क्या उत्तर प्रदेश में कामयाबी की तरफ बढ़ रही है कांग्रेस ?

हिन्दुस्तान की सियासत में मुसलमानों का किरदार जितना बड़ा है, उतनी अहमियत नहीं मिली। सत्ता तक पहुंचाने वाला मुसलमानों को उम्मीद के मुताबिक कुछ भी हासिल नहीं हुआ। अक्सर ये इल्ज़ाम लगता आया है कि मुसलमान सिर्फ वोट बैंक की राजनीति का शिकार है, हर सियासी पार्टियां मुस्लिम समुदायों को वोट कि राजनीति में उलझा कर उसका इस्तेमाल कर लेती है। मगर इसके लिए जिम्मेदार कौन? क्या मुसलमानों को इस बात पर गर्व है कि वो वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल होते हैं? अगर ऐसा नहीं तो मुसलमानों में सियासी समझ क्यों नहीं हुई? काफी सवाल उत्पन होगें। कांग्रेस हमेशा से मुसलमानों की पहली पसंद रही। आजादी के बाद से लेकर अब तक मुसलमानों का भरोसा कांग्रेस पार्टी पर ज्यादा रहा है। इस वक्त पुरे देश की नज़र यूपी पर टिकीं हैं। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी सियासत में काफी अहमियत रखती है।और यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में 2012 विधानसभा चुनाव में 64 मुस्लिम विधायक चुने गए। मैं समझता हूं कि यह आंकड़ा कम नहीं है।

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मगर मेरा सवाल उन बातों पर है जहां मुसलमानों की सियासी सोच जाकर रुक जाती है। मुसलमानों का मोह मायावती से भंग हुआ तो जबर्दस्त बहुमत से समाजवादी पार्टी सत्ता पर आ बैठी। उत्तर प्रदेश को नया चेहरा मिला, युवा पीढ़ी के समाजवादी नेता अखिलेश यादव को सत्ता का बागडोर दिया गया। मगर मुसलमानों के लिए यह सरकार सही साबित नहीं हुई और अनगिनत दंगो ने मुसलमानों का रुख बदल कर रख दिया। मुजफ्फरनगर से लेकर दादरी जैसे कांड में सरकार की पहल ठीक साबित नहीं हुई। सरकार ने कई वादे मुसलमानों से किए मगर उन पर सरकार खरी नहीं उतरी। 2014 लोकसभा में कांग्रेस की हार से मुसलमानों में सियासी सोच बदलनी शुरू हो गई। मगर वैकल्पिक राजनीतिक दलों का चुनाव नहीं कर सकीं, नतीजा कांग्रेस ही पहली पंसद रही। मुस्लिम वोट को कामयाबी तक पहुंचाने के लिए किसी भी राज्यों में चुनाव के लिए सेक्युलर पार्टियों का कांग्रेस पार्टी से गठबंधन होना बेहद जरूरी है। बिहार चुनाव में यह साबित भी हुआ।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी से सिर्फ दो मुस्लिम विधायक है। जौनपुर सदर से नदीम जावेद कांग्रेस के तेज़ तर्रार नेता, अक्सर टीवी पर कांग्रेस की तरफ से राजनीतिक विचार पेश करते हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस नदीम जावेद से बेहतर काम ले सकती हैं। नदीम जावेद युवा पीढ़ी के नेता हैं और बेहतर राजनीति सूझबूझ से परिपक्व है। कांग्रेस के तरफ से अब चुनाव के लिए जो कदम उठाए गए हैं, वो बेहतर साबित हो रहे है। कांग्रेस के सियासी कदम 2017 विधानसभा चुनाव में कामयाबी की तरह जाते दिख रहे है। कांग्रेस के सीनियर और कद्दावर नेता गुलाम नबी आजाद के राजनीतिक तजुर्बे के बल पर कांग्रेस कामयाब होती दिख रही है। जहां बीजेपी अभी तक असमंजस में सियासी कदम उठाने में कतरा रही है, वहीं कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर जनता के सामने पेश कर दी है। बेहतर सियासी सोच रखने वाले लोगों का कहना है कि अगर गठबंधन नहीं भी हुआ तो भी कांग्रेस अच्छा रिजल्ट करने में कामयाब होगी।

लेखक: अब्दुल हमीद अंसारी

(यह लेखक के निजी विचार)