चांदनी चौक का दर्द : ‘हमारी गलियां तंग भले हैं, लेकिन हम ईद भी मनाते हैं और दिवाली भी’

चांदनी चौक : ‘आज जो बात मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है, वह है दिलों को बांटने वाली राजनीति। वो प्यार भरा माहौल कहां गया। 1947 वाली तल्खियां, जिन्हें भूल जाना चाहिए था, वो फिर उभर कर आ रही हैं।’ मौजूदा माहौल से यह शिकायत शगुफ्ता परवीन की है। वह चांदनी चौक लोकसभा सीट के तहत आने वाली बल्लीमारान विधानसभा में रहती हैं।

शगुफ्ता एक सरकारी स्कूल की प्रिंसिपल हैं। ऐतिहासिक नगरी की तंग गलियों में उनके घर का माहौल इस बात की तस्दीक करता है कि यहां संकरे गलियारों में भी आधुनिक सोच के पांव पूरे आराम से पसरे हैं। मौजूदा चुनावी माहौल के बारे में परवीन कहती है, ‘इस बार चुनाव से जरूरी मुद्दे ही नदारद हैं। आज का अहम मुद्दा है रोजगार, लोगों को प्यार से रहना सिखाया जाए, रोटी, कपड़ा और मकान हर बंदे को चाहिए। लेकिन इन मुद्दों पर कोई बात नहीं हो रही। पूरा जोर लोगों को बांटने पर है। ऐसी सीख कोई धर्म नहीं देता। आज इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं। जब इंसानियत को मरता देखती हूं तो बहुत दुख होता है।’ बात करते-करते अचानक परवीन की आंखें नम हो गईं।

जुबां को लड़खड़ाने से बचाते हुए शगुफ्ता बोलीं, ‘हमारी ये गलियां तंग भले हैं, लेकिन यहां आपको हर त्योहार का पूरा मजा देखने को मिलेगा। हम ईद भी मनाते हैं और दिवाली भी।’ चांदनी चौक के रीडिवेलपमेंट के बारे में उन्होंने कहा, ‘मैं इस बात से खुश हूं कि हमें और हमारी आने वाली नस्लों को बेहतर चांदनी चौक मिलेगा। ऐसा नहीं हुआ तो मैं इससे जरा भी खुश नहीं।’ परवीन ने अपनी बेटी सारा अजीज की बातों का समर्थन करते हुए ये बातें कहीं, जिनका कहना था कि किसी शहर में लाइफ है तो इसी ‘वॉल्ड सिटी’में। हर वक्त इस शहर में एनर्जी नजर आती है।

सारा भी एक सरकारी स्कूल में टीचर हैं। उनका कहना है कि चांदनी चौक जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में एजुकेशन और साफ-सफाई पर सबसे ज्यादा तवज्जो दिए जाने की जरूरत है, जिस पर आज भी किसी नेता का फोकस नहीं है। वह कहती हैं, ‘हमारे कपड़े मॉडर्न हों यह उतना जरूरी नहीं, जरूरी हमारी सोच का मॉडर्न होना है। इन इलाकों में एजुकेशन को उतनी तवज्जो नहीं दी जा रही, जितनी जरूरी है। अच्छे स्कूलों की कमी का नुकसान सबसे ज्यादा लड़कियों को उठाना पड़ रहा है। प्राइमरी एजुकेशन के बाद ही उनकी शादी कर दी जाती है।’ इसके अलावा सारा को अपने इलाके से कोई शिकायत नहीं। वह कहती हैं, ‘मुझे इन तंग गलियों जैसा अपनापन कहीं और नजर नहीं आता, शायद इसलिए कि मैं यहीं पली-बढ़ी हूं।’

कुछ और मुस्लिम महिलाओं से बातचीत में एक और सच सामने आया। वह यह कि हालात जो भी हो, लेकिन अब यहां भी सिर्फ घर के मुखिया के इशारों से वोट नहीं दिया जाता। युवा लड़की हो या घरेलू महिला, सबको पता है कि उन्हें कैसे नेता को चुनना है। असमा 12वीं में पढ़ती हैं और अभी से जानती हैं कि नेताओं के वादों में कितना दम होता है। वह कहती हैं, ‘पिछली बार जिस नेता ने यहां से जीत हासिल की उसने कहा था कि स्कूल बनवाऊंगा।

लड़कियों के लिए आज भी कोई ढंग का स्कूल नहीं है, टीचरों की भारी कमी है।’ वह जिस पुरानी-सी हवेली के एक खोमचे में रहती है, उसमें कई परिवारों का एकसाथ बसेरा है। हवेली का हाल उसके बीते जमाने से ताल्लुक को बयां करने के लिए काफी है। इसी बसेरे के अंदर अपने-अपने हिस्से के कोने में बसी हैं, सायरा, समायरा और कहकशां परवीन। इनका आपस में रिश्ता देवरानी और जेठानी का है। इन तीनों के मुताबिक, वही नेता उनका वोट पाएगा जो दारू की बिक्री को बंद करवाएगा और लोगों के रोजगार वापस लाएगा।

कहकशां परवीन की बेटी नौंवी क्लास में पढ़ती है, वह उसे पढ़ा लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती हैं, जिससे वह आर्थिक तंगी से लड़खड़ा रहे परिवार की बैसाखी बन सके। वह बताती हैं, ‘मेरे छोटे दो लड़के हैं, जिनकी कमाई से घर चल रहा है। इनके बाप को तो दारू ने बर्बाद कर रखा है। ये लड़के काम करते हुए उन कारखानों को भी बाहर किया जा रहा है। ऐसे कैसे हमारा घर चलेगा।’ कहकशां की बेटी सामिया परवीन भी चाहती हैं कि दारू बंद हो। आर्थिक तंगी और सामाजिक बंदिशों के बीच यहां हर लड़की और महिला की नजर में बाहर जॉब करने और बेटियों को खूब पढ़ाने की चाह दिखी। वे सांसद या प्रधानमंत्री के रूप में ऐसा मसीहा तलाश रही हैं, जो उनकी समस्याओं का समाधान लेकर आए।

साभार : नवभारत टाइम्स