क्यों लें विदेशी सहायता?

केरल में बाढ़ की आपदा को कुछ मायनों में 1924 की ऐतिहासिक बाढ़ से भी भयानक बताया जा रहा है। 350 लोग मारे गए हैं। हजारों बेघर हो गए हैं। सड़कें तकरीबन सारी क्षतिग्रस्त हैं। खेती-बाड़ी उजड़ गई है। बड़े दायरे में भूस्खलन के शिकार हुए इडुक्की जिले के बारे में कहा जा रहा है कि वह 40 साल पीछे जा चुका है। राज्य भर में लगभग सवा दो लाख लोग राहत कैंपों में रह रहे हैं। पानी उतरने के साथ बीमारियां फैलने की आशंका को देखते हुए आने वाले दिनों में राहत शिविरों की भीड़ और बढ़ सकती है।

सच पूछें तो यह केरल का ही नहीं, पूरे देश का इम्तहान है। लेकिन कमर कस कर इस रण में उतरने के बजाय दुर्भाग्यवश हम व्यर्थ की बहसों में अपना समय नष्ट कर रहे हैं। सबसे तकलीफदेह बात यह कि सत्तारूढ़ हिंदुत्व विचारधारा से जुड़े कई नामी लोग, जिनमें एक निर्वाचित जन प्रतिनिधि भी शामिल हैं, केरल की इस आपदा को वहां ‘गोमांस-भक्षण’ का नतीजा बता रहे हैं! ऐसे पत्थरदिल बयान सिर्फ यह बताते हैं कि हम न सिर्फ अभी तक सही अर्थों में एक राष्ट्र नहीं बन पाए हैं, बल्कि राष्ट्रवाद का हल्ला मचाने वाली राजनीतिक धारा असलियत में राष्ट्र-भावना को कमजोर करने का काम कर रही है।

हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया (टीओआई) ने संभवत: इस दुराग्रही दृष्टिकोण को भांपकर ही केंद्र सरकार की उस नीति पर सवाल उठाया, जिसके तहत उसने संयुक्त अरब अमीरात समेत किसी भी देश से सरकारी सहायता लेने से मना कर दिया था। 23 अगस्त की अपनी संपादकीय टिप्पणी ‘मिसप्लेस्ड प्राइड’ में टीओआई लिखता है कि ‘भारत सहायता स्वीकार करता रहा है, पर इसके तरीके को लेकर नकचढ़ापन दिखाता है। आपदा के समय इस अनावश्यक गर्वबोध से बचा जाना चाहिए। …प्राकृतिक आपदा के समय सहायता लेने से प्रतिष्ठा नहीं घटती। अमेरिका तक ने 2005 के कटरीना चक्रवात के बाद 36 देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की सहायता स्वीकार की थी।’

खुद केरल सरकार की राय भी इस मामले में टीओआई जैसी ही रही है। लेकिन यहां मामला किसी झूठे या सच्चे गर्वबोध का नहीं, एक तल्ख हकीकत का है। संसार की छठी अर्थव्यवस्था भारत और दुनिया के आला अमीरों में अपना नाम गिनाने वाले भारतीय अगर इतनी बड़ी आपदा के समय भी केरल के साथ पूरी ताकत से नहीं खड़े हो पाते तो विदेशी सहायता के बल पर हम केरल को भले बचा लें, इस राष्ट्र को डूबने से नहीं बचा पाएंगे।

स्रोत: नवभारत टाइम्स