क्रिसमस कैरोल पर असहिष्णुता की हद

दिसंबर के महीने में न केवल क्रिसमस का बड़ा त्यौहार   होता है बल्कि उत्सव का मौसम भी, जो पिछले साल को बाय कह रहा है और  नए साल के लिए उत्सुक है। लेकिन अब प्रवृत्ति बदलती जा रही है; क्रिसमस से संबंधित उन समारोह और त्यौहार के सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिन्दूवादी लोग हमला कर रहे हैं और क्रिसमस के माहौल को भयावहता का माहौल बना रहे हैैं।
ईसाई समाज के खिलाफ सतना और अलीगढ़ की हालिया घटनाएं बेहद शर्मनाक हैं। सतना में केरोल गाते ईसाईयों से हिंदुत्व के झंडाबरदारों ने हिंसा की। रही सही कसर प्रशासन ने पूरी कर दी। उसने हिंसा के शिकार पीड़ितों को ही आरोपी बना दिया गया। इधर अलीगढ़ में ईसाईयों की रक्षा के लिए मजिस्ट्रेट को आगे आना पड़ा। संविधान में दिया गया बराबरी का दर्जा और सभी लोग अपने-अपने धर्म को मानने को स्वतंत्र है का अधिकार छिनता सा दिख रहा है।

यहां यह भूलना नहीं चाहिए कि अलीगढ़ में ईसाई स्कूलों को क्रिसमस नहीं मनाने का ‘आदेश’ देने वाला हिंदू जागरण मंच हिंदू युवा वाहिनी से संबंध रखता है। यह वही युवा वाहिनी है, जिसका गठन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया था। ईसाई समुदाय पर इस तरह का अत्याचार कथित धर्मांतरण के नाम पर हो रहा है। भाजपा के सत्ता में आने के बाद ऐसे तत्वों को खुली छूट सी मिल गई है।

असहिष्णुता की हद तो यह है कि इसी महीने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की पत्नी को सिर्फ इसलिए ट्रॉल किया गया, क्योंकि वह एक ईसाई कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंची थीं। यह कार्यक्रम आर्थिक स्तर पर बेहद कमजोर बच्चों के उत्थान के लिए आयोजित किया गया था। इसी राज्य के भाजपा अध्यक्ष आशीष शेलार को भी ऐसे ही एक कार्यक्रम के लिए आलोचना झेलनी पड़ी थी। सोचिए अगर एक राज्य के मुख्यमंत्री की पत्नी या भाजपा अध्यक्ष के साथ ऐसा हो सकता है, तो राह चलते आम ईसाई और मुसलमान की क्या बिसात है।

राजस्थान में विहिप सदस्यों ने क्रिसमस समारोह में बाधा डाली और, हिंदुत्व समूह ने  गायकों पर हमला किया और पुजारी की कार को जला दिया यह पूरे देश में क्रिसमस समारोहों पर हमलों की सूची में से कुछ हैं।  

ईसाईयों की स्थिति पर नजर रखने वाली वैश्विक संस्था ‘ओपन डोर्स’ के मुताबिक साल 2017 की पहली छमाही में ही भारत में रह रहे ईसाईयों पर हमलों के 410 मामले सामने आए। इस आंकड़े की भयावहता ऐसे समझी जा सकती है कि साल 2016 में कुल 441 मामले सामने आए थे।

द गार्डियन’ जैसा प्रतिष्ठित अखबार इसी साल जनवरी में भारत को ईसाई धर्मावलंबियों के लिहाज से खतरनाक देश करार दे चुका है। ऐसे मामलों में भारत 15वें पायदान पर पहुंच चुका है, जबकि 2013 में इस सूची में भारत 31वें स्थान पर था।

 2017 की पहली छमाही में ईसाइयों के विरुद्ध होने वाली घटनाएं पूरे 2016 में हुई घटनाओं के बराबर हैं। विशेष रूप से पिछले दो दशकों से विरोधी ईसाई हिंसा हुई है इस दिशा में सबसे प्रारंभिक कृत्यों में से एक 1995 में इंदौर (एमपी) में रानी मारिया की मौत। इस बात का सबसे भयावह पादरी ग्राहम स्टेन्स को बजरंग दल द्वारा अपने दो निर्दोष पुत्रों के साथ जीवित जला दिया गया था।  1999 में सिंह और अगस्त 2008 में कंधमाल में हिंसा याद दिलाता है कि इससे पहले भी दिसंबर के महीने में ईसाई पर हिंसा किया जाता था। यह प्रवृत्ति अभी तक डांग, फूलबानी, झाबुआ और फूलबानी में हिंसा में प्रिक्रयात्मक थी। दिसंबर आया और वातावरण में ईसाइयों के विरूद्ध  व्यापक छिद्रित हमला शुरू। इस हिंसा का मुख्य प्रसार पश्चिमी (गुजरात) और पश्चिम में कंधमाल (उड़ीसा) में डेंग्स से फैले आदिवासी बेल्ट में रहा है, जो बीच में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासी इलाकों से गुजरता है।  इन दूरदराज के क्षेत्रों में, वीएचपी आदि से जुड़े स्वामीजी ने अपने आश्रम बनाये या ईसाइयों के खिलाफ सक्रिय रूप से नफरत पैदा किया, जैसे डांग में स्वामी असीमानंद, झाबुआ में आसाराम बापू के अनुयायियों और उड़ीसा में लक्ष्मणानंद। ये ऐसे इलाके हैं जहां ईसाई विरोधी हिंसा सामने आयी, इसका नारा ‘हिंदू जागो क्रिस्टी भागो’ लोकप्रिय था। वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिंदू परिषद के साथ, आरएसएस के सहयोगियों ने पिछले दो दशकों में इन क्षेत्रों में उनकी गतिविधियों और प्रचार को बढ़ाया है। जबकि एक ओर, शबरी कुंभ (डांग) और हिंदू संगम जैसे अन्य कार्यक्रमों पर छिटपुट ईसाई हिंसा की घटनाएं हुईं, जबकि आदिवासी को शबरी और हनुमान के प्रतीक के रूप में एकत्रित करने के लिए आयोजन किया गया।

पता नहीं कुछ लोग क्यों भूल रहे हैं कि भारत उसमें रहने वाले हरेक नागरिक का है। ऐसे में अगर एक भी भारतीय महज अपने धर्म को लेकर डरा हुआ महसूस करे, तो इससे ज्यादा शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता है। ऐसी घटनाएं ‘राष्ट्र निर्माण’ भी नहीं होने देंगी।

इन घटनाओं पर प्रभावी अंकुश लगाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को कड़े कदम उठाने ही होंगे। अन्यथा देश की छवि को बट्टा लगता रहेगा।

 

 

राम पुनियानी के लेख से ली गयी कुछ अंश