कामयाब उस्ताज़ की जिंदगी के रोशन पहलू

एक अच्छे उस्ताद के ज़हन की रसाई(पहोँच) तलबा के ज़हन तक ज़रूरी है, जो बज़ाहिर बहुत ही पेचीदा मालूम होती है। ये उसी वक़्त मुम्किन है, जब कि उस्ताद को अपने पेशा से इशक़ हो। एसी ही एक मुख़लिस शख़्सियत का नाम हज़रत मौलाना वली अल्लाह था, जिन की ज़िंदगी का मशग़ला पढ़ने और पढ़ाने के सिवा कुछ ना था। आप तक़रीबन सत्तर साल तक जामिया निज़ामीया में इल्म के जौहर बिखेरते रहे। आप का तक़र्रुर पहले एक उस्ताद की हैसियत से हुआ, फिर आप की मुख्लिसाना ख़िदमात को देख कर नायब शेख़ बना दिया गया, फिर मज़ीद तरक़्क़ी दे कर शेख़ उल्फीक़ा वलमंतिक़ और मुफ़्ती के जलील-उल-क़दर ओहदों पर मुतमक्किन किया गया। इन तमाम ख़िदमात आलीया को आप ने जिस हुस्न-ओ-ख़ूबी से अंजाम दिया, आज जामिया का हर फ़र्द इस का एतराफ़ करता है।

आप का दरस देने(सबक पढाने) का अंदाज़ ख़ास था। दरस से पहले मुख़्तसर ज़रूरी बातों की निशानदेही फ़रमाते और इस के बाद किताब का दरस दिया करते। दरस के औक़ात में ग़ैर ज़रूरी बातों और तब्सरों से इज्तेनाब करते। दौरान दरस(सबक के बीच मे) अगर तालिब-ए-इल्म किसी मौज़ू पर गुफ़्तगु (बात)करना चाहता तो उसे सख़्ती के साथ मना फ़र्मा(कर) देते और कहते कि पहले सबक़ पढ़ लो।

जब कभी आप हज़रत बानी जामिया अलैहि र्र‌हमा का तज़किरा करते तो आप पर एक किस्म की रीक्कत‌ तारी हो जाती और आँखों से आँसू रवां हो जाते। आप तक़रीरों और जल्सों से दूर रहा करते। अगर कोई तालिब-ए-इल्म तक़रीर या जल्सा का ज़िक्र करता तो इस से कहते कि पहले पढ़ कर काबिल बन जाओं, इस के बाद इन तमाम चीज़ों को अपनाना।

आप का किताबों से गहरा ताल्लुक़ था, मुताला का बहुत शौक़ था। आप को जो किताबें पढ़ाने के लिए दी जातीं, बगै़र मुताला के कभी ना पढ़ाते। अपने फ़राइज़ मुलाज़मत से हमेशा इंसाफ़ करते। तालीमी साल शुरू होने से आख़िर तक एक दिन भी जामिया से ग़ैर हाज़िर ना रहते, सिर्फ़ तबीयत की नासाज़ी या किसी हंगामी सूरत में एक दिन की रुख़स्त लेते।

आप हमेशा तक़रीर और ज़ोर ब्यानी से एहतेराज़ करते। एक मर्तबा जामिया निज़ामीया में आप को ख़िताब की ज़हमत दी गई तो आप ने तलबा को नसीहत करते हुए फ़रमाया तालिब-ए-इल्म को अपने मक़सद तहसील इल्म में मशग़ूल रहना चाहीए, कोई दूसरी बात तालिब-ए-इल्म के पेशे नज़र नहीं रहना चाहीए। तालिब-ए-इल्म को इम्तेहान की कामयाबी पर जो सनद दी जाती है, वो काग़ज़ की होती है, मगर में तुम से कहता हूँ कि तुम ख़ुद सनद बन जाओं। जब तुम ख़ुद सनद बन जाओंगे तो काग़ज़ी सनद की कोई वक़त(वेल्यु) नहीं रहेगी। जामिया निज़ामीया तुम को खिला रहा है, पिला रहा है और पढ़ा रहा है, ये तमाम जतन सिर्फ इस लिए कर रहा है कि तुम्हारे अन्दर इलम आए, क़ाबिलीयत आए और इलम की अहलीयत आए।

आप अक्सर जामिया निज़ामीया में इल्म-ए-मंतिक़ और इल्म फ़िक़्ह की किताबें पढ़ाया करते थे और जो तल्बा कामिल करना चाहते तो उन को तरग़ीब देते कि तुम कामिल उलफीक़ा बनों, क्योंकि फ़िका क़ुरान-ओ-हदीस का निचोड़ है। हीदाया के दरस के दौरान किसी तालिब-ए-इल्म ने मारूज़ा पेश किया कि हज़रत! ये किताब मेरी समझ में नहीं आरही है तो आप ने इस तालिब-ए-इल्म से फ़रमाया तुम इस तरह करो कि हीदाया के मतन से मतन मिलाकर पढ़ लिया करो और अच्छी तरह से इस को समझ लो, इस के बाद मतन के दरमयान जो शरह है इस को समझने की कोशिश करो, ये हीदाया को समझने का आसान तरीक़ा है।

आप अपने तालिब इल्मी के ज़माना के वाक़ियात ब्यान करते हुए फ़रमाते कि हमारे तालिब इल्मी के दौर में किताबों के मतन को हिफ़्ज़ करने का माहौल था। असातिज़ा किराम किताबों के मूतुन को हिफ़्ज़ करने की तरग़ीब दिया करते थे। चुनांचे हज़रत मौलाना अबू उलव‌फ़ा अफ़्ग़ानी अलैहि र्र‌हमा ने मुझ से फ़रमाया कि पहले नूर-उल-अनवार का मतन ज़बानी याद करके आओं। मैं नूर-उल-अनवार का मतन याद तो करने लगा, मगर ये काम कोई आसान नहीं था। नूर-उल-अनवार का मतन मुझ से याद नहीं हो रहा था, मैंने उसे याद करने के लिए शहर से दूर मुक़ाम का इंतेख़ाब किया। हज़रत मीर महमूद साहिब की दरगाह रोज़ाना जाता और वहां बैठ कर नूर-उल-अनवार के मतन को ज़बानी याद करता। फिर जब मैंने हज़रत अफ़्ग़ानी साहिब को मतन सुना दिया तो उन्हों ने किताब पढ़ाना शुरू किया।
हज़रत मौलाना अबदुलहमीद साहिब साबिक़ शेख़ उल जामिया जामिया निज़ामीया के अह्द में इब्तेदाई जमातों के बाज़ तलबा में सर्फ‍ ओ‍ नहव‌ की कमज़ोरी महसूस की गई तो मौलाना अबदुलहमीद साहिब ने आप को बुलाकर कहा कि जामिया में जो तलबा आरहे हैं, अक्सर इन में हाफ़िज़-ए‍क़ुरान हैं। हिफ़्ज़ करने तक उन की उमर भी बढ़ जाती है, इस के बाद वो जामिया में दाख़िला के लिए आते हैं और उन को तहतानी जमातों में दाख़िला दिया जाता है। जब कि इन के हमजमात (ग़ैर हाफ़िज़) तलबा की उमरें कम होती हैं, जिस की वजह से ये हुफ़्फ़ाज़ तलबा अपने अंदर एक किस्म की शर्मिंदगी महसूस करते हैं। एसे में अगर इन तलबा को ऊपर की जमातों में दाख़िला दिया जाता है तो उन के अंदर सर्फ़‍ ओ‍ नहव‌ की कमज़ोरियां रह जाती हैं, जिस की वजह से किताबें पढ़ने में दुशवारी का सामना करना पड़ता है। लिहाज़ा आप जमात हफ़तुम, हशतुम, मौलवी अव्वल और दोम के तलबा पर ख़ास तवज्जा मर्कूज़ करें, ताकि उन तलबा में पाया जाने वाला नुक़्स दूर हो जाए।

आप जब मज़कूरा जमातों के तलबा को पढ़ाने लगे तो उन तलबा के अंदर एसी क़ाबिलीयत और सलाहीयत पैदा हुई कि इन में से कोई शेख़ बना तो कोई क़ाबिल उस्ताद बना।
आप के जो औसाफ़ और खूबियां ब्यान की गईं, इन तमाम कमालात के बावस्फ़ अल्लाह ताला ने आप को दीगर ख़ूबीयों से भी नवाज़ा था, इस के बावजूद तबीयत में सादगी, मिलंसारी और गुफ़्तगु में नरमी थी। अल्लाह ताला आप के दरजात बुलंद फ़रमाए। (आमीन)