गिलानी के ख़िलाफ़ फ़र्द-ए-जुर्म

पाकिस्तान में दस्तूर की बलादस्ती के मुज़ाहरा ( प्रदर्शन) के दौरान ये ख़्याल नहीं किया जाता कि मुल्क के हालात पर इसके क्या मनफ़ी असरात मुरत्तिब ( संग्रह करने वाला) होंगे और सुप्रीम कोर्ट के रोल के बारे में यही कहा जा रहा है कि ये अदालत जब कोई फ़ैसला सुनाती है इस के सयासी मुज़म्मिरात भी फ़ौरी ( फौरन) असर दिखाने लगते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने तहक़ीर ( अपमान) अदालत के मुआमले में वज़ीर-ए-आज़म यूसुफ़ रज़ा गिलानी को मुर्तक़िब ( दोषी , पापी) पाया है तो उन्हें ओहदा से इस्तीफ़ा देने और 6 माह जेल की सज़ा काटने के लिए तैयार रहना है।

पाकिस्तान की सयासी ज़िंदगी में आईन की बालादस्ती का जहां तक सवाल है इस का ख़ास मौक़ा पर ख़ास मुज़ाहरा होता है। मगर ये पहली मर्तबा है कि आईन (कानून, कायदा) की रोशनी में सुप्रीम कोर्ट ने मुल्क़ के वज़ीर-ए-आज़म पर फ़र्द-ए-जुर्म (अप्राध सूची) आइद ( पलटने वाला) किया है। रिश्वत सतानी, बैरूनी मुल्कों में दौलत जमा रखने के मसला पर सदर आसिफ़ अली ज़रदारी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का हुक्म देने में सुप्रीम कोर्ट ने वज़ीर-ए-आज़म की नाकामी को अपनी तौहीन तसव्वुर (कल्पना) करके उन पर चार्ज शीट पेश की है तो उसे तहक़ीर अदालतें की कई सूरतों हर रोज़ रौनुमा होती हैं मगर इस का कोई ख़ास नोट नहीं लिया जाता।

यूसुफ़ रज़ा गिलानी पर क़ानून का शिकंजा कसने का मतलब यही है कि पाकिस्तान में फिर एक बार फ़ौजी ताक़त को आगे लाने की तैयारी की जाए। वज़ीर-ए-आज़म यूसुफ़ गिलानी ने अपने केस के सिलसिला में एक माह के अंदर दूसरी मर्तबा सुप्रीम कोर्ट में हाज़िरी दी और ख़ाती (जान बूझ् कर अपराध करने वाला) ना होने की इस्तिदा(गुजारिस, प्रार्थना, निवेदन) की लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सात रुकनी बंच ने इस अमर का सबूत दिया कि पार्लीमैंट, क़ानूनसाज़ इदारे के तौर पर कितनी ही मज़बूत और ताक़तवर हो हक़ीक़ी ताक़त और हुक्म सादर करने का इख्तेयार तो सुप्रीम कोर्ट को है।

अदालत ने जब ये हुक्म दिया था कि सदर आसिफ़ अली ज़रदारी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का क़दम उठाया जाए तो वज़ीर-ए-आज़म ने इस हुक्म की तामील ( हुक़्म मानना) नहीं की। बज़ात-ए-ख़ुद अदालत ये कार्रवाई इस लिए नहीं कर सकती थी क्यों कि पाकिस्तान का दस्तूर सदर को मुवाख़िज़ा की इजाज़त नहीं देता। इस मुल्क के आईन के असतसनाई शक़ की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने रास्त (सीधा) सदर के ख़िलाफ़ ऐक्शन नहीं लिया अलबत्ता वज़ीर-ए-आज़म को इस का पाबंद बनाया गया कि वो सदर के ख़िलाफ़ कार्रवाई करें।

हुकूमत और अदलिया ( न्याय करने वाला महीकमा) के टकराव की वजह से आज पाकिस्तान में जिस तरह की सूरत-ए-हाल पैदा कर दी गई है इस के लिए अगर सदर आसिफ़ अली ज़रदारी ज़िम्मेदार हैं तो आने वाले दिनों में फ़ौज का रोल क्या होगा ये वक़्त ही बताएगा।

फ़िलहाल पाकिस्तान के क़ानून दानों और मुक़न्निना-ओ-इंतिज़ामीया के दरमयान ये बेहस ज़ोर पकड़ेगी कि आख़िर सदर को आईन ( कानून) के इस्तिस्ना (अपवाद) के बाइस कटहरे में क्यों नहीं पेश किया जा सकता इस के बजाय वज़ीर-ए-आज़म को मौरिद इल्ज़ाम क्यों क़रार दिया जा रहा है।

ये बात वाज़िह है कि पाकिस्तान में हर कोई दस्तूर की किसी भी शक़ की मनमानी तशरीह के लिए ज़ोर दे सकता है लेकिन इस का कोई ख़ास नोट नहीं लिया जाता बल्कि अदालत की जानिब से आईन की किसी भी शक़ की तशरीह की जाती है तो उसे ही ताबीर मुस्तनद ( भरोसे मन्द) और मोतबर (जिसका विश्वाश हो) ख़्याल की जाती है।

मुवाख़िज़ा से बचाने के लिए सदारती इस्तिस्ना से ताल्लुक़ रखने वाली आईनी शक़ पर इस से पहले भी मुबाहिस हो चुके हैं मगर इस का कोई हतमी नतीजा बरामद नहीं हुआ। जिस मुल्क में पहले ही से इस्तिस्ना-ए-की कैफ़ीयत पाई जाती है और अदम इस्तेहकाम के बढ़ते वाक़ियात में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला पाकिस्तान को किस सिम्त ले जाएगा ये कहना मुश्किल है।

मेमो गेट के मसला ने आसिफ़ अली ज़रदारी को कमज़ोर मौक़िफ़ दिया है तो पाकिस्तान की दीगर सयासी पार्टीयां ख़ासकर तेज़ी से उभरते लीडर इमरान ख़ान ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसला के बाद पाकिस्तानी अवाम के ज़हनों को तबदील करने की अपनी मश्क़ में शिद्दत पैदा करेंगे। अमेरीका के ड्रोन हमलों से परेशान अवाम को अपने मुल़्क की सलामती की फ़िक्र करनी है जो सयासी ताक़तें और तंज़ीमें हुकूमत के ख़िलाफ़ मोरचा बना रही हैं तो फिर एक बार पाकिस्तान में जज़बाती सियासत और फ़ौजी ताक़त के मुज़ाहरा के मुनाज़िर दोहराए जा सकते हैं।

अपोज़ीशन पार्टी की हैसियत से नवाज़ शरीफ़ की मुस्लिम लीग भी अब जमहूरीयत के नाम पर सयासी सरगर्मी में तेज़ी पैदा करेगी लेकिन कहा जाता है कि पाकिस्तान में जो भी सयासी पार्टीयां हैं इन का रीमोट कंट्रोल फ़ौज के हाथ में होता है। आगे के हालात को सयासी नुक़्ता-ए-नज़र से निमटा लिया जाएगा या जमहूरी ( सार्वजनिक) तर्ज़ (ढंग) की हुक्मरानी के लिए बेहतरीन इंतिख़ाबात करवाए जाऐंगे या फिर फ़ौज बैरक़्स से निकाल कर पाकिस्तान के क़ानूनी जमहूरी और दस्तूरी इदारों पर बैठ जाएगी।

ये सब सुप्रीम कोर्ट के क़तई फ़ैसला और वज़ीर-ए-आज़म यूसुफ़ रज़ा गिलानी के इस्तीफ़ा के बाद की सूरत-ए-हाल होगी। फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट ने अटार्नी जनरल अनवर उल-हक़ को इस्तिग़ासा के तौर पर मुक़र्रर करके मुक़द्दमा को आगे ले जाने का क़दम उठाया है। वज़ीर-ए-आज़म पर दस्तूर के आर्टीकल 204 की ख़िलाफ़वर्ज़ी करने का इल्ज़ाम आइद करते हुए जज नासिर उल-मलिक ने अपने दो सफ़हात के फ़ैसला में यही बताया है कि वज़ीर-ए-आज़म ने सदर आसिफ़ अली ज़रदारी के ख़िलाफ़ रक़ूमात की मुंतक़ली के केस को दोबारा शुरू करने के लिए सोइस अथारीटी को मकतूब नहीं लिखा।

अगर यूसुफ़ रज़ा गिलानी इस हुक्म की तामील करते तो मुवाख़िज़ा से बच सकते थे। सदर के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए सोइस हुक्काम को मकतूब लिखने का मतलब सयासी तौर पर यही होता कि क़सर सदारत की नाराज़गी मोल लेनी पड़ती और वज़ीर-ए-आज़म को बहरहाल अदालत का फ़ैसला ना मानने और क़सर सदारत की नाराज़गी का ख़्याल रखने के दरमयान पाकिस्तान के हालात पर ग़ौर करना ज़रूरी है।