गुलबर्ग सोसायटी को जलाने वाले,लाशों के अम्बार लगाने वाले, जुर्म सबूतों के साथ साबित हो जाने के बाद भी अगर दोषियों को अदालत के द्वारा किसी को सात साल या किसी को अजीवन कारावास की सज़ा सुनायी जाती है तो देशवासियों का माननीय उच्चन्यायालय से ये प्रश्न अवश्य बनता है कि फॉंसी की सज़ा आख़िर संविधान में किस आधार पर दी जाती है , संविधान की आख़िर वो कौन सी धारा है जिसमें एकतरफ तो अफज़ल गुरू को आतंकवादी होने के मात्र शंका पर तथा याकूब मेमन के द्वारा दायर की गयी उसकी दया याचिका को ठुकरा दोनों को फांसी पर लटका दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ गुलमर्ग के कातिलों के साथ जिनपर जुर्म साबित हो चुका है उनके साथ नर्मी बरती जाती है तथा उनको फांसी की सज़ा से दूर रखा जाता है ।
गुलबर्ग के फैसला आने के बाद से ही एक बार फिर ये चर्चा का विषय बन गया है कि क्या अदालतों ने इंसाफ से पहले कहीं न कहीं धर्म को टटोलना चालू कर दिया है । कोर्ट आख़िर आतंकवाद की क्या परिभाषा तय कर रही है ? नोऐडा के निठारी कांड में मासूम बच्चों से पहले बलात्कार उसके बाद उनको काटकर तथा माँस को पकाकर खाने वाले हों या राजीव गाँधी को बम से उडाने वाले , अजमेर धमाके को अंजाम देने वाले हों या मालेगाँव ब्लास्ट को , जैसे ही इन घटनाओं में मुसलमानों के अलावा दूसरे का नाम आता है अदालत के अंदर नर्मी आख़िर क्यों आ जाती है ? इसका एक छोटा सा उदाहरण में नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
• 29 जनवरी 2015 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फांसी की सजा को संविधान के अनुच्छेद 21 के जीवन के अधिकार के खिलाफ करार दिया था। निठारी कांड के आरोपी को अदालत ने पहले जारी होने वाले डेथ वारंट को भी असंवैधानिक करार दिया था तथा कहा था कि कैदी को तन्हाई में रखना सुप्रीम कोर्ट के फैसलों एवं संवैधानिक अधिकारों के विपरीत था। हाई कोर्ट ने यह बात निठारी कांड के दोषी सुरेंद्र कोली की फांसी की सजा को बदलते हुए कहा था और इसी के साथ इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कोली की फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया था ।
• दूसरी और 29 जुलाई 2015 यानि कि उपरोक्त निठारी कांड के छ: महीने बाद ही 1993 के मुंबई बम धमाकों के आरोपी याकूब मेमन को सुप्रीम कोर्ट ने उसकी ओर से दायर याचिकाएं खारिज कर दी थी, महाराष्ट्र के राज्यपाल से लेकर ग्रहमंत्रालय तथा राष्ट्रपति तक ने उसकी दया याचिका ठुकरा दी थी। गृहमंत्रालय ने तो ये तक कह दिया था कि याकूब की फांसी की सजा पर पुनर्विचार की कोई ही जरूरत नहीं है ।
उपरोक्त दो उदाहरण आपके सामने ही जिसमें कि देश की उच्च न्यायालय एक जैसे ही मामले में जिनमें इंसानों का ही कत्ल हुआ था में दो अलग अलग फैसले देती है तथा अपने द्वारा कही गयी बात को ही भूल जाती है कि फांसी की सज़ा अनुच्छेद 21 के आधार पर दी ही नहीं जा सकती , आख़िर क्यों अदालत को एक फैसले में तो अनुच्छेद 21 याद रहता है और वो दूसरे फैसले में इसकी बात तक करना पसंद नहीं करता ।
यहाँ मेरा मकसद किसी अपराधी के गुनाहों को कम बताना नहीं बल्कि मेरा मकसद एक ही देश में चलने वाली न्यायपालिका का एक जैसे ही मामलों में दो तरह के पक्षपात पूर्ण फैसलों को आपके सामने लाना है , आख़िर क्यों उच्चन्यायलय निठारी केस में तो हाईकोर्ट को फांसी पर पुनर्विचार करने की कहती है तथा 29 जनवरी 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट फांसी की सज़ा का खुलकर विरोध कर एक नृशंस हत्यारे को फांस की सज़ा को ख़त्म कर जीवनदान दे देती है , परंतु याकूब और अफज़ल गुरू के केस में उनकी दया याचिका को निरस्त कर फांसी पर लटका देती है । गुलबर्ग पर दोषियों को एक बार फिर से फांसी की सजा न देकर न्यायालय ने कहीं न कहीं एक बार फिर से ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या देश की न्यायपालिका भी अब अपने फैसलों में हिंदू और मुसलमान के आधार पर ही फांसी का फैसला करने लगी है , अभी तक के आँकडों से तो फिलहाल यही नज़र आता है । जहाँ एक और उसको हिंदू समाज से आने वाले दोषियों पर तो अनुच्छेद 21 याद रहता है परंतु मुस्लिम आरोपियों पर वो इसको भूल फांसी पर लटकाने का सिलसिला जारी रखती है । जिस देश के संविधान में बाबा साहेब ने एकता और न्याय प्रणाली को सभी धर्मों के लिये बराबर रखा था आज गुलबर्ग सोसायटी के फैसले ने एक बार फिर पूरे राष्ट्र को शर्मसार कर राष्ट्र ऐकता को काफी ग़हरा धक्का पहुँचाया है । एक शायर के बकौल-
“इंसाफ ज़ालिमों की हिमायत में आयेगा ये हाल है
तो कौन अदालत में जायेगा “
लेखक: डॉ. उमर फ़ारूक़ अफरीदी
यह लेखक के निजी विचार हैं।