जन्नत के हक़दार कौन?

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उम्र रज़ी अल्लाहु तआला अनहु बयान फ़रमाते हैं कि हम लोग मस्जिद (नबवी) में बैठे हुए थे और फ़िक़रा-ए-मुहाजिरीन का हलक़ा जमा हुआ था कि अचानक नबी करीम सल्लललाहु अलैहि वसल्लम तशरीफ़ लाए और फ़िक़रा की तरफ़ चहरा-ए-मुबारक करके बैठ गए। में भी अपनी जगह से उठा और (सल्लललाहु अलैहि वसल्लम की इत्तिबा में) फ़िक़रा के क़रीब पहुंच कर उनकी तरफ़ मुतवज्जा हो गया (ताकि आनहज़रत (स०) उन से जो कुछ फ़रमाएं, इन मलफ़ूज़ात को में भी सुन सकूं) चुनांचे नबी सल्लललाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया फ़िक़रा-ए-मुहाजिरीन को वो बशारत पहुंचा देना ज़रूरी है, जो उनको मसरूर-ओ-शादमां करदे, पस (वो बशारत ये हैके) फ़िक़रा-ए-मुहाजिरीन जन्नत में दौलत मंदों से चालीस साल पहले दाख़िल होंगे।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उम्र रज़ी अल्लाहु तआला अनहु फ़रमाते हैंके बख़ुदा मैं ने देखा कि (ये बशारत सुन कर फ़िक़रा (के चेहरों) का रंग रोशन-ओ-ताबां हो गया। आप (स०) फ़रमाते हैंके ये (बशारत सुन कर और फ़िक़रा के चेहरों की ताबानी-ओ-शगुफ़्तगी) देख कर मेरे दिल में ये आरज़ू पैदा हुई कि (काश) में भी इन ही जैसा होता (यानी इस दुनिया में मुझ पर भी फ़ुक़्र-ओ-इफ़लास तारी होता और में इस जमात फ़िक़रा में शुमार होता) या ये कि इन में से होता (यानी आख़िरत में इस जमात के साथ उठता और इन ही के साथ मेरा हश्र होता)। (अलद उर्मी)
हदीस शरीफ़ में बिमा युसुर वजुहहुम में लफ़्ज़ वजूह से मुराद या तो ज़ात है या जैसा कि तर्जुमा में उस को मल्हूज़ रखा गया है, या ये लफ़्ज़ अपने असल मानी चेहरा के मफ़हूम में इस्तेमाल हुआ है। इस सूरत में ये मानी होंगे कि (फ़िक़रा-ए-मुहाजिरीन को बशारत पहुंचा देना ज़रूरी है) जो उनके दिलों को ख़ुश करदे और इस ख़ुशी का असर उनके चेहरों पर ज़ाहिर-ओ-नुमायां हो।