भारतीय जनता पार्टी ने रोहित वेमुला को राष्ट्र-विरोधी बताने का प्रयास किया लेकिन आज वो सामाजिक और संस्थागत उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने वालों की लड़ाई का प्रतीक बन चुका है.
दलित पीएचडी स्कालर रोहित की आत्महत्या के बाद जो बवंडर उठा बीजेपी को उसे दबाने का कोई तरीका नहीं मिल रहा था. वो ‘रोहित वेमुला की काट’ खोज रहे थे. जिससे न केवल रोहित के मामले से ध्यान हटाया जा सके बल्कि स्टूडेंट एक्टिविज्म को भी खारिज किया जा सके.
पुलिस ने पिछले हफ्ते जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को ‘राजद्रोह’ के आरोप में गिरफ्तार किया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) के पदाधिकारी ने कैच को बताया, हमने बिहार के एक भूमिहार को गिरफ्तार किया है. अब आप हमें दलित-विरोधी नहीं कह सकते.”
बीजेपी का ये दांव भी उलटा पड़ा. कन्हैया की विनम्र आर्थिक पृष्ठभूमि और मीडिया पर वायरल तीखे भाषण के बाद उसे ‘देशद्रोही’ घोषित करना मुश्किल हो रहा है.
कन्हैया मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया(सीपीआई) की छात्र इकाई से जुड़े है ये बात भी उनके पक्ष में जा रही है. वामपंथी दलों के अलावा कांग्रेस, जद-यू, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी ने कन्हैया का समर्थन किया है. जिस कन्हैया को बीजेपी सरकार ‘देशद्रोही’ के रूप मे पेश करना चाहती थी वो नरेंद्र मोदी सरकार के विरोध के एक नए प्रतीक बन गए हैं.
मोदी सरकार को अब उमर खालिद के रूप में उसे नया शिकार मिल गया है. उमर अब भंग हो चुके डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन(डीएसयू) के सदस्य हैं. नौ फरवरी को हुए विवादित कार्यक्रम के आयोजकों में एक थे. आरोप है कि कार्यक्रम को मिली अनुमति को अंतिम समय में रद्द कर देने के विरोध में ‘राष्ट्र-विरोधी’ नारे लगाए गए.
उमर बीजेपी के एजेंडे में पूरी तरह फिट बैठते हैं. उनका नाम वैसा ही जैसा बीजेपी चाहती है. अभी से उनके नाम के ईर्दगिर्द तमाम तरह की ‘कॉन्सपिरैसी थियरी’ आनी शुरू हो गई है. जिनमें उन्हें पाकिस्तान स्थित जिहादी संगठन, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विस इंटेलिजेंस(आईएसआई) और कश्मीरी अलगाववादियों से जोड़ा जा रहा है. इन किस्सों में वैचारिक दीक्षा, घुसपैठ और स्लीपर सेल जैसे बीजशब्दों का प्रयोग किया जा रहा है.
सोमवार को ये साफ हो गया कि कन्हैया की गिरफ्तारी दिल्ली पुलिस और बीजेपी पर भारी पड़ रही है. विपक्षी दलों की तरफ से बनाए गए दबाव में जो भी कसर थी उसे बीजेपी के विधायक ओपी शर्मा और उनके समर्थकों ने पूरी कर दी. उन्होंने पटियाला हाउस कोर्ट में कन्हैया के समर्थकों, जेएनयू के छात्रों, टीचरों यहां तक कि मीडिया के संग भी मारपीट की.
मंगलवार को मीडिया के एक वर्ग की खबरों के केंद्र में उमर आ गए. न्यूज-एक्स चैनल ने आईबी के अज्ञात सूत्र के हवाले से खबर चलायी कि उमर का पाकिस्तानी आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद से संबंध था. चैनल ने आरोप लगाया के वो उस विवादित कार्यक्रम के मास्टरमाइंड थे और उन्होंने ‘कश्मीरी घुसपैठियों को जेएनयू में घुसाया.’ चैनल ने उस कार्यक्रम के अन्य आयोजकों को जिक्र नहीं किया.
न्यूज चैनल के अनुसार आईबी रिपोर्ट में कहा गया है कि उमर ने कुछ साल पहले पाकिस्तान का दौरा भी किया. पुलिस ने मंगलवार को उमर और उसके साथियों को खोजने के उनके घर पर छापा मारा.
नतीजतन, उमर के परिवार को जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं. उनकी मां और 12 वर्षीय बहन को भी ऐसी धमकियां मिल रही हैं.
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद(एबीवीपी) ने पूरे दिल्ली में ‘गद्दारों को पकड़ो’ के पोस्टर लगाए हैं.
सोशल मीडिया पर लोगों के कमेंट देखने से अहसास होता है कि बहुत से लोग उमर खालिद के खून के प्यासे हैं.
आखिर उमर खालिद कौन हैं?
उमर खालिद कम्युनिस्ट हैं. उतने ही जितने जेएनयू के दूसरे कम्युनिस्ट होते हैं.
उनका नाम मुसलमानों वाला है लेकिन वो ‘मुस्लिम’ नहीं हैं. दूसरे पक्के कम्युनिस्टों की तरह ही उन्हें भी किसी ईश्वर में यकीन नहीं है.
उमर पाकिस्तान के समर्थक नहीं हैं. उनके साम्यवादी विचारों के अनुसार राज्य वर्ग सत्ता का एक औजार मात्र है. उमर के एक मित्र ने फेसबुक पर लिखा कि भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव “जनता को भुलावा देने का औजार मात्र है.”
जिस डीएसयू के उमर सदस्य थे वो खुद को प्रगतिशील संगठन बताता है जो माओवाद का समर्थन करता है.
पिछले साल नवंबर में जब उमर और 10 अन्य लोगों ने डीएसयू से इस्तीफा दे दिया तो संगठन भंग हो गया. अपने इस्तीफे में इन लोगों ने लिखा था, “जेंडर मुद्दे पर क्रांतिकारी संगठन ने जो दृष्टिकोण अख्तियार किया है वो सामंती, शुचितावादी और प्रतिक्रियावादी है, हालांकि इसे मार्क्सवादी जुमलों में लपेट कर पेश किया जाता है.”
इससे पता चलता है कि उमर और रोहित के विचारों में ज्यादा फर्क नहीं है.
कुछ मीडिया वालों की वजह से पूरे देश में एक हिंसक भीड़ तैयार हो गई है जो उमर के खून की प्यासी नजर आ रही है. अगर वो सभी आरोपों से बरी भी हो जाए तो इस बात की कम संभावना है कि वो दोबारा पहले जैसा सामान्य जीवन जी सकेगा. वही सामान्य जीवन जिसे जीने की इच्छा के बारे में रोहित वेमुला ने अपने सुसाइट नोट में विस्तार से लिखा था. लेकिन उसे इससे दूर कर दिया गया, जीते जी भी और मरने के बाद भी.
उमर के दोस्त ने बताया कि जिस तरह ‘राष्ट्र-विरोधी’ घोषित किए जाने के बाद रोहित का जीवन बरबाद हो गया, वही उमर के साथ हो रहा है. उनके दोस्त ने फेसबुक पर लिखा है, “रोहित के बद, आप लोगों ने एक और जिंदगी बरबाद कर दी. आप लोगों ने ये सनिश्चित कर दिया है कि आप लोगों ने जिन्हें विरोध की आवाज के रूप में चिह्नित किया है वो अब कभी ‘सामान्य’ जीवन नहीं जी सकेंगे.”
ये भी सवाल है कि अगर उमर ने पाकिस्तान की यात्रा की भी थी तो इससे उनके आतंकियों से संबंध प्रमाणित नहीं होता? दक्षिणपंथी पत्रकार वेद प्रताप वैदिक ने पाकिस्तान की यात्रा भी की थी और वो आतंकी संगठन जमात-उद-दावा के मुखिया हाफिज सईद से भी मिले थे. उन्हें किसी ने देशद्रोही नहीं कहा. शायद इसलिए कि उनका नाम उमर खालिद नहीं है.
जेएनयू में हुए इस छोटे से कार्यक्रम के लिए क्या सालों पहले योजना बनानी पड़ी होगी और इसके लिए पाकिस्तान की यात्रा करने की जरूरत पड़ी होगी?
आखिरी इस पूरे मामले में कैंपस में ‘कश्मीरी लोगों के घुसपैठ’ पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है? अगर टीवी वालों को लगता है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो किसी सेंट्रल यूनिवर्सिटी के कैंपस मे कुछ कश्मीरियों को जाने को लेकर इतनी हायतौबा क्यों?
कन्हैया की गिरफ्तारी के विरोध में प्रदर्शन कर रहे पश्चिम बंगाल की जादवपुर यूनिवर्सिटी के छात्रों ने मंगलवार को ‘कश्मीर की आजादी’ के समर्थन में नारे लगाए. अगर जादवपुर में छात्र चंद दिनों में ऐसा विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं तो फिर जेएनयू के छात्रों को ऐसे प्रदर्शन के लिए इतनी लंबी तैयारी, पाकिस्तानी मदद, कश्मीरियों की घुसपैठ की जरूरत क्यों पड़ेगी?
जेएनयू के कार्यक्रम का जिहादियों से लिंक जोड़ना भी दूर की कौड़ी है. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि इस विरोध प्रदर्शन को पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से संबंध है. अब भारत के गृह मंत्री और न्यूज-एक्स के आईबी सूत्र की मानें तो जेएनयू का विरोध प्रदर्शन लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, माओवादियों और कश्मीरी अलगाववादियों का संयुक्त प्रयास था.
बीजेपी नेता कुमानम राजशेखरन ने आरोप लगाया है कि इस प्रदर्शन को मलयाली अलगाववादियों का भी समर्थन था. गृह मंत्री के बयान की सच्चाई तब सामने आ गई जब ये सामने आया कि जिस ट्वीट को हाफिज सईद का बताया गया था वो जाली था. तो अब इसे कैसे समझा जाए?
(ये लेखक के निजी विचार हैं. जरूरी नहीं है कि संस्थान की इससे सहमति हो.)
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