जनता को दिमागी दिवालीया बनाना मोदी सरकार और संघ की सबसे बड़ी उपलब्धि

2014 में भारी बहुमत से चुनकर सत्ता में आई मोदी सरकार ने जो काम मुखरता से किया वह था अकादमिक संस्थानों में संघ से जुड़े लोगों को पदस्थ करना. इसकी शुरुआत इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टॉरिक्ल रिसर्च से हुई.
उसके बाद फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, सेंसर बोर्ड आदि. एफटीआईआई के नियुक्ति में गजेन्द्र चौहान का श्याम बेनेगल से ऊपर होना, किसी भी कला के जानकार के लिए हैरत भरा था. पहलाज़ निहलानी का मोदी गान में बनाया विडियो.

इन नियुक्तियों के मेरिट पर जब सवाल उठने लगे तो नितिन गड़करी ने एक टीवी चैनल से साक्षात्कार में ही पूछ लिया – “आप बताइए आपके चैनल का एडिटर कौन होगा ये आप तय करेंगें या आपका मालिक?” इस सवाल के पीछे का बड़ा तर्क़ यही है कि, चुंकि ये नियुक्तियाँ सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती हैं इसलिए सरकार ही यह तय करेगी. लेकिन, जो एंकर ने नहीं पूछा -“क्या सरकार खुद एक नीजी चैनल की तरह काम करती है? क्या सरकार ने इन जबावदेही भरे पदों की नियुक्तियों में स्टेकहॉल्डर्स से राय ली? गजेन्द्र चौहान में ऐसी कौन सी खासियत सरकार को दिखी जिसमें श्याम बेनेगल और अन्य पीछे छूट गए?”

नियुक्तियाँ महज़ एक झलक भर थी. इसके साथ ही देश के अलग-अलग हिस्सों से लेखकों, चिंतकों, फिल्मकारों पर हमले की खबरें आनी शुरु हुई. शिक्षा निती पर स्मृति इरानी (तब मानव संसाधन विकास मंत्री) संघ से बैठकें कर रही थी. लेखक गोविंद पनसारे और कुलबर्गी की हत्या के थोड़े दिनों ही बाद दादरी में अख़लाक की हत्या ने अकादमिकों को झकझोर दिया. साहित्य अकादमी पुरस्कारों की वापसी का एक दौर चला. प्रतिरोध के सम्मान या आत्ममंथन के बजाय सवाल उन लेखकों से ही पूछे जाने लगे, आपने पहले क्यों नहीं किया, अब क्यों? सरकार और संघ की तरफ से एक ऐसा माहौल तैयार करने की कोशिश की गई कि ये सारे लेखक-चिंतक कांग्रेसी, वामपंथी हैं जिन्हें मोदी पसंद नहीं. माहौल इस कदर तैयार हुआ कि, बुद्धिजिवी शब्द का उग्रता से प्रयोग होने लगा जैसे भारत में बुद्धिजिवी होना गुनाह है.

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि कांग्रेसी या वाम सरकारें अभिव्यक्ति की आजादी की पक्षधर रही हैं. दरअसल, लेखकों, चिंतकों, फिल्मकारों को पूरी आजादी थी ऐसा भारत में कभी नहीं रहा. गो रक्षा के नाम पर जगह-जगह गुंदागर्दी और एक खास समुदाय को निशाना बनाया जाने लगा. राष्ट्रवाद की एकल परिभाषा दी जाती रही. देश और सेना के नाम पर भावनाओं के सैलाब का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिशें जारी है. आम लोगों की समस्याओं को बॉडर पर गोलीबारी और पाकिस्तान के नाम पर भटकाया जाना जारी है. अब सरकार यहाँ तक कहने लगी कि कोई भला सेना या सैन्य कारवाई ही नहीं बल्कि इंकाउटर पर भी सवाल कैसे उठा सकता है!

यह दौर इसलिए ज्यादा दुखद है क्योंकि पहली बार चरमपंथी गुटों को सत्ता का समर्थन प्राप्त है. मीडिया जिससे इन मुद्दों पर चर्चा की गुंजाइश की जाती है वो खेमेबाज़ी में तबदील हो चुका है. उसने पाठकों और दर्शकों खेमे को बांट दिया है. यह गंभीर विषय है क्योंकि जिसे चौथे स्तंभ के तौर पर पत्रकारिता की कक्षाओं में रटाया जाता है, क्या वो जनमानस का पक्षधर है? आज मीडिया अपनी चुनौतियों के सामने भी एकजुट होने की स्थिती में नहीं है.
Rohin Verma
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एनडीटीवी इंडिवा पर सरकार ने एक दिन का प्रतिबंध यह कहते हुए लगाया कि चैनल ने केबल टेलीविजन नेटवर्क कानून का उल्लंघन किया है. चैनल ने गोपनीय सूचनाओं को साझा किया जिससे देश की सुरक्षा में सेंध लग सकता था. प्रतित होता है जैसे पठानकोट आर्मी बेस कैंप में घुसे आंतकी अप्रशिक्षित थे और एनडीटीवी की रिपोर्ट का ही इंतजार था. हालांकि, जिस कानून का हवाला देते हुए सरकार ने चैनल को प्रतिबंधित किया उसके अंदर चौदह बिंदु हैं जिसमें विज्ञापनों, महिलाओं के वस्तुकरण, नैतिकता, अपमानजनक विषय वस्तु आदि से जुड़े हैं. आप खुद सोच सकते हैं, जिस दिन इन कानूनों को सख्ती से लागू किया गया सारे टीवी चैनल बंद हो जाएंगें.

थोड़ा और पीछे जाकर देखें तो समझ आता है वर्तमान सरकार के समर्थकों के लिए एनडीटीवी को ‘प्रो-कांग्रेस’, ‘प्रेसटिट्यूड’ जैसे शब्दों का इस्तमाल किया जाता रहा है. सरकार की ओर से सूचना प्रसारण मंत्री प्रतिबंध का समर्थन कर रहे हैं लेकिन यह नहीं बता रहे कि एनबीएसए, प्रेस काउंसिल, इडिटर्स गिल्ड को भरोसे में लेकर फैसला क्यों नहीं लिया गया? क्या प्रेस पर फैसला सरकार लेती है बिना स्टेकहॉल्डर्स से बात किये?

हालात आपातकाल की झलकें देती हैं पर सरकार के नुमांइदे ऐसा नहीं मानते. उनके लिए आपातकाल वही होगा जब हु-बहु वही होने लगेगा जो इंदिरा के दौर में हुआ था. सबसे मजेदार पहलू है, एनडीटीवी बैन के पक्षधर भी वही लोग हैं सरकार के समर्थक हैं. वो फ्री प्रेस के पक्षधर नहीं हैं. वो लोग हैं जो कश्मीर और बस्तर में प्रेस के कुचले जाने को सही ठहराते रहे हैं. वो लोग हैं जो तसलीमा नसरीन के किताब पर बैन के खिलाफ हैं पर एनडीटीवी पर बैन के समर्थन में!

जनता को समझ लेना चाहिए जो 1975 में हुआ जरूरी नहीं वैसा ही दुबारा हो. उसकी बाद में कितनी छिछालेदर हुई, आप हमेशा लोकतंत्र-प्रेस पर हमलों के बीच आपातकाल का उदाहरण देते रहे. खतरे वही होंगे लेकिन इस बार ऑल इंडिया रेडियो पर बताया नहीं जाएगा. वो दौर अपना स्वरूप बदलकर आता दिख रहा है और आपके सामने उसे साबित करने की चुनौतियाँ होंगी.
Rohin Verma
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स्टेज से बोला कुछ जा रहा है, किया कुछ और जा रहा है. जनता वही संदर्भ जानती है जिसे उन्होंने स्टेज पर बताया था. जनता वो कहाँ जान पाती है जो शाखाओं को निर्देशित किया गया है. आप बोलेंगे- ‘बहुत खतरनाक दौर है’. वो आपसे पूछेंगें- ‘कांग्रेस के वक्त तो चुप थे, अब क्यों?’ ऐसे कहकर आपको साइड लगाया जाएगा.

आप चीनी झालरों के बहिष्कार में स्वदेशी बनते जाएंगें और ज़िओमी, नागपुर मेट्रो ट्रेन के कॉन्ट्रैक्ट चीन को दिये जा रहे हैं. कभी पता लगाइए, एप्पल आईफ़ोन की एसेंब्लिंग कहाँ होती है. आप फव़ाद और माहिरा को पाकिस्तान भेजकर बड़े राष्ट्रवादी होते चले जा रहे हैं, और टीवी तारिक फ़तेह को वापस नहीं भेज पा रहें. यही दौर है- दूसरे देश जिसे गद्दार कहें, उसे आप राष्ट्रवादी मानें.

हालांकि, एनडीटीवी बैन करने भर को ही सिर्फ़ अभिव्यक्ति पर बड़ा खतरा मान रहे हैं मतलब, आप मीडिया के सच को दरकिनार कर रहे हैं. मीडिया ऑनरशीप स्ट्रक्चर देखेंगें तो मालूम होगा इसकी शुरुआत बहुत पहले ही चुकी थी. वो कब आपकी बात कर रहा था? जिस चैनल की लाउंचिंग नियमों को ताख पर रखकर किया गया, राजीव गांधी ने पैसे झोंके वो आज सबसे बड़ा राष्ट्रवादी बने घूम रहा है. आप उस डर को अपने डर से समझिए, घरवाले आपके फेसबुक या ट्विटर पर सरकार विरोधी पोस्ट लिखने से क्यों घबराते हैं..! वो डर क्यों है, कहाँ से आया? सोचिए.

सेना के नाम पर इतनी दिवानगी, पुलिस के लिए कोई सम्मान तक नहीं. क्यों? आप अपने घरों में महफूज सेना से पहले पुलिस के बदौलत हैं. घर में चोरी होगी तो सेना उसकी रपट नहीं लिखेगी. देश की आंतरिक सुरक्षा भी उतनी ही अहम है जितनी बॉडर पर. चुंकि, आपका रोज सेना से वन-टू-वन इंटरएशन नहीं होता इसलिए आप श्रद्धावान बने हैं. पुलिस से आये दिन होता है और आप कितना इज्जत देते हैं ये आप खुद जानते हैं. पुलिस किन हालात में काम करती है कभी देखा है? उनके लिए कोई ओआरओपी नहीं है. नक्सल प्रभावी क्षेत्रों में उनकी हालत देखिए.

सरकार देश नहीं होता. देश सरकार नहीं होती. आपको ये समझना होगा. राष्ट्र और सुरक्षा के नाम पर जो कूड़ा और टार आपके दिमाग में डाला जा रहा है, उसे थोड़ा तार्किक होकर सोचिए. आपको दिमागी दिवालीया बनाने की जो साजिशें जारी हैं, उसको नाकामयाब कीजिए. सिर्फ़ भाजपा के लिए नहीं, हर सरकार राज्य सरकार के लिए. अपनी आवाज बुलंद कीजिए, सवाल किजिए, फैक्ट्स क्रॉसचेक किजीए. मौत को स्वच्छ भारत अभियान से जोड़कर वाट्सएप्प संदेश जोक के नाम पर फॉरवर्ड करते हैं न, आपको तब उसकी विभत्सता भी समझ आने लगेगी.

रोहिण कुमार
लेखक आईआईएमसी के छात्र हैं