किसी को हिकारत की नज़र से देखना एक अजीम गुनाह है

(मौलाना असरार उल हक कासमी) इस्लाम ने जिंदगी के हर शोबे में मजमूई तौर पर मुसलमानों के हर किस्म के फायदे और कामयाबी को मलहूज रखा है। इस्लाम की तालीमात ऐसी ठोस और मजबूत बुनियादों पर रखी गई है कि अगर मुसलमान उन्हें अख्तियार करें और उनके मुताबिक जिंदगी गुजारे तो यकीनन उन्हें कामयाब होने से कोई भी ताकत रोक नहीं सकती और माजी में दुनिया ने इसके बेशुमार मनाजिर देखे भी हैं।

जब तक मुसलमान अपने खुदा, कुरआन और नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इरशादात व हिदायात और तालीमात को अपनाए रहे और उनके मुताबिक अपनी इज्तिमाई व इंफिरादी जिंदगी गुजारी उस वक्त तक अल्लाह ने उन्हें हर महाज और शोबे में कामयाबी ही से नवाजा।

इस्लाम की ऐसी ही सुनहरी तालीमात में से एक यह है कि कोई भी इंसान अपने जैसे दूसरे इंसान को चाहे वह किसी भी जात, बिरादरी, नस्ल, मुल्क या मजहब से ताल्लुक रखता हो, हकीर न समझे और उसकी इज्जत और वकार को ठेस न पहुंचाए। इस्लाम इस बात की हरगिज भी इजाजत नहीं देता कि हम अपने जैसे इंसान को महज इस वजह से हकीर समझें और उसे नीचा दिखाने की कोशिश करें कि वह माद्दी और जाहिरी एतबार से हमसे कमतर नजर आता है।

इस्लाम किसी का मजाक उड़ाने की भी इज़ाज़त नहीं देता कि इससे भी इंसान के दिल को तकलीफ पहुुंचती है। कभी कभी हमारी ज़ुबान से निकलने वाले अल्फाज सामने वाले पर ऐसी चोट करते हैं कि तेज धारदार हथियार से भी वैसा असर नहीं होता।

इसलिए हमें अपनी ज़ुबान और अल्फाज को काबू में रखना चाहिए और उन्हें इस्तेमाल करने के बेहतर मौके का ही इस्तेमाल करना चाहिए। कुरआने करीम में अल्लाह तआला ने वाजेह तौर पर फरमाया कि कोई मर्द दूसरे मर्द का मजाक न बनाए क्योंकि मुमकिन है कि वह जिन का मजाक बना रहे हैं वह (आदात, अखलाक और दयानतदारी में) उनसे अच्छे और बेहतर हों, इसी तरह कोई औरत किसी दूसरी औरत का मजाक न उड़ाए क्योंकि वह दूसरी औरत पहली से बेहतर हो सकती है और तुम एक दूसरे की ऐबजूई न करो, एक दूसरे को बुरे अलकाब से न पुकारो, ईमान के बाद फसक व फुजूर बहुत बुरा नाम है जो (ऐसा करने के बाद) तौबा न करे वह जालिम है।

(हुज्जुरात-11) इस आयत में मुसलमानों को कई बुरी आदतों से बचने की तलकीन की गई है, उनमें से सबसे पहली आदत तो यही है कि कोई इंसान किसी दूसरे का मजाक उड़ाए और उसकी तहकीर करे और इसकी वजह कुरआन में यह बतलाई कि मुमकिन है कि हम जिस का मजाक उड़ा रहे हैं वह दीनी, इल्मी व अखलाकी एतबार से हमसे भी अच्छा हो।

अगर ऐसी बात है तब तो हम मजीद गुनाह का बोझ अपने कंधो पर लाद लेंगे। फिर यह हुक्म मर्द और औरत दोनों के लिए है और अहमियत के पेशेनजर दोनों का अलग-अलग जिक्र किया गया है। वरना तो बेश्तर एहकाम में दोनों को साथ और औरतों का मर्दों के मामले में जिक्र किया है। इस्लाम ने इंसानों की फजीलत व बरतरी का सबब जाहिरी चीजों मसलन हुस्न व जमाल या माल व दौलत को करार देने के बजाए तकवा और परहेजगारी को करार दिया है।

इस्लाम के नुक्ता-ए-नजर से सबसे बेहतर व बरतर इंसान वह है जो अल्लाह से डरने वाला, मुत्तकी व परहेजगार हो अगरचे दुनियावी एतबार से उसकी कोई हैसियत न हो, उसके पास बैंक बैलेंस न हो, उसके पास गाड़ी और बंगले न हो और वह दुनियादारों की निगाहों में हकीर व कमतर इंसान समझा जाता हो।

कुरआने करीम ने दूसरी जगह किसी की ऐबजूई और तानाजनी करने वाले के लिए हलाकत और तबाही की धमकी दी है। (अलहमजा-1) हमारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने भी अपनी पूरी जिंदगी के आमाल और सरगर्मियों के जरिए उम्मत को बेहतर से बेहतर अखलाक की तालीम दी और अकायद के साथ-साथ अच्छे आमाल व अखलाक की अहमियत से उसे हर मोड़ और हर मौके पर बाखबर करते रहे।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अहल व अयाल से लेकर, समाज, खानदान, मोहल्ला, गांव, शहर और मुल्क और दुनिया तक में रहने के वह तमाम उसूल व जाब्ते अपनी उम्मत को कौलन भी समझाए और अमलन भी, जिनको अख्तियार करने में सुर्खरू हासिल होती है, अल्लाह की रजा नसीब होती है, इंसानों की मोहब्बत और प्यार मिलता है और रूह व कल्ब को सुकून व इत्मीनान नसीब होता है।

एक मौके पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया-‘‘किसी भी इंसान के बुरा होने के लिए यही काफी है कि वह अपने मुसलमान भाई को हकीर समझे।’’ (सही मुस्लिम) यानी अगर कोई मुसलमान महज किसी जाहिरी व माद्दी सबब से किसी को हकीर समझता है और उसका मजाक उड़ाता है तो वह इंतिहाई बुरा और घटिया इंसान है। इस हदीसे पाक की रौशनी में हमें अपनी जिंदगी, अपने अखलाक और रवैयों का जायजा लेना चाहिए हमें गौर करना चाहिए कि हम दिन-रात में अपने से मिलने वाले कितने कमजोर और गरीब इंसान को हकारत की निगाह से देखते, उसे घटिया समझते और उसकी बुराई करते हैं।

अगर हम वाकई इस मर्ज के आदी हो चुके हैं तो नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के फरमान के मुताबिक हम अल्लाह की मखलूकात में सबसे बुरी मखलूक हैं और हमें इस बीमारी से निजात पाने के लिए फौरी तौर पर असरदार कोशिश करनी चाहिए। आज जब हम मुस्लिम मआशरा और गली मोहल्लों से गुजरते हैं तो बड़े से लेकर छोटे तक और अक्लमंद से लेकर बेअक्ल तक सभी इस हलाकतनाक मरज के शिकार मिलते हैं।

कई बार देखने में आता है कि अगर गली से कोई बच्चा मामूली लिबास व पोशाक में गुजर रहा होता है तो मोहल्लों के दूसरे आला घरानों के बच्चे उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं और उसे परेशान करते हैं, उसकी चुटकी लेते, गाली-गलौच करते और कभी कभी उसे मारते-पीटते हैं। हालांकि दोनों तरफ बच्चे ही होते हैं, उन्हें दुनियादारी के बारे में कुछ भी शऊर और समझ नहीं होती मगर चूंकि घर में वह इसी किस्म का माहौल देखते हैं।

वह देखते हैं कि उनके वाल्दैन अपने मुलाजिमों के साथ जानवरों जैसा सुलूक करते हैं, वह देखते हैं कि उनके वाल्दैन राह चलते और कोई फकीर सामने आ जाए और हाथ फैला दे तो वह उसे झिड़क देते और बुरा-भला कह कर भगा देते हैं। वह देखते हैं कि उनके वाल्दैन और घर के दीगर बड़े लोग अपनी निजी बातचीत से लेकर इज्तिमाई बातचीत तक में समाज के निचली क्लास के लोगों का मजाक उड़ाते रहते हैं, इसलिए वह भी उम्र के इब्तिदाई मरहले से ही इन शैतानी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।

याद रखिए अल्लाह तआला को किसी भी इंसान की तहकीर और उसे कमतर समझना बिल्कुल भी पसंद नहीं, फिर अगर यह मामला किसी मुसलमान के साथ पेश आए तो मामला और ज्यादा संगीन हो जाता है। एक मुसलमान की हुरमत व करामत अल्लाह तआला के नजदीक काबा जैसी है जिस तरह काबा इस्लाम की निगाह में मोहतरम है उसी तरह एक मुसलमान की इज्जत, आबरू, वकार और इसमत उसके नजदीक इंतिहाई मोहतरम है।

इसलिए हम खुद भी अपने आप को इस बीमारी से महफूज रखे और अपने बच्चों की तर्बियत में भी इस चीज को खासतौर से मलहूज रखें।

इस्लाम इस बात से मना नहीं करता कि हम अपनी जिंदगी में खूबसूरती और आसाइश व आराम के हुसूल पर ध्यान दें और उसे भी तकव्वुर व गरूर समझने लगे। एक हदीस में है हजरत अब्दुल्लाह बिन मसूद (रजि0) रिवायत करते हैं कि एक बार अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इरशाद फरमाया कि अगर किसी के दिल में जर्रा बराबर भी गरूर होगा तो वह जन्नत में दाखिल नहीं होगा, तो एक सहाबी खड़े हुए और उन्होंने दरयाफ्त किया अगर कोई आदमी यह चाहता है कि उसका कपड़ा अच्छा हो, चप्पल जूता अच्छा हो तो इस बारे में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) क्या इरशाद फरमाते हैं।

तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया- बिला शुब्हा अल्लाह तआला जमील और खूबसूरत है और वह खूबसूरती को पसंद करता है, गरूर तो यह है कि हक को तस्लीम न किया जाए और लोगों को हकीर समझा जाए। (सही मुस्लिम) इस हदीस में साफ तौर पर मालूम हुआ कि अपने अपने दायरे में रहकर हम अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश कर सकते हैं हमारे पास अल्लाह तआला की दी हुई जो नेमत है उसे हम शरई हुदूद में रहकर अपनी आसाइश व आराम के लिए इस्तेमाल भी कर सकते हैं, अपनी शख्सियत को बना-संवार भी सकते हैं। मगर मना सिर्फ यह है कि हम अल्लाह तआला की दी हुई नेमत पर इतराएं और उन लोगों को हकीर जाने जिन्हें अल्लाह ने किसी मस्लेहत की वजह से उन नेमतों से महरूम कर दिया है वह वक्ती तौर पर गरीबी, तंगदस्ती की जिंदगी गुजार रहे हैं।

————बशुक्रिया: जदीद मरकज़