नई दिल्ली: लंदन के अखबार डेली मेल (1) ने 6 जुलाई 2016 के एडिशन में एक तुफ़ैल अहमद का लिखा हुआ लेख “मुस्लिम युवकों को आतंकवादी बनाने का आरोप इंटरनेट पर क्यूँ लगाया जाए” अखबारों ने खुद ही अपनी इच्छा से यह लिखा है” प्रकाशित किया है। तुफ़ैल अहमद पहले बीबीसी उर्दू सेवा में काम करते थे और अब अचानक “इस्लामी विशेषज्ञ” के तौर पर उभरे हैं क्योंकि तसलीमा नसरीन, तारिक फतह आदि की तरह वे भी वही लिखते हैं जो दुश्मने इस्लाम को खुश करने वाला होता है। इन सेवाओं के बदले तुफ़ैल को अब यहूदी प्रचार संगठन मीमरी MEMRI ने अपने यहां नौकरी दे दी है। इस लेख को दूसरे ही दिन इण्डिया टुडे की वेबसाइट dailyo.in (2) भी प्रकाशित किया। और फिर यह 11 जुलाई के ओपन Open पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ।
डेली मेल ने कुछ समकालीन तस्वीरों को लेख की खूबसूरती के लिए इस्तेमाल किया, जबकि dailyo.in ने “गजवा ए बद्र” की एक पेंटिंग का चयन करना पसंद किया. लेकिन अफसोस है कि इतिहास की बुनियादी जानकारी रखने वाला वयक्ति भी तुरंत ही यह जान जाएगा कि इस तस्वीर का जंगे बद्र से कोई संबंध नहीं है, जो अरब के एक जंगल में लड़ी गई थी। नेट पर थोड़ी सी ही खोज से यह मालूम हो गया कि यह तस्वीर युद्ध बोदाकी की चित्रण करती है जो हंगरी में 1686 में होली लीग और उस्मानिया की सेना के बीच लड़ी गई थी।
तुफ़ैल अहमद के इस स्तर के लेख का मुख्य लक्ष्य यह दर्शाना है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया में मुस्लिम युवाओं के रेड्डी कलाईज़ेशन का आरोप डालना सही नहीं है बल्कि यह भारत की उर्दू प्रेस का किया धरा है।
तुफ़ैल अहमद के अनुसार मूल दोषी भारत का उर्दू प्रेस है जो भड़काने वाली समाचार और लेख रोज़ाना प्रकाशित करके मुस्लिम युवकों को रेडीकलाईज़ कर रहा है, (क्रांतिकारी बना रहा है)। दूसरे शब्दों में इस लेख का उद्देश्य यह है कि जो कुछ भी थोड़ी बहुत मीडया में भारतीय मुसलमानों की आवाज बाकी है उसको भी खामोश कर दिया जाए।
लेखक ने सुल्तान शाहीन के शब्दों को नकल करते हुए उन्हें एक “अग्रणी समाज सुधारक” बताया और उनसे बयान किया है कि है कि जब इंटरनेट नहीं था तो भी लगभग 18000 भारतीय मुसलमानों ने तुर्की में खिलाफत उस्मानिया के लिए लड़ने के लिए अपने घरों को और व्यापार को छोड़ दिए थे। यह सुल्तान शाहीन, जिनके संबंध संदिग्ध हैं, एक बिल्कुल ही मुस्लिम विरोधी वेबसाइट चलाते हैं।
ये दोनों आदमी, यानी तुफ़ैल अहमद और सुल्तान शाहीन, एक बिल्कुल ही झूठे दावे से अपने पाठकों को मूर्ख बना रहे हैं जिसे भारत और दूसरे मुस्लिम विरोधी तत्वों यानी इस्लाम दुश्मन इसको जल्द ही रटने लगेंगे और इस तरह से भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति को संदिग्ध साबित करने की कोशिश करेंगे. जिस बात के बारे में ये लोग गलत बयानी कर रहे हैं वे वास्तव में 1920 के भारतीय आंदोलन पलायन है जो तुर्की में खिलाफत के अंत के पूरे चार साल पहले हुई थी. 1920 आंदोलन पलायन, जो ब्रिटिश साम्राज्य के साथ असहयोग आंदोलन का हिस्सा थी, दरअसल ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक अभियान था और प्रवासी इस्तांबुल बल्कि काबुल गए थे। वहाँ से कुछ लोग रूस भी चले गए थे जिनमें शौकत उस्मानी जैसे लोग शामिल थे जहां वे समाजवाद के समर्थक हो गए थे. शोकत उस्मानी, जिनसे 1960 के दशक के अंत में काहिरा में मेरी कई बार मुलाकात हुई थी, भारत में समाजवादी आंदोलन के स्तंभ थे और उस समय वह काहिरा में बम्बई के अखबार फ्री प्रेस जर्नल के प्रतिनिधि थे। प्रवासियों में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के साहसी और दृढ़ लीडर खान अब्दुल गफफार खान जैसे लोग शामिल थे। उन मैं से जल्द ही कई लोग काबुल में परेशानियां झेलने और यह महसूस करने के बाद कि वहां से भारत में अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करना संभव नहीं है, वापस आ गए थे (3)।
तुफ़ैल इस बात का दावा करते हैं कि “भारतीय मुसलमानों में मजलुमिय्त, खुद को परेशान समझना और मुख्यधारा से जुदाई की भावना और साथ ही साथ वह बौद्धिक वातावरण जिसमें जिहादी विचार और व्यवहार को बढ़ावा मिलता है वह इंटरनेट की वजह से नहीं बल्कि मुस्लिम उलेमा और उर्दू प्रेस और अख़बारों के कारण है”।
उसके बाद अपने दावे को सच साबित करने के लिए तुफ़ैल ने भारतीय उर्दू प्रेस के कुछ उदाहरण भी दिए हैं। उन्होंने विशेष रूप से उर्दू के दो अखबार दैनिक संगम और “सहाफत” पर आपत्ति जताया है। पहले यानी “संगम” में युद्ध बद्र पर एक एडिटोरियल लिखने के कारण, और दूसरे यानी “सहाफत” में प्रकाशित एक लेख में जो लड़ाई बद्र की बरसी पर 17 रमजान यानी 23 जून 2016 को छपा था। यह बात समझ से बाहर है कि इस्लामी इतिहास के एक महत्वपूर्ण घटना में मुसलमानों के लिए, या ऐसे अखबार में जिसे ज्यादातर मुसलमान ही पढ़ते हैं, ऐसा लेख लिखना क्यों और कैसे गलत है या हो सकता है।
पटना के दैनिक संगम ने जंगे बद्र में एक संक्षिप्त संपादकीय प्रकाशित किया था (4) जो कि इस्लामी इतिहास में एक बहुत महत्वपूर्ण घटना है। यह एक पारंपरिक लेखन थी जिसका मौजूदा हालात से कोई संबंध नहीं था। जंगे बद्र जैसे महत्वपूर्ण घटना पर केवल बतौर यादगार एक लेख छपने पर आपत्ति करने का मतलब है कि मुसलमान अपने धर्म और इतिहास को ही भूल जाएं। हम “सहाफत” अखबार के तीनों पदों अर्थात लखनऊ, दिल्ली और मुंबई ई पेपर को खोजा जो दी हुई तारिख (यानी 23 नवंबर) के थे लेकिन हमें इस तारीख में वह लेख नहीं मिला जो तुफ़ैल अहमद की नज़र में बहुत भड़काऊ और आपत्तिजनक है।
“सहाफत” अखबार के उक्त लेख में शब्द “माले ग़नीमत” का अनुवाद तुफ़ैल अहमद ने “वह माल व असबाब जो ग़ैर मुस्लिमीन से छीना या कब्जा किया जाए” किया है। इससे पता चलता है कि वह कितने अज्ञानी या चालबाज़ और बे ईमान हैं. माले ग़नीमत का मतलब है वह माल व असबाब जो किसी युद्ध में हारे हुए दुश्मन से उसकी हार के तुरंत बाद ही युद्धक्षेत्र से प्राप्त किया जाए. उसके अलावा किसी भी जीते हुए क्षेत्र से ऐसे लोगों के माल व असबाब, संपत्ति आदि जो युद्ध में शामिल नहीं थे लेने या कब्जा करने से मुसलमानों को बिलकुक मना किया गया है।
तुफ़ैल अहमद ने “सहाफत” का एक बार फिर चर्चा करते हुए कहा है कि इस पत्र में 22 जून 2016 के अंक में प्रकाशित एक लेख में, जवावर लान्ड़ो शूटिंग के बारे में था, कहा गया है कि यह हमला डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिका का राष्ट्रपति बनाने की साजिश थी। तुफ़ैल के दावे के अनुसार इस लेख में लिखा गया है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने ही 9/11 का हमला करवाया था। हम इस लेख को “सहाफत” के केवल लखनऊ संस्करण के इ पेपर संस्करण में ही पाया (5) लेकिन जो कुछ इसमें कहा गया है वह यह है कि डोनाल्ड ट्रम्प ओरलांडो हमला को राजनीतिक रूप से उपयोग करने के इच्छुक हैं। इस लेख में आगे यह भी लिखा है कि इस बात की संभावना है कि (डोनाल्ड) ट्रम्प को इस हमले से बहुत फायदा होगा क्योंकि वह अमेरिका में मुसलमानों के खिलाफ जहर उगल रहे हैं। मिस्टर तुफ़ैल, इसमें गलत क्या है? क्या दुनिया भर में समाचार पत्र इस समय यही नहीं कह रहे थे कि ओरलांडो शूटिंग को ट्रम्प अपनी बयानबाजी के लिए इस्तेमाल करेंगे और जैसा कि उन्होंने किया भी।
तुफैल ने नई दुनिया मैगज़ीन (23.31 मई 2016) का भी हवाला दिया है और इसमें लिखे एक लेख का जिक्र किया है जिसमें मदीना में बनू क़रीज़ा की हत्या को सही और वैध करार दिया गया है। इस्लामी इतिहास का कोई भी गंभीर छात्र इस बात से परिचित है कि बनू क़रीज़ा की हत्या उनकी धार्मिक पुस्तकों के अनुसार उनके धर्मगुरू द्वारा दी गई सज़ा थी और उनकी हत्या का आदेश उनके अपने ही सहयोगी जनजाति “ओस” के सरदार सअद बिन मआज़ ने जारी किया था क्योंकि बनू क़रीज़ा ने मदीना के दुश्मनों की मदद करके और
उन्हें आमंत्रित करके मदीना पर हमला करने की गद्दारी की थी। आज भी दुनिया के किसी देश में किसी भी ऐसे गद्दार जो दुश्मनों की मदद करे और उन्हें अपने ही देश पर हमले कराए यही सज़ा होगी।
तुफ़ैल अहमद ने मुंबई के उर्दू टाइम्स (26 दिसंबर 2014) का भी हवाला दिया है जिसमें उनके दावे के अनुसार यह लिखा है कि किसी भी मुर्तद का हत्या कर देना चाहिए। चूंकि उर्दू टाइम्स के तत्कालीन अंक ई पेपर के रूप में उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए ये जानना न मुमकिन नहीं है कि मिस्टर तुफ़ैल ने कितनी ईमानदारी से इन बातों को दोहराया है। लेकिन उन्होंने जिस इरादे और जिस लहजे में अपने लेख लिखे हैं उसे ध्यान में रखते हुए यह बजा तौर पर कहा जा सकता है कि उन्होंने उर्दू टाइम्स को गलत तरीके से पेश किया होगा और गलत बयानी से काम लिया होगा। किसी मुर्तद को मारना आसान बात नहीं है और किसी भी निजी व्यक्ति को ऐसा करने का अधिकार नहीं है. समकालीन नियमों में खयानत पद की तरह स्वधर्म त्याग भी एक जटिल समस्या है जो सहयूनी परोपेगंडा मशीन के कृ खरीद कर्मचारी की समझ से बाहर है।
भारत के उर्दू प्रेस को बहुत सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि ऐसे गलत और संदिग्ध दावे उनके लिए मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। केवल उर्दू प्रेस ही आजकल स्वतंत्र रूप से मुसलमानों की स्थिति, विचारों और समस्याओं की सही व्याख्या का एकमात्र साधन रह गए हैं और अब उन्हें भी लगाम लगाने की तैयारी हो रही है।
(उर्दू से अनुवाद)
लेखक: डॉक्टर ज़फरुल इस्लाम खां