कुछ ग़लत-उल-आम अलफ़ाज़ के बारे में

(साबिर अली सिवानी)… दुनिया की किसी भी ज़ुबान पर क़ुदरत हासिल करना निहायत मुश्किल अमर होता है। अगर कोई शख़्स ये दावा करता है कि उसे मुख़्तलिफ ज़ुबानों पर उबूर हासिल है, तो वो कहीं ना कहीं मुबालग़े से काम लेता है।

कोई भी शख़्स इस बात का दावा नहीं कर सकता है कि जिस ज़ुबान में वो लिखता है या जिस ज़ुबान के वसीले से अपनी बातें तहरीरी तौर पर दूसरों तक पहुंचाता है, इस पर उसे मलिका हासिल है, क्योंकि ज़ुबान के इसरार-ओ-रमूज़(रहस्य) और इस के क़वाइद को मलहूज़-ए-ख़ातिर(ध्यान रखना) रखते हुए सेहत(सही तरीके से) के साथ लिखना `कार-ए-मुश्किल दारद’ के ज़ुमरे में आता है। हर लिखने वाले से ज़ुबान-ओ-बयान और क़वाइद की कुछ गलतियाँ होती हैं। तज़कीर-ओ-तानीस(पु.स्त्री लिंग), वाहिद-ओ-जमा (एक-अनेक वचन) और लफ्ज़ों के हिज्जे के मुआमले में कहीं ना कहीं चूक हो ही जाती है। जहां तक उर्दू ज़ुबान में लिखने की बात है तो आम तौर पर उर्दू के माहिरीन जो ख़ुद को पढ़ा लिखा तसव्वुर करते हैं, उन से तहरीरी एतबार से बहुत सी ऐसी गलतियां हो जाती हैं जो उनकी तहरीर की अहमियत को किसी हद तक कम कर देती हैं। बाअज़ दफ़ा ऐसा होता है कि उर्दू में लिखने वाले अफ़राद अरबी और फ़ारसी से यकसर नाबलद(अज्ञानी) होते हैं, या वो लप़्ज़ों के मख़ारिज और उस की बारीकियों से अच्छी तरह वाकिफ़ नहीं होते, या वो ऐसी तहरीरों को पढ़कर लिखना सीखते हैं, जिसमें ज़ुबान-ओ-बयान, इमला, हिज्जे , वाहिद-ओ-जमा या तज़कीर-ओ-तानीस की अक्सर गलतियां पाई जाती हैं, तो वो भी उसी अंदाज़ में बाअज़ ग़लत-उल-आम अलफ़ाज़ का इस्तिमाल करने लगते हैं, जो उसूलन ग़लत होते हैं। राक़िम उल-हरूफ़ ने इन बाअज़ ग़लत लफ्जों की निशानदेही करते हुए उनकी सेहत की तरफ़ तवज्जे दिलाने के लिए ये मज़मून तहरीर किया है, ताकि उन लिखने वालों की इस्लाह हो सके जो अक्सर व बीशतर ग़लत अलफ़ाज़ को सही तसव्वुर करते हुए लिखते हैं और उन्हें अंदाज़ा ही नहीं होता है कि वो ग़लत लिख रहे हैं। यहां चंद मिसालों के ज़रिये इन ग़लत-उल-आम अलफ़ाज़ की निशानदेही करने की कोशिश की गई है और सही अलफ़ाज़ को इन ग़लत लफ़ज़ियात की जगह इस्तिमाल करने पर ज़ोर दिया गया है।

फ़ारसी के मशहूर शायर अबु-अल-क़ासिम फ़िर्दोसी ने अपने शाहनामा में किसी वाक़िये की जानिब इशारा करते हुए लिखा है कि लोग मश्वरे के लिए मजलिस में हाज़िर हुए लेकिन इस मजलिस का कोई नतीजा नहीं निकल सका, बस लोग आए, बैठे और कुछ देर बातें कीं और फिर महफ़िल बर्ख़ास्त होगई यानी इस का कोई ख़ातिरख़वाह नतीजा ना निकल सका। फ़िर्दोसी का वो मशहूर-ए-ज़माना बैत(शेर) है।
पये मश्वे रत मजलिस आरासतंद
नशिस्तंद-ओ-गुफ़तंद-ओ-बरख़ासतन्द
बाअज़ लोग जो फ़ारसी से नाबलद हैं, वो इस बैत के दूसरे मिसरे को बिगाड़ कर कुछ इस अंदाज़ में पेश करते हैं कि उन्हें ये अंदाज़ा होता है कि ये अरबी ज़ुबान के अलफ़ाज़ हैं। चुनांचे वो इसको अरबी अंदाज़ में नशिस्तन ग़ुफतन बर्ख़ास्तन लिखते हैं। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हमारी अरबी और फ़ारसी से लाइलमी का क्या आलम है ।

इसी तरह अरबी ज़ुबान से उर्दूदां हज़रात की ना व़ाकफ़ियत का ये हाल है कि उन्हें ये अंदाज़ा ही नहीं होता कि अरबी में तीन सेग़े होते हैं वाहिद, तसनीया और जमा। इसी ना व़ाकफ़ियत की वजह से अक्सर-ओ-बेशतर अफ़राद लफ़्ज़ फ़ऱीकैन के साथ साब़िका के तौर पर लफ़्ज़ दोनों का इज़ाफ़ा करके दोनों फ़ऱीकैन या दोनों जानिबैन लिखते हैं जबकि फ़ऱीकैन का मफ़हूम ही दोनों फ़ऱीक(पक्ष) होता है। इसी तरह जानबैन का मतलब भी दोनों जानिब होता है। फ़ऱीकैन या जानिबैन दोनों तसनीया के सेग़े हैं। इस लिए फ़ऱीकैन या जानिबैन लिखते वक़्त लफ़्ज़ दोनों का इज़ाफ़ा ग़लत है।
बाअज़ अहल-ए-क़लम मिन्नो-ओ-अन के मफ़हूम से नावाक़िफ़ होते हैं और जब वो इन अलफ़ाज़ का इस्तिमाल करते हैं तो लिखते हैं कि मिन्नो-ओ-एन ठीक इसी तरह ये काम भी हो गया जिस तरह मेरा पहला काम हुआ था। जबकि मिन्नो-ओ-एन का मतलब ही ठीक इसी तरह होता है इसी तरह लफ़्ज़ बेऐनेही लिखते हुए भी अक्सर-ओ-बेशतर ये गलतियां सरज़द हो जाती हैं और लिखने वाले बेऐनेही के साथ साथ ठीक इसी तरह का इज़ाफ़ा करते हैं। बेऐनेही का तर्जुमा ही ठीक इसी तरह होता है तो फिर बेऐनेही लिखने के बाद ठीक इसी तरह लिखने का कोई जवाज़ ही नहीं बनता है। इसे ही तहसीले हासिल कहते हैं।
कई दफ़ा ऐसी तहरीरें नज़रों से गुज़रती हैं, जिस में ये लफ़्ज़ बार बार आता है कि रास्त तौर पर या बिर-रास्त ये बात हुकूमत तक पहुंचा देनी चाहिए कि मुस्लमानों की सरकारी नौकरियों में तनासुब अफ़सोसनाक है। यहां रास्त तौर पर या बिर-रास्त का एक ही मतलब होता है सीधे सीधे या बिलकुल सच्चाई पेश करदेना चाहीए। रास्त तौर पर या बिर-रास्त का जो लफ़्ज़ ज़िद के तौर पर इस्तिमाल होता है वो बिलवासता है यानी किसी वसीले से या किसी ज़रिये से । इसलिए बिर-रास्त या रास्त लिख कर कलमकार अपनी बात दरुस्त तौर पर पेश नहीं कर पाता है उसे लिखना चाहिए रास्त या बिलवासता।
लफ़्ज़ इसराफ़ के लुगवी मानी(शब्दार्थ) फुज़ूलखर्ची है। लेकिन अक्सर-ओ-बेशतर ये देखा जाता है कि लिखने वाले इसराफ़ के साथ बेजा लफ़्ज़ का इज़ाफ़ा करके बेजा इसराफ़ लिखते हैं, जो ग़लत है। सिर्फ़ इसराफ़ लिखने से ही मज़्मूननिगार का माफीज्ज़मीर अदा हो जाता है। यानी इसराफ़ (फुज़ूलखर्ची) से बचना चाहिए लिखना दरुस्त है।
आम तौर पर ये देखने में आता है कि लिखने वाले लफ़्ज़ मशाएख़ीन का इस्तिमाल बार बार करते हैं और वो समझते हैं कि ये शेख़ की जमा है जबकि शेख़ (बुज़ुर्ग) की जमा के तौर पर मशाएख़ दरुस्त है। मशाएख़ीन किसी भी एतबार से दरुस्त नहीं है। शेख़ की जमा शयूख़ भी लिखा जा सकता है, लेकिन मशाएख़ीन लिखना क़तअन दरुस्त नहीं है। इसी तरह बाअज़ अफ़राद आलिम की जमा के तौर पर उलमाओं भी लिखते हैं जबकि आलिम की जमा उल्मा है जिस तरह फ़ाज़िल की जमा फुज़ला है।
कुछ ऐसे फ़ारसी अलफ़ाज़ जो उर्दू में मुस्तअमल हैं। अगर उनकी जगह दूसरे उर्दू अलफ़ाज़ का इस्तिमाल किया जाये तो वो माअनवियत नहीं ब़ाकी रह पाएगी जो फ़ारसी अलफ़ाज़ के इस्तिमाल से पैदा होती है और ये अलफ़ाज़ आम तौर पर उर्दू में ग़लत तऱीके से इस्तिमाल किए जाते हैं। मिसाल के तौर पर चेमगोयां लिखते हैं, जबकि चेमीगोइयां लिखना दरुस्त है। इसी तरह लफ़्ज़ चूचरां लिखा जाता है, जो आम तौर पर एतराज़ के मानी में इस्तिमाल होता है, लेकिन चून-ओ-चरा लिखना दरुस्त है । इसी तरह से फ़ारसी के इस्म-ए-तफ्ज़ील के लिए जो अलफ़ाज़ इस्तिमाल किए जाते हैं , इन अलफ़ाज़ से पहले भी लफ़्ज़ ज़्यादा का इज़ाफ़ा किया जाता है। मिसाल के तौर पर फ़ारसी में बेह का मतलब अच्छा होता है बेहतर का मफ़हूम उससे अच्छा और बेहतरीन का मानी सब से अच्छा होता है। बेहतरीन इस्म-ए-तफ़ज़ील है इस के साथ सब से बेहतरीन लिखना कहाँ तक दरुस्त होगा? इसी तरह सब से कमतरीन इंसान लिखा जाता है जबकि सिर्फ़ कमतरीन लिख देने से मतलब वाज़िह होजाता है। इस लफ़्ज़ के साब़िका के तौर पर सब से लिखना दरुस्त नहीं है।
जलसा के जमा के तौर पर इजलास लिखना दरुस्त है जबकि आम तौर पर ये जुमला लिखा जाता है कि सयासी इजलासों में हमेशा नोक झोंक होती रहती है। इजलासों लिखना अज़रूए क़वाइद-ओ-ज़ुबान ग़लत है । इसी तरह कुछ अलफ़ाज़ को इस तरह लिखा जाता है मसलन मैं खुद ब नफ्से नफ़ीस चल कर आप की ख़िदमत में हाज़िर हुआ हूँ। जब ब नफ्से नफ़ीस लिख दिया गया तो लफ़्ज़ ख़ुद के इज़ाफे का कोई जवाज़ ही नहीं बनता है। बेऐनीह ये लिखा जाता है कि अभी हाल ही में चंद दिनों क़ब्ल की बात है कि छत्तीसगढ़ में नकसलाईटस ने सयासी क़ाइदीन पर हमला किया। यहां हाल ही में जब लिख दिया गया तो चंद दिनों क़ब्ल के इज़ाफे की कोई ज़रूरत नहीं है। साथ ही अभी लफ़्ज़ लिखने के बाद हाल का भी कोई मतलब नहीं होता है। मिन्न-ओ-एन ये जुमला भी लिखा जाता है कि सालार जंग म्यूज़ीयम एक फ़र्द-ए-वाहिद का अज़ीम कारनामा है फ़र्द-ए-वाहिद लिखने के बाद एक लिखने की ज़रूरत ही नहीं पेश आती है। क्योंकि फ़र्द-ए-वाहिद का मतलब ही होता है एक शख़्स कुछ मज़हकाख़ेज़ जुमलों को पढ़ कर हैरत होती है कि उर्दू ज़ुबान पर अपनी दस्तरस का दावा करने वाले इस तरह की गलतियां क्यों करते हैं। उसकी भी चंद मिसालें मुलाहिज़ा कीजिए। इस जुमले पर ग़ौर कीजिए और फिर अंदाज़ा लगईए कि क्या ये जुमला बार बार इस्तिमाल नहीं होता है? मसलन रफ़ा ए हाजत से फ़ारिग़ होने के लिए हिंडूस्तान में बैत उल-ख़लाओं की तादाद उतनी नहीं है, जितनी तादाद में मोबाइल फ़ोन हैं। यहां रफ़ा ए हाजत से बात पूरी हो जाती है कि कहने वाला ज़रूरत से फ़ारिग़ होने की बात कह रहा है। तो फिर मज़ीद फ़ारिग़ होने के इज़ाफे की क्या ज़रूरत है। या तो ज़रूरत से फ़ारिग़ होना लिखिए या रफ़ा ए हाजत लिखिए। दोनों लिखना यानी रफ़ा ए हाजत से फ़ारिग़ होना लिखना ग़लत है। इसी तरह जब दुर्र नायाब लिखा जाता है तो फिर मोती लिखने की क्या ज़रूरत है लेकिन आम तौर पर लिखा जाता है दुर्रे नायाब मोती हाथ लगा है। दुर बमानी मोती और नायाब का मतलब नादिर, कमयाब और शाज़-ओ-नादिर होता है। फिर दुर्रे नायाब के साथ मोती का इज़ाफ़ा चे मानी दारद? एक दूसरा लफ्ज़ संग जो बार बार ग़लत तऱीके से इस्तिमाल होता है। यानी संग-ए-बुनियाद का पत्थर एक बुज़ुर्ग आलिमे दीन के हाथों रखा गया। लिखने वालों ने ये भी लिख दिया है कि यकुम जून को वज़ीर-ए-आला किरण कुमार रेड्डी ने टोली चौकी फ्लाई ओवर बरीज के संग-ए-बुनियाद का पत्थर रखा। एक मज़मूननिगार ने तो एक अहम रिपोर्ट की सुर्ख़ी लिखते हुए लिख दिया कि मुहम्मद क़ुतुब शाह ने संग-ए-बुनियाद का पत्थर सर पर उठा लिया था। ये किस क़दर कम इलमी की अलामत है कि लिखने वालों को संग और पत्थर दो अलग अलग लफ्ज़ मालूम होते हैं। संग फ़ारसी ज़ुबान में पत्थर को कहते हैं तो संग लिखने के बाद पत्थर की क्या माअनवियत रह जाती है। ग़ालिब ने कहा था कि
मैंने मजनूं पे लड़कपन में असद
संग उठाया था कि सर याद आया
फ़ारसी ज़ुबान में चुनीदन मसदर है, जिसका मतलब चुनना होता है। इस का इस्म-ए-मफ़उल चुनीदा होता है, जबकि चुनीदा की बजाय आम तौर पर चुनिंदा लिखा जाता है जो इस्म-ए-फाइल है और जिस मफ़हूम की अदायगी के लिए चुनिंदा लिखा जाता है वो ग़लत है। चुनिंदा का मतलब चुनने वाला होता है जबकि चुनीदा का मफ़हूम चुना हुआ होता है। इस लिए चुनिंदा की बजाय चुनीदा लिखना दरुस्त है। इसी तरह बाइस शर्मिंदगी की बात है लिखा जाता है जबकि बाइस शर्मिंदगी है, लिखना काफ़ी होता है । यहां बात है का ग़ैर मुनासिब इज़ाफ़ा है। हिज़्ब-ए-मुखालिफ़ जमातें इन दिनों यू पी ए की शबीह ख़राब करने में लगी हैं। इस जुमले में हिज़्ब-ए-मुखालिफ़ का मतलब ही मुख़ालिफ़ जमातें होता है। हिज़्ब अरबी ज़बान का लफ्ज़ है जो जमात या गिरोह के मानी में इस्तिमाल होता है उसकी जमा एहज़ाब है। लेकिन हिज़्ब-ए-मुखालिफ़ के साथ जमातें लिखने का आम रिवाज है जो लफ्ज़ों के ग़लत इस्तिमाल पर दलालत करता है। एक लफ्ज़ बार बार उर्दू अख़बारात में इस्तिमाल होता है वो है डिसिप्लिन शिकनी। मेरी नज़र में अगर उसे ज़ाबता शिकनी लिखा जाये तो बेहतर होगा क्योंकि फ़ारसी और अंग्रेज़ी के इमतिज़ाज के साथ डिसिप्लिन शिकनी की तरकीब भली नहीं मालूम होती है।
चंद वो ग़लत अलफ़ाज़ जो सही समझ कर इस्तिमाल किए जाते हैं और कसरते इस्तिमाल की वजह से उसे दरुस्त भी तसव्वुर किया जाता है। उस की चंद मिसालें मुलाहिज़ा कीजिए। लफ्ज़ रुएदाद के बजाय रूदाद , पहूंच गया की जगह पर पहुंच गया, मयाद के बजाय मीयाद लिखना दरुस्त है। इसी तरह तनाज़ा लिखना जो ऐन के बाद हे के इज़ाफे के साथ लिखा जाता है दरुस्त नहीं बल्कि तनाज़ा लिखना सही है। म़ौका के जमा के तौर पर मवाकों लिखने का रुजहान पाया जाता है जबकि म़ौका की जमा मव़ाके है। अर्से हयात तंग करना के बजाय अर्सा-ए-हयात तंग करना, पाए तकमील की जगह पाया -ए-तकमील, नुमाइंदगी की जगह नमायंदगी, आइन्दा के बजाय आयंदा , नुमाइंदा के म़ुकाम पर नमायंदा, इस्तीफ़ा के बजाय इस्तीफ़ा(अलिफ़ के साथ) लिखना दुरुस्त है। इसी तरह मैं आप का शुक्र गुज़ार हूँ के मफ़हूम की अदायगी के लिए मैं आपका मशकूर हूँ लिखा जाता है जबकि मशकूर का मतलब जिस का शुक्रिया अदा किया जाये होता है। जो इस्मे मफ़ऊल है और मज़्मूननिगार के माफीज्ज़मीर को दुरुस्त तौर पर अदा नहीं करता है इसलिए मशकूर की बजाय ममनून लिखना चाहीए। कुछ अलफ़ाज़ जो फ़ारसी से माख़ूज़ हैं लेकिन उर्दू में निहायत फ़रावानी बल्कि रवानी से इस्तिमाल किए जाते हैं लेकिन इन अलफ़ाज़ का इस्तिमाल ग़लत तौर पर किया जाता है मिसाल के तौर पर ख़्वामख़्वाह लिखा जाता है हालाँकि ख़्वाहमख़्वाह ख़्वाही नख़वाही, नाचार, ज़बरदस्ती, मजबूरन, तव अन ओ-क़हरन के माअनों में इस्तिमाल होता है। इसलिए ख़्वाह मख़्वाह लिखना दुरुस्त है ना कि ख़्वामख़्वाह। महफ़िल बर्ख़ास्त हो गई को महफ़िल बरख्वास्त हो गई लिखा जाता है जबकि बर्ख़ास्त ही लिखना चाहीए। देर आए दुरुस्त आए या देर आएद दरुस्त आएद लिखने का चलन आम है। जबकि आएद लफ्ज़ में हमज़ा के बजाय य का इस्तिमाल करना चाहिए और इस तरह लिखना चाहीए देर आयद दुरुस्त आयद। यानी ताख़ीर तो ज़रूर हुई लेकिन काम अच्छा होगया। इसी तरह लिखा जाता है कि आप की ज़रूरत को मद्द-ए-नज़र रखते हुए मैंने आप के ह़क में फैसला किया। यहां मद्द-ए-नज़र लिखना काफ़ी है। रखते हुए लिखने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। शायसतन फ़ारसी का मसदर है जिस का मफ़हूम लाय़क होना होता है। इसी से शायद, ग़ालिबन, मुम्किन है के मानी में इस्तिमाल होता है, लेकिन उसे हमज़ा के साथ शायद लिखा जाता है जो क़तअन दुरुस्त नहीं है। इस तरह के सैकड़ों अलफ़ाज़ जो आम तौर पर उर्दू में इस्तिमाल किए जाते हैं इन का तऱीका इस्तिमाल ग़लत होता है इमला और हिज्जे ग़लत तऱीके से लिखे जाते हैं। उन अलफ़ाज़ के यहां ज़िक्र की गुंजाइश नहीं है। मुम्किन है कि क़ारईन, कलमकार-ओ-मज़्मूननिगार हज़रात को शायद इस मज़मून में कुछ खामियां नज़र आएं तो उस की निशानदेही करें जो मेरे लिए बाइस रहनुमाई होगी ।
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