कोर्ट के गार्डनों के लिए पौदे यहीं से जाते हैं । इस नर्सरी को मूसा रीवर इम्प्रूवमेंट पार्क का नाम दिया गया है । मज़कूरा ऑफीसर ने बताया कि इस नर्सरी का फ़ायदा बराए नाम ही रह गया है । चूँकि ये हमारे डिपार्टमैंट के तहत है इस लिये उसे बाक़ी रखा गया है ।

सिर्फ नर्सरी की हिफ़ाज़त के लिए उसे चलाया जा रहा है। नर्सरी क़ायम कर के क़ब्रिस्तान को वो भी ऐसे क़ब्रिस्तान को जिस में बुज़ुर्गों की क़ुबूर हैं छुपा देना कैसी अक़लियत नवाज़ी है ? आज जबकि क़ब्रों के ताल्लुक़ से इतनी दुशवारी है कि 5 ता (से) 50 हज़ार रुपय में क़ुबूर की जगह फरोख्त की जा रही है ऐसे में शहर में देढ़ एकड़ क़ब्रिस्तान की अराज़ी (ज़मीन) पर नर्सरी क़ायम हो जाती है और दूसरी तरफ़ हुकूमत मुस्लमानों को क़ब्रिस्तान के लिए जगह भी फ़राहम नहीं करती । तो क्या ये वाक़िया मुस्लमानों की आंखें खोलने काफ़ी नहीं है ? क़ारईन (पाठकों) अब चलिये औक़ाफ़ के मुहाफ़िज़ (रक्षक) वक़्फ़ बोर्ड की जानिब , जब हम ने वक़्फ़ बोर्ड ओहदेदारों से इस क़ब्रिस्तान के हवाले से दरयाफ़त किया तो उन का जवाब था कि हमें तो मालूम ही नहीं कि इस नर्सरी में क़ब्रें भी हैं और ये दरअसल क़ब्रिस्तान है ।

वक़्फ़ बोर्ड से उम्मीद की जा सकती है कि शायद इस रिपोर्ट के बाद वो हरकत में आए और इस की तहकीकात कराए । नीज़ मुस्लमानों से अपील की जाती है कि अपने मसरूफ़ तरीन औक़ात (समय) में से कुछ वक़्त निकाल कर कम अज़ कम एक मर्तबा इस क़ब्रिस्तान में ज़रूर जाएं । अख़बार सियासत औक़ाफ़ के तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा ) के लिए हमेशा तस्वीरों के साथ हक़ायक़ पर मबनी रिपोर्टें शाय करता रहा है । लिहाज़ा इस हक़ीक़त से आगाह होने के लिए मुस्लमान इस क़ब्रिस्तान को देखने ज़रूर जाएं । आख़िर में एक और बात गोश गुज़ार है (बता दूं) कि हमारी कोताहियों की वजह से ही आज इस क़ब्रिस्तान में एक मंदिर भी तामीर कर दिया गया ।