नई दिल्ली: सुप्रीमकोर्ट ने जमाते उलेमा ए हिंद को मफ़ाद-ए-आम्मा की एक अज़खु़द दरख़ास्त से मुताल्लिक़ मुक़द्दमे में फ़रीक़ बनने की इजाज़त देदी। ये मुक़द्दमा मुस्लिम ख़वातीन के ख़िलाफ़ सनफ़ी इम्तियाज़ के बिशमोल दीगर महतलफ़ मसाइल से मुताल्लिक़ है जिसमें जमईता अलालमाए हिंद ने इद्दिआ पेश किया कि कोई अदालत मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के जवाज़ का जायज़ा नहीं ले सकती।
चीफ़ जस्टिस टी एस ठाकुर के अलावा जस्टिस ए के सकरी और जस्टिस आर भानूमती पर मुश्तमिल एक बेंच जिसने अटार्नी जनरल और नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरीटी को मफ़ाद-ए-आम्मा की दरख़ास्त पर नोटिस जारी की थी। आज मर्कज़ और इस तंज़ीम (जमाते उलेमा ए हिंद को हिदायत की है वो अंदरून छः हफ़्ते जवाब दाख़िल करें।
जमाते उलेमा ए हिंद ने अपनी दरख़ास्त में इस्तिदलाल पेश किया था कि शादी ब्याह, तलाक़ और नान-ओ-नफ़क़ा से मुताल्लिक़ मुस्लिम पर्सनल ला के दस्तूरी जवाज़ का अदालत-ए-उज़्मा जायज़ा नहीं ले सकती। बुनियादी हुक़ूक़ की वजूहात की बिना पर पर्सनल ला को चैलेंज नहीं किया जा सकता।
जमाते उलेमा ए हिंद ने कहा कि ”मुस्लिम पर्सनल ला ( ख़वातीन को महज़ किसी मुक़न्निना या मजाज़ इदारे की तरफ़ से तैयारी-ओ-मंज़ूरी की बुनियाद पर जवाज़ हासिल नहीं है बल्कि पर्सनल ला के बुनियादी ज़राए उनके मुताल्लिक़ा सहीफ़ा के मतन से ताल्लुक़ रखते हैं”।
जमाते उलेमा ए हिंद ने मज़ीद कहा कि ”शरीयत-ए-मुहम्मदी ई यक़ीनी-ओ-लाज़िमी तौर पर क़ुरआन मुक़द्दस पर मबनी है और ”नाफ़िज़ ख़वातीन’ के ज़मुरे में शामिल नहीं हैं जिसका दस्तूर हिंद के फ़िक़रा13 मे तज़किरा किया गया है। दस्तूर के हिस्सा III की बुनियाद पर मुस्लिम क़वानीन के जवाज़ को चैलेंज नहीं किया जा सकता।
अदालत-ए-उज़्मा ने पिछले साल मफ़ाद-ए-आम्मा की एक दरख़ास्त के रजिस्ट्रेशन का हुक्म दिया था और मुस्लिम ख़वातीन (तहफ़्फ़ुज़ हुक़ूक़ तलाक़ क़ानून को चैलेंज किए जाने से मुताल्लिक़ मसाइल से निमटने के लिए चीफ़ जस्टिस को एक ख़ुसूसी बेंच तशकील देने की हिदायत की थी।
इस बात पर भी तवज्जे मर्कूज़ की गई थी कि ये मसला महेज़ पालिसी का मामला नहीं है बल्कि दस्तूर के तहत ख़वातीन को उनके बुनियादी हुक़ूक़ से मुताल्लिक़ देवगी ज़मानत से ताल्लुक़ रखता है। ये मसला उस वक़्त ज़ेर-ए-बहस आया जब हिंदू क़ानून-ए-विरासत (तरमीमी के मसले पर मुक़द्दमे की समाअत की जा रही थी और बेंच ने इस बात का नोट लिया था कि सनफ़ी इमतियाज़ का ये एक मसला है जिसका अगर इस अपील से रास्त ताल्लुक़ नहीं है।
इस मौक़े पर मुख़्तलिफ़ फ़रीक़ैन के चंद वुकला मुस्लिम ख़वातीन के हुक़ूक़ का मसला भी उठाया था। अदालत ने कहा था कि ”इस बात पर भी तवज्जे मर्कूज़ करवाई गई है कि दस्तूरी ज़मानत के बावजूद मुस्लिम ख़वातीन को इम्तियाज़ी सुलूक का निशाना बनाया जा रहा है। बाज़ मुस्लिम ख़वातीन शौहर अपनी पहली शादी बरक़रार रखते हुए दूसरी शादी किया करते हैं जिससे पहली बीवी अपनी इज़्ज़त और सलामती से महरूम हो जाती है और ज़ालिमाना अंदाज़ में तलाक़ से बचने के लिए उस के पास कोई महफ़ूज़ चारा कार नहीं है”