लखनऊ: उत्तर प्रदेश चुनाव अब इतने नज़दीक आ चुके हैं कि पार्टियां अपनी अपनी रणनीति बना के तय्यार हैं और इसी रणनीति का हिस्सा सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट भी हैं. जहाँ कांग्रेस ने 2014 की हार से सबक़ लेते हुए अपने को फेसबुक जैसी वेबसाइट पे अत्यधिक सक्रिय कर लिया है वहीँ बीजेपी, जेएनयू विवाद के बाद से सोशल मीडिया में अपनी पकड़ खोती नज़र आ रही है, बावजूद इसके बीजेपी कोशिशों में लगी है कि वो इसपर पकड़ क़ायम रखे. प्रदेश की सत्ता पे क़ाबिज़ समाजवादी पार्टी ने फेसबुक और ट्विटर पर अच्छी पकड़ बना ली है, अपने ऑफिसियल पेज पर सवा पांच लाख से ज़्यादा लोग ले कर खड़ी समाजवादी पार्टी को यकीन है कि ये प्लेटफार्म उसका माहौल बनाएगा. इतना ही नहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री और पार्टी का चुनावी चेहरा अखिलेश यादव के ऑफिसियल पेज पर 25 लाख से भी ज़्यादा लोग हैं.
इन सारी बातों में सबसे एहम बात ये है कि जो पार्टी ये दावा कर रही है कि अगले साल के विधानसभा चुनाव को वो आराम से जीत लेगी उसने अभी तक फेसबुक या ट्विटर पे अपना कोई भी ऑफिसियल पेज नहीं बनाया है. जी हाँ, मायावती की बहुजन समाज पार्टी इस खेल में बहुत पीछे है या यूं कहें कि वो खेल का हिस्सा ही नहीं है. शायद मायावती को लगता है सोशल मीडिया सिर्फ़ एक तमाशा मात्र है लेकिन ज़माना पांच साल में काफ़ी बादल गया है और ये बात उन्हें 2014 में भी समझ लेनी चाहिए थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना खाता भी नहीं खोल सकी बहुजन समाज पार्टी ने अभी तक इस ओर क्यूँ ध्यान नहीं दिया है ये एक सोचने का मुद्दा है. अभी कुछ ही रोज़ पहले मैं उनके एक समर्थक से बात कर रहा था तो वो इस बात को लेकर काफ़ी परेशान था और वो भी चाहता था कि जिस तरह से दूसरी पार्टियां अपना एजेंडा सोशल मीडिया पे फैला रही हैं उनकी पार्टी भी फैलाए. दलितों के हक़ की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली मायावती कहीं ग़लती तो नहीं कर रही हैं, ये एक सोचने का विषय है. मायावती जिस वोट को अपना हक मानके चलती हैं वो भी इस बार दूसरे विकल्प सामने पा रहा है, असद उद्दीन ओवैसी की पार्टी भले ही कितनी मुसलमानों की बातें करती रहे लेकिन ये भी सच है कि ओवैसी को हैदराबाद में या महाराष्ट्र में जो कामयाबी मिली है उसमें दलित समाज के लोगों का भी एहम रोल रहा है, कई जानकारों का मानना है कि ओवैसी की उत्तर प्रदेश में मौजूदगी मायावती के लिए चुनौती होगी, अब बात अगर ओवैसी और मायावती की सोशल मीडिया पर मौजूदगी की करें तो वहाँ मायावती तो हैं नहीं लेकिन दिलचस्प ये है कि ओवैसी ने सोशल मीडिया पर अपनी पूरी टीम सी लगा दी है, आप एक ट्वीट ओवैसी के नाम का करें उसे तुरंत शेयर किया जाता है..एक ख़बर जिसमें ओवैसी के लिए कुछ भी पॉजिटिव हो वो चर्चा का विषय बन जाती है, इससे पता चलता है कि किस तरह से ओवैसी सोशल मीडिया पर पकड़ बना रहे हैं, हालांकि लोगों का मानना है कि उनकी ये पकड़ सिर्फ़ यहीं तक सीमित है लेकिन जिस तरह AIMIM अपना प्रचार प्रसार कर रही है उससे ये लगता है जैसे वो दलित वोटों में भी सेंध लगाने वाले है. ठीक है कि ओवैसी एक विशेष तरह की राजनीति करते हैं लेकिन क्या उस राजनीति से मायावती को कोई मतलब नहीं?, और सिर्फ़ ओवैसी की ही बात क्यूँ करें. बाक़ी पार्टियां जिस धड़ल्ले से अपने किले सोशल मीडिया पे क़ायम कर रही हैं क्या उससे मायावती को सबक़ नहीं लेना चाहिए? जहाँ एक ओर समाजवादी पार्टी सारा दमख़म लगा के सोशल मीडिया पे मौजूद है, जहाँ बीजेपी अपना वजूद बचाए रखने की लड़ाई में है और जहाँ कांग्रेस ने जैसे सोशल मीडिया अभियान ही शुरू कर दिया हो और जहाँ छोटे लेकिन प्रभावी दल AIMIM तक ने अपनी पकड़ बना ली हो वहाँ मायावती कहाँ हैं? मायावती सोशल मीडिया पे आने से क्यूँ डर रही हैं? ये सवाल अक्सर ज़हन में आता है, उधर ‘जय मीम जय भीम’ का नारा लेकर चल रहे सोशल मीडिया पे ओवैसी समर्थक कहते हैं मायावती ओवैसी से डर रही हैं? क्या वाक़ई मायावती किसी से डर रही हैं?
लेखक: कौसर उस्मान