गुजरात के मतदाता वोट देने के पहले किन मुद्दों पर सोचे और तय करें: मेधा पाटकर

एक युवा किन्तु अनुभवी पत्रकार ने गुजरात चुनाव के माहौल में दक्षिण गुजरात का दौरा किया| मेरे पूछने पर कि “क्या लगा? सम्भावना क्या है?” उसका जवाब था- “ताई, सही मुद्दे उठाने वाले, लोगों तक हकीकत पहुँचाने वाले ही नहीं है, चुनाव के प्रचार-कार्य में| मुझे भी पूरे सवाल, स्थिति बताने के लिए कोई मिल नहीं रहे थे तो फिर बताइये, मतदाताओं को जाग्रत करने वाले भी तो कौन हैं?”

दक्षिण गुजरात का क्षेत्र आदिवासियों का है| आदिवासियों के सवाल कहे तो उनमे क्या कमी हैं? बुनियादी सवाल उठाने वालों का इस बार चुनाव में बिलकुल ही अभाव है| क्यों? क्योंकि विरोधी दल रही कांग्रेस ने ही अगर चुप्पी साध ली और हर सवाल पर उनके सामने खड़े रहना छोड़ दिया तो मोदीजी के मन की बात ही सबकी बात बनकर फैलेगी नहीं तो क्या?

नर्मदा की ही हकीकत लीजिये| ‘पिछले 5 सालों में हमारी सबसे बड़ी हासिली नर्मदा परियोजना पूर्ण करनी हुई है’ यह नितिन पटेल, भाजपा अध्यक्ष का वक्तव्य आकर करीबन 20 दिन हुए लेकिन उसके धज्जे उड़ाने वाला जवाब गुजरात में एक से भी सुनाई नहीं दिया| गुजरात के ही विस्थापित, जो सहयोग और समर्थन के लिए तरसते रहते हैं, वे भी चकित होकर रह गए| दक्षिण गुजरात में तो नदी एक ही नहीं, कई हैं ….. पर उनपर ध्यान देने, उनके बदलते चित्र और घाटी के लोगों के साथ हो रहे न्याय – अन्याय की बात समझकर चुनावी दलों ने उठाया होता तो उकाई, करझन, नार – पार और नर्मदा के भी, विकास के नाम पर उजाड़ते गए आदिवासियों की हकीकत से ‘गुजरात मॉडेल’ की  पोल खोल हुए बिना नहीं रहती|

इनके साथ संघर्ष करने वाले चुनावी रण मैदान में नहीं हैं और चुनावी अजेंडा पर ‘विकास’ एक मंत्र जरूर बन गया है, लेकिन उस पर बहस का तंत्र विकसित नहीं है| एक भी परियोजना के विस्थापितों का पुनर्वास संपूर्ण एवं न्यायपूर्ण न होने की जिम्मेदारी, मोदी शासन को जवाब देने के लिए मजबूर कर सकती है, इतना ही नहीं इन परियोजनाओं के लाभ-लागत के हिसाब पर, उनके लाभों के बंटवारे में अन्याय और कॉर्पोरेटस के पक्ष में बदलाव पर सवाल खड़े करते, तो भी सच्चाई सामने आती|

नर्मदा का ही नहीं, हर बाँध और विकास परियोजनाओं के लाभों के दावे झूठे साबित होने पर क्या गुजरात की जनता ‘मॉडल’ के भ्रम में ही लपेटी रहती? कभी नहीं| सरदार सरोवर पूरा करने का श्रेय लेने वालों ने मनमोहन सिंह जी को बाँध आगे बढाने कि मंजूरी कुछ सालों तक न देने के लिए बहुत कोसा लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री की ओर से सर्वोच्च अदालत के पुनर्वास म.प्र. शासन से पूरा न होने के कारण बाँध रोकने का आदेश उजागर नहीं किया गया? इसीलिए मोदीजी बाँध कि ऊँचाई बढाने कि मन्जूरी मांगने उन के पास गये थे या नहीं, यही मुद्दा बनकर रह गया| मध्य प्रदेश में पुनर्वास के नाम पर भाजपा सरकार ने ही सैकड़ो करोड़ रु. का भ्रष्टाचार किया, यह बात तक नहीं उठायी गयी| किस चीज का डर था विरोधियों में?

बात मात्र विस्थापितों की नहीं, आदिवासी समाज हो या दलित, गुजरात शासन ने, 1990 के पहले मुख्यमंत्री रहे अमर सिंह चौधरी जी के बाद कभी अपने राज्य के इन तबको से उभरे नेतृत्व के साथ संवाद नहीं किया| वही हकीकत है, मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार की भी| हार्दिक पटेल के ओबीसी समाज के साथ भी न केवल मतभेद बल्कि अत्याचारी रुख अपनाने वाली मोदी सरकार की भर्त्सना, नोटबंदी या जीएसटी   के जैसे मुद्दों पर जितनी हुई, उतनी इन मुद्दों पर नहीं| अस्मिता के सवाल खड़े करने वाली भाजपा ने जिस प्रकार से अस्तित्व के सवालों को नकारा है, उसके चलते चुनाव में न केवल मनरेगा के लिए सही बजट आवंटन की, बल्कि जरूरतमंद तबकों को भूमि और जल आवंटन की बात भी चोटी पर पहुँचाना जरूरी था और आज भी हैं |

अगर यह होता तो पूर्व सत्ताधीशों का भ्रष्टाचार एक अहम् मुद्दा बनाने वाली मोदी – गुजरात शासन की तिजोरी भी भ्रष्टाचार के कई प्रकरणों से भर सकता था विपक्ष ! लेकिन गुजरात में अडानी को 1800 हेक्टर्स जमीन दान करने का एवं मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाले का मुद्दा क्यों नहीं बना पायी कांग्रेस इसी चुनाव में? महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने आदिवासी क्षेत्र में भी  PESA  कानून का अमल रोककर, ग्राम सभा का अधिकार रद्द करवाकर, मुंबई-नागपुर ‘समृद्धी मार्ग’ जैसी परियोजना का रास्ता खुलवाया लेकिन इसका आधार लेकर आदिवासी विरोधी चली भाजपा को दोषी ठहराने के लिए प्रयास पर्याप्त मात्रा में नहीं किया गया| क्यों ?

गुजरात की पार – नार – तापी योजना से न केवल विस्थापन बल्कि नदियों की उलथ पुलथ नियोजित हैं; जिसको उजागर करते हुए, दक्षिण गुजरात के नर्मदा से समुन्दर तक के मच्छीमारो के साथ साथ नदियों का पानी जिन शहर वासियों को पिलाया जा रहा हैं उन्हें भी नर्मदा तक का अंत और प्रदूषण के मुद्दे पर जगाना जरूरी व संभव था, लेकिन नहीं हुआ|

देश भर उठा किसानों का आक्रोश कर्ज माफ़ी के मुद्दे पर गुजरात के चुनाव प्रचार में कुछ हद तक प्रतिबिंबित हुआ, लेकिन पूर्ण रूप से नहीं| खेतीहरों की संख्या बहुत अधिक होने पर भी उनकी वंचना ही क्या, गुजरात में ही हो रही हजारो किसानों कि आत्महत्या, एक दूसरे कि आलोचना का मुद्दा बनाने के लिए हिम्मत जुटानी थी जो विपक्ष ने नहीं जताई|

आखिर यह क्यों ? इसके 3 प्रमुख कारण निम्न अनुसार हैं –

१)     कई सारे आर्थिक मुद्दों पर, जिनमे जीएसटी तथा कॉर्पोरेटीकरण भी कुछ हद तक शामिल हैं, यूपीए के निर्णय और मोदी सरकार से उन्हें बर्बरतापूर्वक आगे ले जाना, दोनों में रही कुछ समानता कहीं न कहीं विपक्ष को अटकाती रही| इसलिए भाजपा की पलटवार से डरते हुए वे ईच- बीच का रुख अपनाते रहे|

२)     विकास परियोजनाओ के सम्बन्ध में कहीं भी सत्ता में रहे राजनीतिक दलों कि भूमिका कम-अधिक समान अवधारणा पर आधारित होते हुए इस चुनाव में गुजरात मॉडल का पूर्ण धिक्कार विपक्ष को शायद मुश्किल लगा| इसीलिए तो वंचित या विस्थापित आदिवासी या आत्महत्याग्रस्त किसानों का नजरिया ‘विकल्प ’ के रूप में चुनाव अजेंडे पर लेना शायद उन्हें सहजसंभव महसूस नहीं हुआ| क्षेत्रवार कहीं कहीं, जैसे नर्मदा जिले में, कांग्रेस नेताओं ने लोगो को पुनर्वास के मुद्दों पर आश्वासित जरूर किया किन्तु मोदी सरकार का ‘विस्थापनवादी विकास’ का चरित्र वे ध्वस्त नहीं कर पाए| गुजरात के विकास मॉडेल में खेती का उद्योगों को हस्तांतरण, नर्मदा सहित पानी का भी उन्हें दिया जा रहा तोहफा; खेती को घाटे का सौदा बनाये रखने की अर्थ नीति, तथा उद्योग और खेती के बीच की गैर बराबरी जैसे मुद्दे चुनाव के दौरान नहीं बना पाए हैं कई सारे उम्मीदवार| इसी का नतीजा रहा कि मोदी सरकार को इन पर जवाब देना ही जरूरी नहीं हुआ| अगर होता तो मोदीजी जीएसटी की तरह एमएसपी पर भी घोषणा जरूर करते|

३)     धर्म की राजनीति को जवाब, संविधान में अधोरेखित किये गए धर्म निरपेक्षता के मूल्य के आधार पर ही दिया जा सकता हैं| लेकिन उसके बदले बहुसंख्यको कि वोट बैंक भी जितनी हो सके अपने पक्ष में रहें इसलिए सॉफ्ट हिंदुत्व का आधार विपक्ष ने भी भरपूर लिया| हर मंदिर जाने के बदले, धर्म को विकृत करने वाली, हिन्दू या मुस्लिम किसी भी मजहब के मूलतत्व के ही विरोधी हिंसा को स्पष्ट रूप से नकारते तो राजधर्म निभाया जाता जरूर! मोदीजी ने हर मुल्ला और मौलवी से मुलाकात की, उनसे स्पर्धा के बदले स्पष्ट भूमिका, भाजपा का ढकोसला तोड़ फोड़ देती| राना अयूब या आर. बी. श्रीकुमार जैसे की पुस्तकों द्वारा गुजरात दंगों कि खोज, राजनीति में अपराधी तत्वों कि पोलखोल, बड़ी चुनौती साबित होती! गुजरात चुनाव में विपक्ष कि रणनीति से  मिली राहत तो जल्दी ही सामने आएगी किन्तु चुनाव के आगे चलकर देश का संविधान एवं देश में शांति अहिंसा और न्यायपूर्णता बनाये रखने की चुनौती बाकी रहेगी ही| आखिर न यह चुनाव अंतिम है – न ही 2019 का !

चुनावी प्रचार में हर मुद्दे पर, जैसे नर्मदा के, कांग्रेस को आड़े हाथ लेने वाली भाजपा को करारा प्रतिरोध का सामना ही नहीं करना पड़ा| इन सभी मुद्दों के साथ धड़ल्ले से भिडंत और अभ्यासपूर्ण प्रचार उठाने के लिए जरूरी थी धरातल से जुड़ाव के साथ रणनीति लेकिन उसी के न बनने का एक कारण हमने ही नहीं, हमारे पत्रकार मित्रो ने भी जाना और समझा; वह था हिम्मत का अभाव| वोट बैंकों को धक्का पहुचने का डर विपक्ष कि रणनीति को कई मुद्दों पर कमजोर बनाता रहा, जैसे कि विकासवाद या हिंदुत्ववाद व सांप्रदायिक या विकास के नाम पर बढ़ रही हिंसा|

संवैधानिक मूल्यों को तोड़ मरोड़ कर भी हिंसा को आगे बढाने वाली भाजपा आज भी चुनौती दे रही हैं जबकि दूसरी ओंर उसका पर्दाफाश करने में गुजरात में प्रमुख विपक्ष बनी रही कांग्रेस कमजोर पड़ रही हैं| सोशल मीडिया ही नहीं तो अपनी पूरी प्रचार यंत्रणा का भरसक उपयोग करने वाली भाजपा, किसी नए सच्चे मुद्दे को भी खुद के पक्ष में पलट देगी यह सम्भावना व अपनी ही सत्याग्रही क्षमता पर संदेह व्यक्त करने वाले विरोधक प्रचार में भी डरते रहे, यह बात विशेष|

इन्ही कारणों से देश भर में बदले माहौल के बाद हो रहा प्रतिरोध, मोदी सरकार एवं नीतियों के विरोधी जनता के जागरण तथा उसी से अपने मतदाताओ की जनशक्ति  भक्कम बनाने की असमर्थता गुजरात चुनाव के पहले चरण तक भरपूर दिखाई दी, इसे नकार नहीं सकते| 9 दिसम्बर 2017 का मतदान और उससे तत्काल प्रचारित होते फैसाने के अंदाज, इसी पार्श्वभूमी पर, और एक नया मुद्दा बनकर उभरेगा यह निश्चित| फिर भी पहले चरणमें  होने जा रहे मतदान के बाद, दूसरी फेरी के पहले मिलने वाला कुछ दिनों का अवकाश यह चेतावनी देता है कि, आज नहीं तो कभी नहीं|

क्या चुनाव प्रसार जैसे मोर्चे पर भी एक आन्दोलनकारी रुख अपनाकर बुनियादी मुद्दों को जनजन के सामने कभी हिम्मत से पेश किया जायेगा? जन आन्दोलनों के साथीगढ़, गुजरात के हो या बाहर के, इसपर जरूर ध्यान दे ताकि न केवल चुनावी राजनीति की मर्यादा समझ सके बल्कि दो चुनावों के बीच लगातार होते रहे जन जागरणों के साथ, चुनावी राजनेताओं को भी वैचारिक चुनौती देने का कार्य करे| चुनावी तंत्र में शामिल होकर आन्दोलन समा न जाए, किन्तु चुनाव द्वारा हमारे नजरिये का, संवैधानिक व मानवीय अधिकार के पक्ष में साथ, अपने आदान-प्रदान, संवाद व समन्वय के बारे में भी अधिक गहरा सोच विचार करे|

गुजरात चुनाव के दूसरे चरण और निर्णय के बाद, चुनाव सुधार से लेकर चुनावी राजनीति और जनांदोलनों के बीच के संबंधो पर भी समविचारी साथी कड़ी बहस करे, यह बेहद जरूरी है|

-मेधा पाटकर