क्या जाते-जाते बाबरी मस्जिद की पहेली सुलझा गए हाशिम अंसारी?

हाशिम अंसारी यूं तो उस रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद के मुकदमे के पैरोकार थे जिसके चलते देश भर में कई सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं, लेकिन उनकी मौत की खबर सुनकर यहां हिंदू भी उतने ही ग़मग़ीन थे जितने  कि मुसलमान। इस छोटे से कद के आदमी का रुतबा कितना बड़ा ये उनकी मौत की खबर पाकर वहां उमड़े जनसैलाब से आसानी से पता चल गया।  पिछले  65 साल से बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हाशिम अंसारी दरअसल चाहते थे कि ये मामला आपसी समाज और मेलजोल से ही सुलझ जाए। उनके जनाजे में शामिल होने आये उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त एडवोकेट जनरल और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक ज़फ़रयाब जिलानी का कहना था कि यहाँ सिर्फ अयोध्या के हिंदू-मुसलमान की बात नहीं

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बाहरी लोगों की है जोकि नहीं चाहते कि ये मुद्दा आपसी बातचीत से सुलझे। हाशिम अंसारी मुकदमे की पैरवी की विरासत बेटे इक़बाल के ही नाम कर गए हैं जिनका मानना है कि हम लोग अपनी पूरी कोशिश करेंगे कि किसी तरह का ख़ून-ख़राबा न हो।

नई पीढ़ी की सोच हमसे कुछ अलग हो सकती है, लेकिन चाहते सभी लोग यही हैं कि ये मसला शांति से हल हो। इस मुद्दे को सुलझाने में लगे हाशिम अंसारी की अयोध्या के संतों से उनकी दोस्ती के चर्चे भी आम थे इसलिए उनकी मौत की खबर सुनने के बाद सबसे पहले पहुंचने वालों में राम जन्मभूमि मंदिर के पुजारी महंत सत्येंद्र दास और हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास थे। महंत ज्ञानदास ने बताया कि हाशिम अंसारी अपने बेटे इक़बाल को उन्हें सौंप कर गए हैं। लेकिन यह बहुत ही अजीब बात है कि उन्होंने बाबरी मस्जिद का मुकदमा लड़ने की अपनी ज़िम्मेदारी बेटे इक़बाल को सौंपी और इक़बाल की ज़िम्मेदारी क़ानूनी तौर पर अपने विरोधी महंत ज्ञानदास को। इस मामले में अयोध्या के लोगों का कहना है इस मसले के समाधान का रास्ता भी ऐसे ही रिश्तों से होकर जाता है।