चेहरा खुला रखने से बुर्के का असल मक़सद ही फ़ौत

हैदराबाद 17 जनवरी (ख़ुसूसी रिपोर्ट)। बुर्क़ा या नक़ाब किसी भी सिनफ़ नाज़ुक केलिए सिर्फ एक पर्दा की हैसियत नहीं रखता बल्कि ये उनकी अस्मत-ओ-इफ़्फ़त और इज़्ज़त-ओ-तौक़ीर का मुहाफ़िज़भी होता है मगर मौजूदा दौर में ज़्यादा तर लड़कियां या ख़वातीन जिस किस्म का नक़ाब या बुर्क़ा इस्तिमाल कररही हैं इस से नक़ाब का असल मक़सद-ओ-मंशा-ए-ही फ़ौत हो जाता है इन ख़्यालात का इज़हार मुफ़्तिया नाज़िमा अज़ीज़ जामेतुल मो मेनात ने नुमाइंदा सियासत से बात चीत में की।

नक़ाब इस्तिमाल करने का असल मक़सद जिस्मानी ख़द्द-ओ-ख़ाल को छिपाने के साथ चेहरे को छुपाना होताहै मगर नक़ाब इस्तिमाल करनेवाली ख़वातीन-ओ-लड़कियों की अक्सरियत चेहरे को खुला छोड़ देती हैं जो मंशा-ए-पर्दा के ख़िलाफ़ है । दर असल औरत का चेहरा ही वो चीज़ है जो मर्द के लिए ज़्यादा पुरकशिश होताहै । अगर उसे खुला रखने की इजाज़त देदी जाय और उसे शरई पर्दा से मुसतसना क़रार दिया जाय तो नक़ाब के अहकाम ही बेसूद हूजाएंगे। सूरा अल अहज़ाब की आयत नंबर ५९ का हवाला देते हुए उन्हों ने कहा कि अल्लाह ताला ने इरशाद फ़र्मा या नबी अपनी बीवीयों बेटियों ,और मोमिनों की औरतों को फ़र्मा दीजिए कि अपने ऊपर जलबाब (लंबी चादरें) ओढ़ें

जब ये आयत नाज़िल हुई तो उस वक़्त औरतें सिर्फ अपने हाथ और चेहरा ही खुला रखती थीं या बाअज़ ख़वातीन के पांव नज़र आते थे,इस आयत के नुज़ूल के बाद गैर महरम हज़रात ओर जिन से अल्लाह ने पर्दा करने का हुक्म दिया है उनके सामने हाथ पांव और चेहरा छुपाना फ़र्ज़ होगया, कियुन कि बाक़ी तमाम जिस्म औरत का स्तर है और वोह तो महरम और गैर महरम दोनों से छुपाना ज़रूरी है। वाज़ेह रहे कि हैदराबाद और दुनिया के दीगर ममालिक में नक़ाब या बुर्क़ा का इस्तिमाल आम है जो मुस्लिम और ग़ैरमुस्लिम के दरमियान हद्द-ए-फ़ासिल की हैसियत रखता है ,नक़ाब के इस्तिमाल के बाद ख़वातीन ना सिर्फ ख़ुद को महफ़ूज़ तसव्वुर करती हैं बल्कि निसबतन वो ज़्यादा पुर वक़ार भी नज़र आती हैं ।

मगर सवाल ये है कि नक़ाब के इस्तिमाल के बावजूद नक़ाब के वो फ़वाइद हासिल क्यों नहीं होरहे हैं जो होना चाहीए था?।जिस मक़सद केलिए बुर्क़ा या नक़ाब वजूद में आया वो मक़सद फ़ौत क्यों होरहा है? इस सवाल का जवाब देते हुए मौसूफ़ा ने कहा कि इसके कई वजूहात हैं ,पहली वजह तवो ये है कि बुर्के का ज़्यादा तर इस्तिमाल बतौर फैशन किया जा रहा है , आप देख सकते हैं कि ज़्यादा तर ख़वातीन बिलख़सूस नौजवान लड़कियां एसे नक़ाब के इस्तिमाल को तर्जीह देती हैं जो नक़्श व निगार और ज़रदोज़ी वर्क से मुरस्सा हो,इस पर सितम ज़रीफ़ी ये कि वो चेहरे को नहीं ढाँपती हैं

ख़ासकर कॉलेज जाने वाली लड़कियां घर से मुकम्मल बुर्क़ा में निकलती हैं ताहम कॉलेज पहुंचते ही या तो मुकम्मल बुर्के से आज़ाद होजाती हैं या कम-अज़-कम नोज़पिस निकाल देती हैं जिस से बुर्क़ा का बुनियादी मक़सद ही फ़ौत हो जाता है ।मुफ़्तिया ने ताहम कहा कि हैदराबाद में आज बहुत सि ख़वातीन और लड़कीयां शरई उसूलों की पासदारी करते हुए बगैर किसी फैशन सादा बुर्के का इस्तिमाल करती हैं ,इसी ख़वातीन को देख कर देखने वालों के अंदर इन ख़वातीन के तएं तक़द्दुस का जज़बा उभर ता है । मगर बाअज़ ख़वातीन इस तरह से नक़ाब पहनती हैं जैसे वो पर्दे को गैर ज़रूरी तसव्वुर कररही हूँ और उनका नक़ाब सर ता पा ,सरापा एहतिजाज बना हुआ हो,एसी ख़वातीन को देख कर वो ख़वातीन जो पर्दे को फ़र्सूदा रवायात तसव्वुर करती हैं ,ये दलील पेश करती हैं कि बुर्क़ा या हिजाब दिल और नज़र में होना चाहीए ,अगरचे ये दलील बे वज़न है मगर काबिल ग़ौर ज़रूर है।

मुकम्मल नक़ाब की अफादियत का तज़किरा करते हुए वो कहती हैं के,रास्ता चलती ख़वातीन के गल्ला से तिलाई चैन-ओ-ज़ेवरात छीने जा रहे हैं ,लेकिन किसी अख़बार में शायद ही ये ख़बर शाय हुई हो के किसी बुरक़ा पोश ख़ातून के गल्ला से तिलाई चैन या ज़ेवरात छीन लिए गए ,इसके इलावा फ़िज़ाई आलूदगी से मुख़्तलिफ़ बीमारियां होरही हैं और इस में अक्सर वो ख़वातीन मुबतला हैं जो नक़ाब इस्तिमाल नहीं करतीं,इसतरह आबरू के साथ पर्दा की बरकत ये भी है।

इन हक़ीक़तों के बावजूद हमारी माएं और बहनें बाज़ारों ,पार्कों ,कॉलिजों ,योनियो रसीटयों और तफ़रीह गाहों में नक़ाब पहन कर भी बेपर्दगी का मुज़ाहराकरती हैं इस से ग़ैरों को इस्लामी अहकाम की तरफ़ उंगली उठाने का मौक़ा मिलता है। इस्लाह मुआशरा की तनज़ीमों ने ख़वातीन के साथ मर्दों से भी अपील की है कि वो घरों में ख़वातीन को मुकम्मल नक़ाब इस्तिमाल करने पाबंद करें ताकि दुख़तरान-ए-मिल्लत की हिफ़ाज़त के साथ ख़ुद उनकी भी दीन-ओ-दुनिया महफ़ूज़ रह सके।