गठबंधन की आस में कांग्रेस कर सकती है शीला दीक्षित से यूपी में किनारा

फैसल फरीद
लखनऊ

ऐसे आसार लग रहे हैं और शीला दीक्षित अभी हाल में हुई राहुल गाँधी की बहराईच रैली में भी नहीं गयी थी. वैसे उत्तर प्रदेश के चुनाव से किनारा करने के अलावा शीला दीक्षित के पास कोई चारा नहीं बचा हैं. उनको प्रशांत किशोर की बनायीं हुई स्ट्रेटेजी के अनुसार उत्तर प्रदेश में लाया गया था. पार्टी उनको ब्राह्मण चेहरा प्रोजेक्ट कर रही थी. ब्राह्मण तो एक भी कांग्रेस के साथ आया नहीं. पार्टी शायद भूल गयी थी कि दिल्ली के चुनाव हारने के बाद शीला दीक्षित का कोई राजनितिक महत्व कम से कम उत्तर प्रदेश में नहीं हैं. इधर सहारा डायरी में कथित रूप से उनका भी नाम आने से उत्तर प्रदेश में चुनाव से दूर रहना ही बेहतर होगा.

दूसरी बात वो मुख्यमंत्री चेहरा बन कर आई थी. अब जब कांग्रेस सपा से गठबंधन की इच्छुक है ऐसे में मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी अखिलेश यादव की होगी इसीलिए शीला दीक्षित का रोल भी ख़त्म समझिये. बेहतर होगा कि शीला दीक्षित चुनाव अभियान से दूर ही रहे. वो कोई जनाधार वाली नेता कम से कम उत्तर प्रदेश में नहीं हैं. पार्टी की हवा में जीतने वाली नेता हैं और ऐसी कोई हवा दिखती नहीं हैं.

इधर कांग्रेस ने भी बदले हुए समीकरण में अपने चुनाव अभियान को रोक दिया हैं. शायद सपा से गठबंधन होने की उसकी आस अभी बरक़रार हैं. कांग्रेस में प्रदेश में टिकट फाइनल करने की स्क्रीनिंग समिति भी अभी पूरी नहीं बन पाई हैं. निर्मल खत्री को इसका अध्यक्ष बनाया गया था और इसमें दो सदस्य और बनाये जाने हैं. केवल दो पद अपने आप भर गए हैं क्योंकि वो प्रदेश अध्यक्ष और विधान मंडल दल के नेता के होते हैं. पंजाब में स्क्रीनिंग समिति बन गयी है और टिकट भी घोषित हो चुके हैं. ज़ाहिर सी बात है पार्टी अभी भी गठबंधन की आस में हैं.

रही सही कसार प्रशांत किशोर के किनारे होने से हो गयी. बड़े ताम झाम से आये प्रशांत ने धडा-धड प्रोग्राम करने शुरू किये लेकिन ये तेज़ी कांग्रेसी नेताओ को रास नहीं आई और आखिर में प्रशांत किशोर को किनारे कर दिया गया. वैसे भी प्रशांत किशोर समझ गए थे कि प्रदेश में कांग्रेस का उद्धार संभव नहीं हैं.

कांग्रेस में भी जितने नेता उतनी बातें हो रही हैं. उसके पास कार्यकर्ता बचे नहीं हैं. अकेले लखनऊ में लगभग १०० कांग्रेस के नेता रहते हैं. लेकिन कार्यकर्ता कहीं नहीं रहते हैं. सभी नेता कलफदार कुरता पायजामा पहन कर नेहरु भवन जो कांग्रेस का मुख्यालय हैं वहां पहुच जाते हैं और शायद ही किसी का को क्षेत्र की फ़िक्र हो. ज्यादातर नेता दुसरे दलों के नेताओ से रिश्ते बनाने में रहते हैं ताकि सत्ता में पैठ बनी रहे.

ऐस में हवा हवाई नेताओ के साथ काम करना बहुत मुश्किल होता हैं. कांग्रेस के नेताओ का मानना है की जनता उनको वोट दें और वो केवल बयां जारी करें.

शीला दीक्षित भी कुछ ख़ास कर नहीं पाई थी और इतने दिनों में कोई ख़ास बदलाव नहीं नज़र आया. सिवाई इसके की उन्होंने कुछ सभाओ में शिरकत कर ली हो. इन हालात में लखनऊ में ये बात अब सभी कांग्रेसी कहने लगे हैं की शीला दीक्षित का आगे रहना मुश्किल लगता हैं.