गिरेबान पकड़ कर ‘भारत माता की जय’ नहीं बुलवाया जा सकता

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आजकल एक अलग तरह की बहस इस मुल्क में छिड़ी हुई है, कोई देशभक्त साबित होना चाह रहा है तो कोई दुसरे को देशद्रोही साबित करने की कोशिश कर रहा है. पिछले दिनों मीम के अध्यक्ष असदउद्दीन ओवैसी ने ‘भारत-माता की जय’ कहने से इनकार क्या कर दिया, कुछ ‘छदम-देशभक्त’ उनकी ज़बान तो कुछ उनका गला काटने की बात करने लगे, बिलकुल ये वही लोग हैं जो जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी को बारूद से उड़ाने की बात कर रहे थे. निंदनीय तो ये भी है कि महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधायक को ‘जय-हिन्द’ और ‘जय-हिन्दुस्तान’ कहने के बाद भी एक सेशन के लिए बर्ख़ास्त कर दिया गया क्यूंकि उसने ‘भारत-माता की जय’ बोलने से मना कर दिया. इससे अलग या इससे जुडी हुई एक और घटना है वो अभी पिछले दिनों की है हमारे शहर की लखनऊ यूनिवर्सिटी में जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने यूनिवर्सिटी के कैलाश महिला-छात्रावास की प्रोवोस्ट के समर्थन में उत्पात मचाया और बसे जलायीं तो उन्हें जैसे ही रोकने की कोशिश पुलिस ने की उन्होंने ‘भारत-माता की जय’के नारे लगाना शुरू कर दिए, इससे समझ आता है कि ‘भारत-माता की जय’की आड़ में लोग क्या-क्या करने की कोशिश कर रहे हैं.

इतिहास के आईने को देखें तो ‘भारत-माता’ शब्द पहली बार 19वीं शताब्दी में किरण बन्नार्जी के नाटक ‘भारत-माता’ में सुनने को मिलता है. ये नाटक 1873 में प्रसारित किया गया. इसी तरह का एक और विवाद जुदा है वन्दे-मातरम्बं से, बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के विवादास्पद नावेल ‘आनंदमठ’ में ‘वन्दे-मातरम्’ का ज़िक्र आया जो ‘बंगाल के बंटवारे’ के बाद अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ अभियान में क्रांतिकारियों का नारा बना. ये दोनों नारे अपने आप में विवाद कैसे बन गए, आइये समझते हैं.

असल में वन्दे मातरम् और भारत-माता का विवाद एक दुसरे से काफ़ी हद तक जुड़ा हुआ है. जिन लोगों ने भारतीय इतिहास को नहीं पढ़ा है अक्सर वो इस विवाद को विवाद मानना नहीं चाहते और बजाय इस पर सधी हुई चर्चा करने के उद्दंडता दिखाते हुए राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह की बेमतलब की बहस में पड़ जाते हैं. वन्दे-मातरम् में जिस वंदना की बात की जा रही है वो असल में भारत देश की नहीं बल्कि दुर्गा-माँ की वंदना की बात है और इसमें कोई दो राय नहीं कि दुर्गा माँ हिन्दू धर्म का प्रतीक हैं और पूजनीय हैं. असल में बहस यहीं पे शुरू हो जाती है क्यूंकि हमारा देश जो कि कई तरह के धर्म और लोगों से बना है उसमें किसी एक धर्म के प्रतीक को देश का प्रतीक कैसे माना जा सकता है, हाँ प्रतीक अगर सारे धर्मों के हों तो चर्चा आसान हो.वन्दे मातरम् का विरोध करने वालों में मुसलमान की एक बड़ी आबादी रही है और उसके पीछे एक कारण आनंदमठ नावेल का कुछ हिस्सों में मुस्लिम विरोधी होना भी है. यही कारण है कि राष्ट्रगान ‘जन-गन-मन’ के रचयिता रबिन्द्र नाथ टैगोर ने भी वन्दे मातरम् को देश का गीत बनाने की बात पसंद नहीं की थी.टैगोर ने कहा था कि “दस हाथों की देवी को कैसे कोई मुसलमान देश मान सकता है?इस साल कई मैगज़ीन ने दुर्गा पूजा के स्पेशल एडिशन में वन्देमातरम का प्रयोग किया है जो बताता है कि वन्देमातरम माँ-दुर्गा से किस क़दर जुड़ा है.आनंदमठ में इसका(वन्दे-मातरम्) इस्तेमाल जायज़ था लेकिन संसद में हर धर्म के लोग होते हैं और वहाँ ये गीत ठीक नहीं है.

वन्दे-मातरम् को राष्ट्रगान बनाने का विरोध करने वालों में मुसलामानों के अलावा सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेता भी रहे हैं तो क्या अब सुभाष चन्द्र बोस और रविन्द्र नाथ टैगोर से भी बड़े देशभक्त हो गए ये ‘छदम-देशभक्त’. ‘भारत-माता की जय’ नारे का कांसेप्ट पूरा पूरा वन्दे-मातरम् पे आधारित है और ‘वन्दे-मातरम्’अपने आप में बहस का मुद्दा रहा है.

सही मायनों में देखा जाए तो इस पर बहस नहीं होनी चाहिए, अगर कोई बोलना चाहता है तो ये उसका मत है और अगर कोई नहीं बोलना चाहता तो भी ये उसकी मर्ज़ी है लेकिन हाँ ये ज़रूर है, किसी का गिरेबान पकड़ कर आप ‘भारत-माता की जय’नहीं बोलवा सकते, ये हमारे संविधान की मूल विचारधारा के ख़िलाफ़ है.मशहूर गीत-कार जावेद अख्तर ने हाल ही में अपने फेयरवेल स्पीच में कुछ बातें कहीं जिनमें से कुछ बातों पे मैं इत्तेफ़ाक़ भी रखता हूँ लेकिन जो उन्होंने भारत माता की जय बोलने के समर्थन में कहा कि संविधान में तो शेरवानी और टोपी पहेनना भी नहीं लिखा है, यहाँ मेरी राय जावेद साहब से अलग है क्यूंकि अगर बात संविधान की करें तो संविधान में इंसान को ‘पर्सनल लिबर्टी’ दी गयी है,आर्टिकल 21 में बताया गया है कि क़ानून के दायरे में इंसान जो चाहे पहन सकता है और जो चाहे अपनी ज़िन्दगी में कर सकता है लेकिन एक देश की बात जब आती है तो देश क्या है किस तरह इसकी बनावट है, कैसे बसावट है और क्या राष्ट्रगान है और क्या ज़ुरूरी है ये सब संविधान में मौजूद है और जो नहीं मौजूद वो इसी लिए नहीं मौजूद क्यूंकि वो ज़ुरूरी नहीं है. और फिर जो नारा लोग ख़ुशी से नहीं बोल सकते उस नारे का क्या मतलब. मेरे पास मेरा एक नारा है और उसी से मैं इस लेख का अंत करता हूँ .. “जय हिन्द”

(अरग़वान रब्बही)