खेलने कूदने वाले नवाब- पद्मश्री एस. एम. आरिफ़

पद्मश्री एस. एम. आरिफ़ साहब बैंडमिंटन कोच के तौर पर हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि आलमी स्तह पर शोहरत रखते हैं। गोपीचंद, सायना नेहवाल और ज्वाला गुट्टा जैसी कई सलाहियतों को उन्होंने निखारा है। भारत सरकार ने उन्हें द्रोणाचार्य के अवार्ड से नवाज़ा है। बैडमिन्टन को ज़िन्दगी मानने वाले आरिफ़ साहब उम्र की सात दहाइयाँ पूरी कर चुके हैं। इसके बावजूद एल.बी. स्टेडिम का बैडमिन्टन कोर्ट इस बात का गवाह है कि वो घंटों खड़े रहकर अपने शागिर्दों की रहनुमाई करते रहते हैं। 29 जनवरी 1944 में हैदराबाद में पैदा हुए आरिफ साहब ने यूँ तो कई खेलों में अपना दिल लगाया, लेकिन बैडमिन्टन ने उन्हें पूरे मर्द की तरह अपनाया। उनसे हुई बातचीत का कुछ हिस्सा यहाँ उन्हीं की ज़ुबानी पेश है- एफ. एम. सलीम

बचपन
मैं पूरी तरह हैदराबादी हूँ। त़करीबन एक ही घर में हमारा ख़ानदान पिछले 100 साल से रहता है। यूँ बहुत सी यादें बचपन के बारे में हैं। कहते हैं ,..यादे माज़ी अज़ाब है यारब…फिर भी याद करना पड़ता है।

वालिद सय्यद अहमद हुसैन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से थे। टेनिस और हॉकि खेलते थे। उन्होंने खेलों में बचपन से ही मेरी हौसला अफ़ज़ाई की। संडे को घर पर नहीं बैठते, बल्कि दिन भर खेलों में गुज़र जाता था। इतने खेल खेलते कि आप ..मास्टर ऑफ नन.. कह सकते हैं। क्रिकेट, कबड्डीr, चक्री बला, गिल्ली दंडा…हर खेल में `ओवर कान्फिडेन्स’ था। हम समझते थे सारे गेम्स खेल कर हम हीरो हैं, लेकिन बाद में पता चला कि हम से बड़ा बेव़कूफ कोई नहीं था।

फुटबॉल भी खेला। क़द कुछ छोटा था। इसका फ़ायदा उठाकर मैंने एक बार एक खिलाडी की टांग के नीचे से निकलकर गोल बनाया था। अनवारुल उलूम में इन्टर मीडियट में दाखला लिया। यहाँ भी खेलों का बहुत अच्छा माहौल था। यूनिवर्सिटी स्तह के कई मैचों में खेलने का म़ौका मिला। इन्टरमीडियट में आकर ही बैडमिंटन खेलना शुरू किया।

कैम्प की सियासत
हालांकि मैं ओपनर था, इसके बावजूद क्रिकेट कैम्पों में मुझे सब से आखिर में वक्त दिया जाता और जब तक ग्लेज़ बॉल ख़त्म हो जाते थे। लाज़मी बात है कि एक्पोज़र न मिलने पर टैलेंट खत्म हो जाता है। हमने इसकी वज्ह जानने की कोशिश भी की, लेकिन इत्मेनान बख्श जवाब नहीं मिला, इसलिए कैम्प ही छोड़ दिया। टीम सलेक्शन में अजीब तरह की सियासत होती है। तीन या चार नम्बर खिलाड़ी का सलेक्शन करना हो तो उसे पहले नम्बर से लड़ा दिया जाता, भला वह कैसे टिकेगा।

`खेल भी कोई सिखाने की चीज़ है?’
अनवारुल उलूम में पढ़ने-खेलेने के दौरान हबीब उमर साहब ने मुझसे कहा ‘तुम कैप्टन के तौर पर जिस तरह का काम करते हो उससे लगता है कि कोच बन सकते हो।’

उस वक़्त तक कोच का तसव्वुर भी ज़हन में नहीं था। फिर कोचिंग का दौर शुरू हुआ। माँ ने एक बार पूछा,`तुम क्या करते हो?’

मैंने बताया कि कोच हूँ। उन्हें पता ही नहीं था कि कोच क्या होता है। जब उन्हें बताया गया कि कोच खेल सिखाने वाले को कहते हैं। उन्होंने तआज्जुब से कहा था,`खेल भी कोई सिखाने की चीज़ होती है?’

फिर इंस्टिट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स कोचिंग पटियाला के लिए सलेक्शन हो गया। यहाँ हम समझते थे कि मज़े उड़जाएंगे, लेकिन सुबह से शाम तक इतनी मशग़ूलियत थी कि सारे मज़े हवा हो गये।

मेहनत कभी-कभी सलाहियत को पीछे छोड़ देती है
कई बार ऐसा होता है कि मेहनती लोग बासलाहियत लोगों से आगे बढ़ जाते हैं। इसलिए मेहनत का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। आप कोई भी काम मेहनत और लगन के साथ करो तो आगे बढ़ने के लिए कोई नहीं रोक सकता। सलाहियत अपनी जगह है, लेकिन सलाहियत हो और मेहनत से जी चुराए तो मेहनत करने वाले लोग सलाहियत को पीछे छोड़ देते हैं।

इस मामले में सायना और ज्वाला गुट्टा की मिसाल ली जा सकती है। ज्वाला गुट्टा में खेलने की ख़ूब सलाहियत है, लेकिन सायना ने अपनी मेहनत से जगह बनाई है।

हाँ! कुछ मामलों में बासलाहियत लोगों की अहमियत को मानना पड़ता है। मुझे याद है कि जब पहली बार हिन्दुस्तान से बैडमिन्टन को ओलम्पिक में दाखिल किया गया था, उस वक़्त सुरेश का कैरियर डाउन में चल रहा था, लेकिन टीम के लिए उसी का सलेक्शन हुआ। उसके खेल में जादू था। हालांकि उसने कोई बड़ी कामयाबी हासिल नहीं की थी, लेकिन खेल में सभी उसके दिमाग़ की तारफी करते थे। खेल होता भी ऐसा ही है कि यहाँ लम्हों से भी कम वक़्त में सामने वाले की हरकतों को जज करना पड़ता है। न्यूरो मस्कुलर कोआर्डिनेशन की बहुत ज्यादा ज़रूरत है।

जब पद्मश्री मिला
अवार्ड होसला अफ़ज़ाइ का काम करता है। खिदमात की अहमियत को बढ़ाता है। बैडमिन्टन कोच के तौर पर आन्ध्र प्रदेश में पहला पद्मश्री मुझे दिया गया। हालांकि मुझे इसकी कोई उम्मीद नहीं थी। सीनियर ओहदेदार चक्रवर्ती साहब ने इत्तेला दी थी कि मेरा नाम पद्मश्री के लिए रियासती हुकूमत से मर्कज को भेजी जाने वाली फेहरिस्त में शामिल है। इसी बीच मेरे एक दोस्त ने मुझसे पूछा,`आप दिल्ली नहीं गये?’

मैंने उनसे वज्ह जाननी चाही। तो उन्होंने बताया कि पद्मश्री के लिए तो काफी पैरवी करनी पड़ती है। मैंने कहा कि पैरवी करने से बेहतर है कि अवार्ड ही न लूं, लेकिन एक दिन मर्कज़ी वज़ीर ई.अहमद ने इत्तेला दी कि पद्मश्री पाने वालों की फेहरिस्त में मेरा नाम शामिल है।

खेल क़ुर्बानियां मांगता है
हार-जीत के लिए खेला जाने वाला खेल उम्र के एक ख़ास हिस्से तक ही खेला जा सकता है। इसके लिए कई तरह की क़ुर्बानियाँ देनी पड़ती है। बल्कि कई बार तो पसंदीदा खाने की चीज़ों को भी छोड़ना पड़ता है। आराम कम और मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है। कपिल देव जब खेल से रिटायर हुए तो अपनी फेरवेल पार्टी में 25 साल बाद आईक्रीम खाया था। उस वक़्त उन्हेंने कहा था कि वह आईक्रीम का टेस्ट तक भूल गये थे। दूर से तो बड़े खिलाड़ी स्टार दिखाई देते है, लेकिन उन्हें इसके लिए कई क़ुर्बानियाँ देनी पड़ती हैं।

ज़हनी नशोनुमाई करता है खेल
खेल बच्चों की ज़हनी नशोनुमाई करता है। वह उनकी बोरियत ही दूर नहीं करता, बल्कि खेल के बाद उनके पढ़ने और याद रखने की सलाहियत बढ़ जाती है। यही वज्ह है कि अकसर खिलाड़ी स्कूल न जाते हुए भी अपने इम्तेहानों में अव्वल रहते हैं। खेल से बच्चों में डिसीप्लीन भी लाया जा सकता है।

पहले ज़माने में कहा जाता था-
पढ़ोगे लिखोगे तो होंगे नवाब
खेलोगे कूदोगे तो होंगे ख़राब

लेकिन अब यह मिसाल उल्टी हो गयी है। खेलने कूदने वाले नवाब बनने लगे हैं। बच्चों को किसी न किसी खेल में दिलचस्पी बढ़ानी चाहिए। साथ ही इस बात का ख्याल भी रखना चाहिए कि उन्हें कई सारे खेलों के बजाय किसी एक खेल में माहिर बनाया जाए, ताकि उसकी सलाहियत का सही फायदा हो।