जामिया हॉस्टल में पुलिस की रेड, याद आये फिर वो दहशत के दिन

खबर मिली की 2 दिन पहले शाम के वक़्त पुलिस (I.B) ने बिना जामिया प्रशासन को बताए जामिया हॉस्टल में रेड मारा । पहले खबर मिली की कुछ लड़कों को आतंकवाद के आरोप में उठाया गया है फिर जल्द ही इस बात का खंडन हो गया । अगर ये सच होता तो इसका परिणाम क्या होता ? आज जो मीडिया जामिया विद्यार्थियों के आंदोलन से मुंह मोड़े हुए है । क्या वह ऐसा ही करती अगर किसी विद्यार्थी को आतंकवाद के आरोप में उठाया गया होता ?
बटला हॉउस एनकाउंटर को बहुत वक़्त नहीं गुज़रा है । उस वक़्त मै जामिया का विद्यार्थी था । मुझे याद है रमजान के रोज़े चल रहे थे । आम तौर से विद्यार्थी रात में पढ़ा करते है और दिन में सोया करते हैं । यही रूटीन मेरी भी थी 1-2 बजे तक सो के उठा अभी मुंह हाथ धुला ही था की मेरे रूममेट  ने कहा की इफ्तार के लिए बटला हाउस से सामान ले के आजा फिर हम खलिलउल्लाह मस्जिद में नमाज़ पढ़ के जामिया चलेंगे। बटला हॉउस पहुँचते ही एक अजीब सी मनहूसियत नज़र आई पर मै समझ नहीं पाया की हुआ क्या है ? तभी न जाने किस बात पे भगदड़ हो गई । मै भाग के अपने रूम  A-18 गफूर नगर पहुंचा । जब तक हम कुछ समझते तब तक खबर मिली की L-18 में कुछ आतंकवादियों के साथ पुलिस का एनकाउंटर चला है जिसमे जामिया के कुछ लड़के मारे गए हैं । मै ये सोचता रहा की न जाने कौन थे ( उस वक़्त हमारे पास टी.वी व् इंटरनेट नहीं था ) । ये एक बड़ी बात थी पर हम इतने गंभीर नहीं थे ।

अगले दिन सेहरी करने जब बटला हॉउस पहुंचे तो लोग टी.वी पर पिछले दिन की रिपोर्टिंग देख रहे थे । जिसमे एंकर चीख-चीख कर ये बता रहा था की सारे आतंकवादी आज़मगढ़ के हैं और जामिया में पढ़ते थे । सुबह होते ही मेरे घर से फोन आ गया अब्बू घबराये हुए थे । A-18 और L-18 में वह कंफ्यूज थे । बात करते करते उनका गला भर आया था । वह चाहते थे की मै आज़मगढ़ जल्द से जल्द आ जाऊं पर उनको डर था कि अगर अभी मै आज़मगढ़ जाता हूँ तो पुलिस का शक कही मेरी ओऱ न हो जाए । इसलिए मुझे खुदा के हवाले कर दिल्ली में रहने के लिए ही कहा । इधर अगले 2-3 दिन टी.वी पर उत्तरप्रदेश का ये छोटा सा ज़िला आज़मगढ़ राष्ट्रीय पटल पे छा गया । आशुतोष  (आप पार्टी के वर्तमान लीडर) जैसे पत्रकारो ने आज़मगढ़ का नाम ‘ आतंकगढ़ ‘ रख दिया और जामिया को ” आतंकवाद की नर्सरी ” बताया जाने लगा । जमिया और आज़मगढ़ रिपोर्टरों को भेजा गया । जिनको ये साबित करना था कि इन दोनों जगह आम इंसान नहीं आतंकवादी रहते हैं । देखते ही देखते इस मीडिया प्रेमी भारतीय जनता के लिए हम सब आतंकवादी हो गए थे  ।  आज़मगढ़ के कुछ लड़के जो पिछले 2-3 साल से जुलेना (जो जामिया से 3-4 सौ मीटर दूर होगा ) में रह रहे थे उनको रूम खाली करने को कह दिया गया । जो मकान मालिक इनको दीपावली में मिठाई दिया करता था और इनसे ईद की सेवइयां लिया करता था । अब उनको ये लड़के आतंकवादी नज़र आ रहे थे । आज़मगढ़ के लड़कों को रूम मिलना मुश्किल हो गया था ।   जो लड़के जामिया के हॉस्टल में नहीं थे वह सब डरे हुए थे । हर रोज़ ये खबर मिलती की जसोला से , बटला हॉउस से , अबुल फज़ल से लड़के उठाए जा रहे हैं । डर का आलम ये था की आज़मगढ़ के साथी अपने कमरों पे सोया नहीं करते थे । मेरे जानने में कई साथियों को दिल्ली में सबसे महफूज़ जगह JNU नज़र आई । मेरे घर से भी फ़ोन आया  एहतियात के लिए हिदायत दी गई की मै JNU चला जाऊं । पहली बार मुझे इस बात का अहसास हुआ की मुझे भी इस आधार पे पकड़ा जा सकता है की मै मुस्लिम हूँ और जामिया में पढ़ता हूँ । बस ये दो कारण ही काफ़ी हैं मुझे आतंकवादी साबित करने के लिए । इस डर ने पहली बार मुझे मेरी स्थिती (location) समझाई और मै समझ गया की हिंदुस्तान में मुसलमानो के लिए सबसे बड़ा मुद्दा ईज्ज़त से ज़िंदा रहने का है बाकि सारे मुद्दे इसके बाद आते हैं ।
हमसे सवाल किया जाता है कि हमारा पुलिस पे भरोसा क्यों नहीं है ? तो इसके दो जवाब हैं पहला पुलिस को हम पे कितना भरोसा है ? अगर भरोसा होता तो जामिया प्रशासन को कम से कम विश्वास में ले कर ये कार्यवाही की जाती । दूसरा अगर झूठे आरोप में उनको पकड़ा गया तो कब उनको छोड़ा जाएगा इसका कोई निश्चित उत्तर है प्रशासन के पास । अभी मालेगांव में भारतीय मीडिया और पुलिस द्रारा घोषित आतंकवादियो को अदालत ने तक़रीबन 6-7 साल बाद बाईज़त बरी कर दिया । उनकी ज़िन्दगी के 6-7 साल की क्षतिपूर्ति कैसे होगी ? जिन पुलिस वालों ने इन नवजवानों पे झूठे आरोप लगाकर चार्जशीट फ़ाइल की थी क्या उनपे कार्यवाही होगी ? क्या आज तक किसी पुलिस अधिकारी पर इस बिना पर कोई कार्यवाही हुई है ? उनके घरवाले (और वो खुद) एक आतंकवादी के रिश्तेदार के रूप में जो यातनाएं झेली है उसका मुआवज़ा क्या होना चाहिए ? ऐसे ढेर सारे सवाल हैं जिनके जवाब कभी नहीं दिए जाएंगे न सरकार की ओर से न प्रशासन की ओर से । पर इसका परिणाम क्या होगा ये सोचने वाली बात है । आज आलम यह है की पुरे हिंदुस्तान में कहीं से भी  जब किसी मुस्लिम युवक को पुलिस आतंकवादी कह कर उठती है तो मुस्लिम समाज से पहली प्रतिक्रिया ये आती है की ‘ बेचारे निर्दोष को उठा लिया अब 6-7 साल जेल में  यूँही रखेंगे ‘ ये प्रतिक्रिया बहुत स्वभाविक है । ये प्रतिक्रिया ये भी बताती है मुस्लिम समाज का  सरकार/प्रशासन पे कितना भरोसा है और सरकार और प्रशासन ने भरोसा कायम रखने के लिए क्या किया है ? अगर सरकार और प्रशासन चाहते है कि भरोसा कायम हो तो उन अधिकारियों पर कार्यवाही की जाए जो बिना अनुमति के जमिया के हॉस्टल में रेड की थी । मुस्लिम समाज का भरोसा जीतने के लिए सरकार को पहल करने की आवश्यकता है ।

अब्दुल्लाह मंसूर
( लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली के छात्र हैं )

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