गुजरात दंगों के 15 साल : विधवाओं की आवाज बनी 25 परिजनों को खोने वाली नसीम शेख

27 फरवरी 2002 का वो दिन ज़हन में आते ही वो सिहर उठती है। 15 साल गुजर गए हैं लेकिन नफरत की आंधी के शिकार हुए अपने 25 परिजनों को नहीं भूल पाई है। इस नफरत का आगाज गोधरा के पास साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 डिब्बे को आग लगाने से हुआ था जिसमें करीब 790 मुसलमान और 254 हिंदू मारे गए जबकि सैंकड़ों लापता थे। अफवाहें उड़ीं और देखते ही देखते दंगे भड़क गए। मुसलमानों की खोज खोजकर हत्या की गई। उनके घर, दुकानें सब जला दी गईं। मौत का यह खेल तीन दिन तक चला। लाशें गिरती रहीं लेकिन गुजरात पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।
31 वर्षीय नसीब बहन मोहम्मद भाई शेख ने परिवार के 25 सदस्यों को इन दंगों में खो दिया था जिसमें उसके पति, बेटी, उसके माता-पिता और रिश्तेदार भी शामिल थे। एक भाई और बीटा बचा जो उसके साथ हैं। पिछले 15 साल से वह विधवा की जिंदगी व्यतीत कर रही है लेकिन हिम्मत नहीं हारी है। शुरुआत में वह खुद को कमजोर समझती थी लेकिन अब विधवाओं के लिए गोधरा के निकट देलोल में बनाई गई कालोनी में 21 कमरों वाले अपार्टमेंट में वह सबकी रहनुमा बन गई। वह अन्य विधवा महिलाओं के लिए उनकी आवाज बन गई।
वह उनसे कहती थी कि वे अपना बहुत कुछ खो चुकीं हैं लेकिन अब अपने बच्चों और खुद के लिए जीएं। अपने बच्चों को पढ़ाएं ताकि वे अपने पैरों पर खड़े होकर आपका सहारा बने। नसीब के अनुसार गुजरा हुआ वक़्त भूल नहीं पाती हैं। जब उन दिनों को याद आती हैं तो कहती हैं कि पति, बच्चे, माँ-बाप, रिश्तेदार सभी तो चले गए हैं, रोजी का कोई सहारा नहीं है ऐसे में वह कैसे जिंदगी गुजर करेगी। उस अकेलेपन को दूर करने के लिए यहाँ विधवाओं के साथ उनका हौंसलाअफजाई करते हुए वह खुद भी जीना सीख गई है।

संयोग ऐसा कि इन दंगों के पहले दिन 27 फरवरी 2002 को उसको सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहाँ उसको बेटा पैदा हुआ जो आज उसके साथ है। उसके पति मोहम्मद भाई ऑपरेशन के बाद शाम को अस्पताल आये लेकिन नहीं बताया कि उनका घर लूट लिया गया था। वो केवल एक टिफिन में घर का बना खाना लाये थे। स्वास्थ्य पूछने के बाद मेरा हाथ पकड़ा।
दंगों के दौरान भीड़ उस अस्पताल भी आई थी जहाँ वह भर्ती थी लेकिन दंगाइयों को देख वह बेहोश हो गई और जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। उसके जीवन को बचाने के लिए उसको साड़ी पहनाकर माथे पर एक बिंदी लगा दी गई और मांग में सिंदूर भर दिया गया। उसका बेटा बिस्तर पर ही था। दंगाइयों की भीड़ मुस्लिम रोगियों को तलाश कर रही थी।
डॉक्टर ने जब भीड़ को आश्वस्त किया कि वह एक हिंदू औरत है तो वो चले गए। अस्पताल के डॉक्टर हसमुख मची स्त्री रोग विशेषज्ञ थे जिन्होंने नसीब के परिवार की महिलाओं का इलाज किया था। उस वक़्त तक उसके सभी रिश्तेदार सुरक्षित थे। लेकिन कर्फ्यू और अनियंत्रित हिंसा की वजह से उनका पता नहीं चला।

अस्पताल से बाद छुट्टी डॉ हसमुख उनको अपने घर ले गए तथा इलाज किया। हिंसा के बीस दिन बाद उसको पूरी घटना का पता चला। उनके घर को दंगाइयों ने तबाह कर दिया था। उनके पति के पास काम करने वाले आदिवासी श्रमिकों उनकी झोपड़ियों में 11 महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को तीन रातों के लिए आश्रय दिया। फिर उन्हें कलोल, गांधीनगर में राहत शिविर के लिए अपने परिवारों को शिफ्ट करने के लिए सलाह दी।

पूरा परिवार उस शाम को वहां के लिए निकल पड़ा। वे थोड़ी ही दूर गए थे कि घाट लगाकर तलवारों से लैस दंगाइयों की भीड़ ने पुरे परिवार को घेर लिया। पहले उनकी मां और भाभी का सिर काट दिया। फिर पति पर हमला किया। उनकी 12 वर्षीय बेटी की बेरहमी से हत्या की। इस तरह एक के बाद एक दंगाइयों ने नौ लोगों को तलवारों से काट दिया और दो छोटे बच्चों को जला दिया।

पीड़ितों को राहत या भोजन देने के लिए सरकार ने मना कर दिया था। एक सप्ताह के बाद नसीब शिविर में पहुंची। वह अपने दादा को याद करते हुए कहती है कि उनके पास कृषि वाली 100 बीघा जमीं थी और उनके पास 20 लोग काम करते थे। उन्होंने तीन बार हज किया था। तीन ट्यूबवैल थे जिसमें से एक से गाँव को निशुल्क पीने का पानी देते थे। पूरे गांव में जात-पात का भेदभाव नहीं था।