ज़िन्दगी यूं ही कम है मुहब्बत के लिए

उनके आने की ख़बर पहले से थी और उस शाम, सीसीआरटी में मूस़िकी की एक त़करीब में मुल़ाकात भी हो गयी। बहुत छोटी सी। अनुप जलोटा साहब जब भी हैदराबाद आते हैं, बड़े प्रोग्रामों के साथ कुछ छोटी महफिलें भी शहर के नाम कर जाते हैं। बस दो चार लोग, अनुप जलोटा साहब और दो चार नई कम्पोजिशन…महफिल को यादगार बनाने के लिए इतनी दौलते मुश्तरेका काफी है। इस बार भी कुछ नया सुनने की चाह लिए मैं शरद भाई(गुप्ता) के मकान पहुंचा। कुछ ही देर के इन्तेज़ार के बाद उस दीवान ख़ाने में मेज़बान के साथ साथ कुछ ख़ास मेहमान भी तशरीफ रखते थे। नवाब शमीम साहब और उनके एक हार्मोनियम स़ाजिंदे। इत्तेफ़ाक के आरजीए से कुछ लोग अनुप साहब को दावत देने के लिए आये थे। सोफों के बीच चाय के टेबल पर ही बाजा रखा गया और फिर जलोटा साहब ने शुरूआत की। …
गुलशन था लालाज़ार अभी कल की बात है
हर गुल पे था निखार अभी कल की बात है
भजन सम्राट होने का ा़खिताब तो उन्होंने पा ही लिया है, लेकिन ग़ज़ल में भी उनका अंदाज़ भी बहुत अलग रहा है। मेहदी हसन के बाद ग़ज़ल गायकी की रिवायत को अनुप साहब ने उसी आन बान के साथ क़ायम रखा है। छोटी बहर की ग़ज़लों को पेश करने का उनका अंदाज़ शाय़कीन को भा जाता है।
बैठे बैठे रोने की
रुत है पागल होने की
आँखों को ा़जिद आन पड़ी
सावन भादों होने की
मरने वाला मिट्टी का
अर्थी चांदी सोने की
ग़ज़ल चाहे पुरानी हो या नई। उसको सुरों में कुछ इस तरह ढ़ाल देते हैं कि वह दिल में उतर जाती है। इसी बीच नवाब शमीम साहब के साथी भी एक और बाजा ले आये और ग़ज़ल का दौर कुछ और आगे बढ़ा।
वो मेरा था ये बताना अजीब लगता है
अब उससे आँख मिलाना अजीब लगता है
यह ग़ज़ल यूँ तो उन्हेंने इससे पहले भी कई मह़फिलों में सुनाई है। लेकिन हर बार लप़्ज़ों का दर्द सुरों में कुछ गहरे ही उतरता है। शायद ा़जिन्दगी के हादसे कुछ ऐसे तजुर्बे अता करते हैं कि बात वही, अलफ़ाज़ वही, लेकिन जज़्बात के इज़्हार का असर य़कीनन ही पहले से और बढ़ जाता है।
टुकडे टुकडे दिल कर आये
उनकी गली से जब घर आये
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दिल अगर दर्द नहीं बन सकता
दर्द को दिल बनाके देखेंगे
.. महफिल कुछ ऐसी थी कि वहाँ वाह वाही लूटने का म़कसद भी नहीं था। बस फनकार को ज़हनी सुकून मिले और रूह की तस्कीन हो। साथ साथ कुछ रियाज़ भी हो जाए, लेकिन गाना चाहे कहीं भी गाया जाए, सुरों में ईमानदारी की ज़रूरत होती है, और जलोटा साहब इस मामले में कभी कोताही नहीं बरतते। ..कहते हैं, `हर फनकार अच्छा गाना चाहता है, लेकिन इसके लिए वह कितना रियाज़ कर पाता है, यह देखना ज़रूरी है। दूसरे यह की सुर तो ख़ुदा की ब़ख्शिश होता है, हाँ उसे मेहनत करके संवारा जा सकता है और उसमें ईमान्दारी बहुत ज़रूरी है।’
बातों बातों में वो फिर से ग़ज़लों की फूलों को रागों के गुलदस्ते में सजाने में लग गये।
ज़िन्दगी यूं ही कम है मुहब्बत के लिए
रूठकर वक़्त गंवाने की ज़रूरत क्या है
पास बैठे स़ाजिन्दें की ज़ुबान से उनकी इस प्रस्तुति पर अनायास ही अमीर ख़ुसरों का दोहा निकल पड़ा
तन रबाब मन की गरीं सो रगें भई सब तार
रोम रोम सुर देवत है सो बाजत नाम तोहार।
एफ. एम. सलीम