किसी की ख़ानाआबादी , किसी की ख़ानाबरबादी

इस्लाम ने मर्द पर औरत की किफ़ालत(पालण पोषण) की ज़िम्मेदारी आइद की है, इसी लिए मर्द को औरत पर फ़ौक़ियत-ओ-फ़ज़ीलत (प्रधातता)हासिल है। अगरचे कि वो आज भी इस फ़ज़ीलत की मंसब(पट) से चिमटा हुआ है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि वो इस फ़ज़ीलत के दर्जा का मुस्तहिक़(लायक) नहीं रहा, इस लिए कि शादी के मौके पर इस ने लड्की के वालदैन से जहेज़ के नाम पर जो क़ीमती वस्तुएं और बहुत बडी रक़म हासिल की है, वो लड्की की ज़िंदगी भर की किफ़ालत के लिए काफ़ी हो सकती है। फ़र्ज़ कीजिए! जोड़े की रक़म, सोना, गाड़ी और दीगर क़ीमती अशीया(चीजों) का तख़मीना(अंदाजा) अगर चार लाख रुपया हो और लड्की के ख़ुरद-ओ‍नोश(खाने पीने) का सालाना(वर्षीय) ख़र्च बीस हज़ार रुपया औसत हो तो गोया लड्की के बीस साल तक के खाने का ख़र्च लड़के ने बतौर पेशगी(पहले) वसूल करली।

ये तो एक छोटी सी मिसाल है, जब कि आम तौर पर एक औसत शादी का ख़र्च आठ ता दस लाख रुपया होते हैं, जिस का एक बड़ा हिस्सा जोड़े की रक़म के नाम से लड्के वाले बटोरते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि रिश्ता तय‌ पाने से लेकर शादी के मरासिम(व्यवहार) मुकम्मिल(पुरा) होने तक लड्के वालों की जानिब से फ़रमाइशों का एक ना ख़त्म‌ होने वाला सिलसिला चल पड़ता है। मसलन ज़ेवर, कपड़े, जहेज़ की क्वालिटी, शादी ख़ाना, शादी के इंतेज़ामात, यहाँतक‌ कि जियाफ़त का मेनू MENU तक लड्के वाले तय‌ कर लेते हैं।
अपनी लड्की की बढ़ती उमर से परेशान एक मज्बूर-ओ-बेबस बाप के लिए इन नामाक़ूल फ़रमाइशों को क़बूल करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता। इस तरह ना सिर्फ लड्की के बाप की ज़िंदगी भर की जमा पूंजी इन फ़रमाइशों की नज़र (में पूरि )हो जाती है, बल्कि लड्के वालों की दीगर ग़ैर मुतवक़्क़े ख़ाहिशात-ओ-अरमानों की तकमील के लिए नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त क़र्ज़ का जैरबार होना पड्ता है।

शादी के दिन बाद निकाह लड्की वालों की जानिब से मेहमानों की जियाफ़त ज़रूरी नहीं, लेकिन यहां भी लड्के वालों की हट धर्मी की वजह से लड़की के वालदैन को एक बड़ी दावत का इंतेजाम करना पड़ता है, जिस में नौशा के साथ बारातीयों (दावतियों) की एक पूरी फ़ौज शरीक होती है, जिन की आवो‍ भगत और ख़ातिरदारी में किसी किस्म की कमी या कोताही की सज़ा (तानों की शक्ल में) शादी के बाद लड्की को भुगतना पड़ता है, इसी लिए इन बारातीयों की तवाज़ो में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी जाती। इस तरह से लड्के वालों की बालादस्ती और लड्की के वालदैन के सब्र और इंकिसारी पर शादी की तकमील होती है।

अपनी मुरादों, अरमानों और ख़ाहिशात की तकमील(पुरि होने) से मसरूर-ओ-शादां लड्के वाले रुख़्सती (विदाई) के मौक़ा पर बैंड बाजा, नाच गाना और आतिशबाज़ी(फटाक्डे फोड्ने) का मुज़ाहरा करते हुए गोया अपनी फ़तह-ओ-कामरानी का जश्न मनाते हैं। इस फ़तह का जश्न, जिस में एक बेबस बाप को पूरी तरह से लौटा गया। इस कामरानी का जश्न, जिस में बेटी की ख़ुशीयों का वास्ता दे कर एक बाप को क़र्ज़ की ज़िल्लत उठाने पर मज्बूर किया गया। इस कामयाबी का जश्न, जिस में ख़ुदा की एक कमज़ोर मख़लूक़ (सिनफ़ नाज़ुक) की इस्मत की हिफ़ाज़त का भरपूर मुआवज़ा वसूल किया गया। अफ़सोस! वो ख़ुशी ही कया, जो किसी की बर्बादी की मोहताज हो!।