गुजरात दंगों को लेकर बैनुल अकवामी सतह पर बहस में आए नरेंद्र मोदी की वज़ीर ए आज़म के ओहदे की दावेदारी के बाद मुसलमानो के दिल में घबराहट है। किसी का मानना है कि वज़ीर ए आज़म बनने के साथ मोदी अपनी पुरानी शबिह(Image) से पीछा छुड़ाना चाहेंगे तो किसी को खदशा है कि पूरे मुल्क में गुजरात के दोहराने का खतरा बढ़ जाएगा।
कुछ तो ऐसी तस्वीर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं कि इस मुल्क में मुसलमानों की इस्लामी पहचान पर ही मुसीबत खड़ी हो सकती है।
कुछ चेहरों को छोड़ दें तो शायद ही कोई भी मुसलमान मोदी की वकालत करता मिले। वहीं दूसरी ओर सेकुलर पार्टी मोदी मुखालिफ की महवर बन कर मुस्लिम वोटों को अपने पाले में खींचने में जुटे हैं।
मोदी का खौफ जगाकर मुसलमानों के वोट झटकने की भी कवायद हो रही है। जमीयत उलमा हिंद के लीडर सैयद महमूद मदनी ने इस ओर इशारा भी किया है।
उन्होंने सीधे कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि उसकी ओर से ऐसी कोशिश हो रही है लेकिन मुसलमानों को डरने की जरूरत नहीं। अब सवाल उठता है कि क्या मुसलमान सचमुच डरे हुए हैं।
मुस्लिम मआशरा इस डर को कुबूल करने को तैयार नहीं। उसके मुताबिक यह सच नहीं है। जमीनी हकीकत कुछ और है। मुस्लिम मन बदला हुआ दिख रहा है।
उसका मोदी मुखालिफ नफरत की हद तक साफ दिखता है लेकिन अभी किसी एक पार्टी में जाने से झिझक रहा है।
मुस्लिम सियासत का राज़ समझने वालों का कहना है कि मुसलमानों ने पिछले सालों में सेकुलर पार्टियों की असलियत भी देख ली है, इसलिए मोदी के मुखालिफत में मुस्लिम वोट किसी एक पार्टी को नहीं जाएंगे।
मुस्लिम वोटों की सबसे बड़ी दावेदार समाजवादी पार्टी से मुस्लिमों का मन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद कुछ उखड़ा हुआ है तो रामपुर व अलीगढ़ में राहुल के इजलास ने कांग्रेस से उनकी गैर जानिबदारी को जगजाहिर कर दिया है।
बहुजन समाज पार्टी से भी मन मिलने के कोई इशारे अभी तक नहीं मिले हैं। माना यही जा रहा है कि सभी Lok Sabha constituency में मुसलमानों के वोट देने के सबब और मसावात अलग हो सकते हैं।
जाहिर है ऐसी हालात इलेक्शन तक बरकरार रही तो मोदी मुखालिफ का अनासिर भी मोदी की राह आसान करता दिखेगा।
कांग्रेस के एक लीडर दबी जुबान से यह कहने से नहीं हिचकते कि मोदी की वजह से उनकी पार्टी रियासत में शर्मनाक हार से बच जाएगी।
दरअसल इन लोगों का मानना है कि मोदी का हौव्वा खड़ा कर देने से मुस्लिम वोट एकमुश्त उनकी झोली में आ जाएगा और सियासी तौर से दिवालिया होने से बच जाएंगे।
महमूद मदनी के इंतेबाह का कितना असर होगा, यह कह पाना फिलहाल मुश्किल है। वैसे मदनी की बातों को कोई सेकुलर पार्टी संजीदगी से लेता नहीं दिख रहा।
इसकी एक बड़ी वजह यह है कि मुसलमान आजादी के बाद से जज्बातों की बुनियाद पर वोट देता आया है, रेशनल (Rational) हुआ ही नहीं।
कभी कांग्रेस के सेकुलरिज्म के नाम पर तो कभी अयोध्या तनाज़े की वजह से समाज वादी पार्टी का दीवाना हुआ। मुस्लिम सियासत के एक बड़े जानकार कहते हैं कि कमी मुस्लिम मिजाज की है।
अगर वह जज्बातों में न आकर काम की बुनियाद पर वोट का फैसला करे तो किसी सियासी पार्टी की क्या बिसात कि वह इलेक्शन के वक्त हमारे जज्बात जगाकर वोट ले ले और फिर पांच साल के लिए भूल जाए।
—————-बशुक्रिया: अमर उजाला