कुरआन और कुवत

गैर मुस्लिमों खासकर अमेरीका व यूरोप की इस्लाम दुश्मनी और मुसलमानों के खिलाफ साजिश और उन्हें कमजोर व बेबस करने की तारीख कोई नई बात नहीं। दस सौ पनचान्बे से लेकर बारह सौ नब्बे तक ईसाई मुल्क बैतुल मुकद्दस को बुनियाद बनाकर मिडिल ईस्ट पर हमलावर होते रहे जिसको यहूदी जंगों का नाम दिया गया।

ईसाई पादरियों ने इसको मुकद्दस जंग का नाम दिया और मज़हब के नाम पर अपने आवाम और फौजों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काते रहे। लेकिन आखिरकार सुल्तान सलाहउद्दीन अयूबी और नूरउद्दीन जंगी व दीगर सिपहसालारों की मुत्तहिद कमान की मदद से ईसाइयों की मुत्ततिद फौजों को शिकस्त दी। कया ऐसा कुवत व ताकत के बगैर मुम्किन था?

9/11 के बाद अमेरीका और उसके इत्तेहादियों ने अफगानिस्तान, इराक और लीबिया में जो तबाही मचाई है वह पूरी दुनिया पर रौशन है। हुकूके इंसानी की तंजीम ह्यूमन राइट्स वाच की रिपोर्ट के मुताबिक इराक में साठ हजार टन कलस्टर बम बरसाए गए जबकि अफगानिस्तान पर ढाई लाख बम गिराए गए जिससे एक अंदाजे के मुताबिक पांच लाख लोगों पर मुश्तमिल शहरी आबादी इस दुनिया से मिट गई।

यह हकीकत किस कदर दर्दनाक है कि एक तरफ मुस्लिम मुल्कों को तबाह व बर्बाद किया गया और दूसरी तरफ जंग के खर्चे भी खुद दूसरे मुस्लिम मुल्कों ही से वसूल किए गए। सऊदी अरब से छप्पन मिलियन डालर, कुवैत से छब्बीस मिलियन डालर और मुत्तहिदा अरब अमारात से सात मिलियन डालर वसूल किए गए। यह मुसलमानों की कमजोरी व पस्ती की हालत का एक छोटा सा खाका है वरना सारी दुनिया में उन पर जो जुल्म व सितम हो रहा है उसकी तफसील के लिए एक दफ्तर दरकार है।

सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों है और यह सब कब तक होता रहेगा ? कुरआन की रौशनी में इसका एक ही जवाब है, मुसलमानों ने अव्वलन कुरआन ही को छोड़ दिया, फिर उसके एक हिस्से पर अमल किया और दूसरे हिस्से को फरामोश कर दिया। हालांकि अल्लाह तआला ने उन्हें ताकीद की थी कि ‘ऐ ईमान वालो! तुम पूरे के पूरे इस्लाम में दाखिल हो जाओ।’ (अलबकरा-208)

मुसलमानों के सामने हमारे मुफक्किरीन और उलेमा ने पूरा कुरआन पेश ही नहीं किया यह तालीम कि इस्लाम की बुनियाद पांच चीजों पर है। तौहीद, नमाज, रोजा, जकात और हज- तौहीद तो जबानी इकरार हो गया, जकात और हज साहबे निसाब के लिए, रोजा साल में एक बार, बची, नमाज। फिर सारी कौम बाकी कुरआनी तालीमात से गाफिल हो गई और किसी को यह याद ही न रहा कि कुरआन में कौमी जिन्दगी, मआशरती, अखलाकी, सियासी, तस्खीरे कायनात और हुसूल कुवत व ताकत अजमत व सरबुलंदी की तालीम भी है।

आज अमेरीका व यूरोप के बेनमाजियों ने दुनिया भर के एक अरब चालीस करोड़ नमाजियों को यूं दबोच रखा है जैसे शाहीन के पंजों में तीतर व बटेर और शेर के पंजों में खरगोश।

जदीद टेक्नोलाजी से महरूम होने की वजह से मुस्लिम मुल्क बचाव की सतह पर बदहाली का शिकार है, अपने बचाव के लिए उनके पास वह कुवत नहीं जिससे दुश्मनों का मुंह तोड़ जवाब दे सके। अगर अफगानिस्तान, इराक, लीबिया के पास बचाव की कुवत होती तो अमेरीका और उसके इत्तेहादियों को चने जरूर जबवाए जा सकते थे या फिर कम से कम इस कदर टक्कर जरूर दी जा सकती थी कि वह फिर किसी भी मुस्लिम मुल्क पर हमलावर होने की जुर्रत न कर सके।

यह सच है कि इस्लाम इंसानों की भलाई चाहता है, यह भी सच है कि वह जाह व जलाल, शान व शौकत, माल व दौलत, नाम व नमूद को मकसदे हयात करार नहीं देता। हिर्स व हवस, दुनिया तलबी व लालच को पसंद नहीं करता मगर साथ ही वह अपने मानने वालों को हकीर व फकीर, मोहताज व भिकारी, बेकस व बेबस, लाचार व कमजोर, जलील व ख्वार गैरो का महकूम व गुलाम बनाकर भी दुनिया में जिंदा रखना नहीं चाहता।

इस्लाम में जंग या कताल की तालीम लोगों को कुबूले ईमान पर मजबूर करने के लिए नहीं है वरना जजिया लेकर गैर मुस्लिमों को अपनी जिम्मेदारी में रखने और उनकी जान व माल, इज्जत व आबरू की हिफाजत करने के इस्लामी एहकाम कैसे जारी होते।

इस्लाम एक ऐसा दीन है जो मुसलमानों की ताकत को बेलगाम होने नहीं देता। यह उसूल दिया गया है कि औरतो, बच्चों और बूढ़ों पर ताकत आजमाई नहीं की जाएगी यहां तक कि पेड़ों और फसलों को भी नुक्सान नहीं पहुंचाया जाएगा और जो तुम्हारे मुकाबले पर न आए उसको कुछ नहीं कहा जाएगा। जो तुम्हारे सामने मुकाबले के लिए आए उससे मुकाबला होगा। इस हकीकत से दुनिया अच्छी तरह वाकिफ है कि मुसलमानों ने इस पर माजी में अमल किया और कभी अपनी कुवत का बेजा इस्तेमाल नहीं किया।

साथ ही यह भी याद रहे कि इस्लाम बुजदिलों और कमजोरों का दीन नहीं बल्कि मजबूत अज्म वाले और मुजाहिदीन का दीन है। अल्लाह को वह इंसान पसंद है जो उसकी राह में सर पर कफन बांध कर निकलते हैं। अल्लाह तआला का इरशाद है – ‘मोमिनों में से जो लोग बगैर किसी उज्र के घरों में बैठने वाले हैं और वह जो अल्लाह की राह में अपने मालों और अपनी जानों के साथ जिहाद करने वाले हैं वह आपस में बराबर नहीं। अल्लाह ने अपने मालों के साथ और अपनी जानों के साथ जिहाद करने वालों को घरों में बैठे रहने वालों पर फजीलत दी है।’ (अल निसा-95) मुजाहिद मुसलमान का मेयार अल्लाह ने यह रखा है कि वह दस काफिरों पर गालिब आता है और अगर वह जरा कमजोर हो तो दो काफिरों पर तो जरूर ही हरहाल में गालिब आता है।

अल्लाह का इरशाद है-‘ऐ नबी! मुसलमानों को जंग के लिए आमादा करों अगर तुम में बीस आदमी साबित कदम रहने वाले होंगे तो दो सौ मुकरों पर गालिब रहेंगे और अगर सौ ऐसे होंगे तो हजार पर गालिब रहेंगे। (अल इफाल-65)

अच्छा अब अल्लाह ने तुम्हारे बोझ को हल्का कर दिया, उसे मालूम था कि अभी तुम में कमजोरी है इसलिए अगर तुममें से सौ साबिर हों तो कह दो सौ पर और हजार ऐसे हों तो वह दो हजार पर अल्लाह के हुक्म से गालिब आएंगे और अल्लाह उन लोगों के साथ है जो सब्र करने वाले हैं।

ऊपर दर्ज आयतों से यह मालूम होता है कि ताकतवर मुजाहिदीन की एक और दस की निस्बत है और कमजोर मुसलमान की एक और दो की। इससे मालूम होता है कि मुसलमानों की कुवत कमजोर थी। इसीलिए तखफीफ की गई मगर हुक्म पहला ही बाकी रहा।

अल्लाह यह चाहता है कि मुसलमानों में जो कमजोरी थी वह उसको दूर कर ले और इतनी कूवत पैदा कर लें कि दुश्मन तुम्हारा मुकाबला करने से घबराएं।

इसलिए अल्लाह का इरशाद है- ‘और तुम लोग जहां तक तुम्हारा बस चले ज्यादा से ज्यादा ताकत और तैयार बंद्दे रहने वाले घोड़े उनके मुकाबले के लिए मुहैया रखो ताकि उसके जरिये से अल्लाह के और अपने दुश्मनों को और उन दूसरे दुश्मनों को खौफजदा कर दो जिन्हे तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है।’ (अल इंफाल-60)

घोड़ों की ताकत आज भी जरूरी है। आज के तरक्की याफ्ता साइंसी दौर ने घोड़ों की ताकत को मुख्तलिफ किस्मों की मशीनों में बांध लिया है जिसको हार्सपावर कहते हैं।

ऊपर दर्ज आयतों में अल्लाह ने मुसलमानों को ताकीद की है कि अपने आपको हर दौर हर जमाने के लिहाज से ताकतवर बनाए रखे। उस दौर में घोड़ा, तलवार ताकत की चीजें थी तो आज के दौर में टैंक, बंदूक, राकेट, मिजाइल, मुख्तलिफ किस्म के बम हवाई जहाज, समुन्दरी जहाज, हेलीकाप्टर और इन सबसे बढ़कर टेलीकम्युनिकेशन जिसकी मदद से दुश्मन की हर हरकत को नजर में रखा जा सकता है, इसके लिए सैटलाइट सिस्टम भी जरूरी है। आज अमेरीका व यूरोप को जो बरतरी हासिल है वह इस जदीद टेक्नोलाजी की वजह से है।

मगर सद अफसोस कि इस्लामी दुनिया में कोई मुल्क भी अल्लाह के इस हुक्म पर अमल पैरा नहीं है, जाने अनजाने इसको फरामोश कर दिया गया है। इसलिए मुसलमान हर जगह जलील व ख्वार है और उन्हें गाजर मूली और कीड़ों मकोड़ों की तरह काटा जा रहा है।

अल्लाह का इरशाद है – ‘यह हकीकत है कि हमने रसूलों को वाजेह निशानियां देकर भेजा और उनके साथ किताब जो मीजाने अदल है नाजिल की ताकि लोग इंसाफ पर कायम रहे और लोहा पैदा किया कि इसमें खतरा है और लोगों के लिए फायदा भी है।’ (अल हदीस-25)

यहां अल्लाह तआला ने किताब के साथ लोहा नाजिल करने का जिक्र किया है जिससे मुराद फौजी कुवत व ताकत है। दीन बिला इक्तेदार (हुकूमत) के हो तो वाज व नसीहत बनकर रह जाता है और जब इक्तेदार व हुकूमत बगैर किताब के हो तो चंगीरी का मजहर बन जाता है।

अल्लाह तआला का इरशाद है-‘और हमने इसको तुम्हारे फायदे के लिए जिरिह बनाने की सिफत सिखा दी थी ताकि तुमको एक दूसरे की मार से बचाए।’ (अल अम्बिया-80)

इससे मालूम होता है कि अल्लाह तआला ने हजरत दाऊद (अलै0) को लोहे के इस्तेमाल पर कुदरत अता की थी और खासतौर से जंगी गरज के लिए जिरिह साजी का तरीका सिखाया था।

अल्लाह का इरशाद है- ‘उनके नबी ने उनसे कहा अल्लाह ने तालूत को तुम्हारे लिए बादशाह मुकर्रर किया है, यह सुनकर वह बोले हम पर बादशाह बनने का वह कैसे हकदार हो गया? उसके मुकाबले में बादशाही के हम ज्यादा मुस्तहक है वह तो कोई बड़ा मालदार आदमी नहीं है। नबी ने जवाब दिया – अल्लाह ने तुम्हारे मुकाबले में उसी को मुंतखब किया है और उसको ज्यादा इल्म और जिस्मानी ताकत अता की है।’ (अल बकरा-247)

इस आयत में अल्लाह तआला ने बादशाह मुकर्रर करने की दो वजहें बयान की है कि वह इल्म रखता है और ताकतवर भी है। रहा यह सवाल कि जंग की नौइयत बचाव की होनी चाहिए या इकदामी या जारिहाना। इस्लाम में आम तौर पर जंग बचाव की नौइयत की है लेकिन जरूरत पड़ने पर इकदामी भी हो सकती है।

जंग की इजाजत मजलूमों को:- ‘इजाजत दे दी गई उन लोगों को जिन के खिलाफ जंग की जा रही है क्योंकि वह मजलूम हैं।’ (अल हज -39)

फसाद रोकने के लिए:- क्योंकि फसाद अल्लाह को पसंद नहीं। ‘यह लोग जमीन में फसाद करते फिरते हैं और अल्लाह फसाद करने वालों को पसंद नहीं करता। इसलिए अल्लाह ने जिहाद और कताल के जरिये से उन लोगों के फसाद को दूर करने का हुक्म दिया।’ (अल मायदा-64)

मजलूमों की हिमायत के लिए:- मदीना मुनव्वरा में मोमिनीन की अपनी ममलिकत कायम हुई लेकिन मक्का में अभी ऐसे मुसलमान थे जो घिर कर रह गए थे और मुखालिफीन उन्हें तरह-तरह की तकलीफें दे रहे थे, यह लोग अल्लाह को मदद के लिए पुकार रहे थे। अल्लाह कादिर मुत्तलक है, उसके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं था कि वह उनकी सीद्दे मदद करके उन्हें वहां से निकाल लेता।

लेकिन उसने ऐसा नहीं किया बल्कि उसने अपनी पार्टी मदीना के मुसलमानों से कहा – ‘और तुमको क्या हुआ कि नहीं लड़ते अल्लाह की राह में और उनके वास्ते जो मगलूब हैं। मर्द और औरतें व बच्चे जो कहते हैं ऐ रब! हमें निकाल इस बस्ती से कि जालिम हैं यहां के लोग और कर दे हमारे लिए अपने पास से कोई हिमायती और कर दे हमारे वास्ते अपने पास से मददगार।’ (अल निसा-75)

वह लोग अल्लाह को मदद के लिए पुकार रहे हैं और अल्लाह ने अपनी पार्टी हिज्बुल्लाह से कह दिया कि तुम सुनते नहीं हो कि वह लोग हमें किस तरह पुकार रहे हैं। तुम उनकी मदद के लिए क्यों नहीं उठते। मुसलमानों का काम सिर्फ अपनी मस्जिदों की हिफाजत करना ही नहीं बल्कि दूसरी कौमों की इबादतगाहों की हिफाजत की जिम्मेदारी भी है।

‘तुममें से कुछ लोग तो ऐसे जरूर ही होने चाहिए जो नेकी की तरफ बुलाएं भलाई का हुक्म दे और बुराइयों से रोकते रहें। जो लोग यह काम करेंगे वही फलाह पाएंगे।’ (आले इमरान-106) इसी सूरत की आयत नम्बर एक सौ दस में यूं इरशाद है – ‘अब दुनिया में वह बेहतरीन गरोह तुम हो जिसे इंसानों की हिदायत व इस्लाह के लिए मैदान में लाया गया है। तुम नेकी का हुक्म देते हो, बदी से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो।’ ऊपर दर्ज आयतों से मालूम होता है कि मारूफ का हुक्म देना है। महज वाज व नसीहत करना नहीं और मुंकरात को रोकना है। इसके लिए कुवत की जरूरत है, इक्तेदार की जरूरत है।

मुजाहिदाना जज्बा खत्म हो गया। सरफरोशी का वजूद नहीं, हमने इस्लाम को एक रहबानी दीन समझ लिया और यह समझते हैं कि नमाजें पढ़ने ही से सब कुछ हो जाएगा। नमाज की अहमियत मुसलल्लम है।

इरशादे नबवी है- ‘उस दीन में काई भलाई नहीं जिसमें नमाज नहीं। ‘लेकिन याद रहे कि नमाज की फर्जियत और अहमियत के बावजूद अल्लाह की राह में जिहाद को आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सारी इबादतों से अफजल करार दिया है।

इस अफजल इबादत को हम भुला बैठे हैं। उलेमा की तहरीरें और तकरीरें देखिए और सुनिए तो मालूम होता है कि गोया कुरआन में सिर्फ नमाज और रोजे ही का तजकिरा है, अफजल इबादात की बात नहीं।

इरशाद है- ‘तुम्हें जंग का हुक्म दिया गया है और वह तुम्हे नागवार है, हो सकता है कि एक चीज तुम्हें नागवार हो और वही तुम्हारे लिए बेहतर हो।’ (अल बकरा-216)

‘ऐ ईमान वालो! दुश्मन के मुकाबले के लिए हथियार तैयार रखो, फिर जब तुम निकला करो चाहे दस्तों की सूरत में या इज्तिमाई तौर पर।’ (अल निसा-71) मतलब यह है कि ऐ मुसलमानो! खैर इसी में है कि तुम अपना हर तरह से बचाव और अपनी खबरदारी और एहतियात कर लो। हथियारों से ही तदाबीर से, अक्ल से हो, सामान से और दुश्मनों के मुकाबले के लिए घर से निकलों मुत्तफिक तौर पर या सब इकट्ठा होकर जैसा मौका हो। जाहिर है कि मुसलमानों को इतनी कुवत मुहैया करनी चाहिए कि दुश्मन उनके मुकाबिल टिक न सके।

मुसलमान इस गलत फहमी में न रहे कि वह अल्लाह के एहकाम/ अहकाम की खिलाफवर्जी करके या उसको फरामोश करके उसके अजाब और पकड़ से बच जाएंगे। उन्हें मालूम होना चाहिए कि जिल्लत व रूसवाई, महकूमी व गुलामी के जिस अजाब में वह गिरफ्तार होकर काफिरों का निवाला बने हुए हैं वह यूं ही नहीं बल्कि ठीक अल्लाह के कानून के मुताबिक है।

अब भी वक्त है वह होश में आ जाएं और अल्लाह की किताब के अहकाम के मुताबिक इतनी कुवत पैदा कर लें कि दुश्मन उनकी तरफ आंख उठाकर देख्ने की हिम्मत न कर सकें।

‘अल्लाह किसी कौम की हालत को उस वक्त तक नहीं बदलता जब तक कि वह कौम खुद अपनी हालत को न बदले।’ (अल राद-11) और तुम अल्लाह की सुन्नत या कानून का या तरीके में तब्दीली नहीं पाओगे यह अटल कानून है। (डाक्टर मिर्जा नजीर बेग)

———-बशुक्रिया: जदीद मरकज़