जो ईमान तुम्हें घर से मस्जिद तक नहीं ले जा सकता वो क़ब्र से जन्नत तक कैसे ले जाएगा ?

अहवाल आलम पर अगर एक ताएराना निगाह दौड़ाई जाए तो मालूम होता है कि फ़िलवक़्त दुनिया में मुस्लमान क़ौम से ज़्यादा परेशान कोई दूसरी क़ौम नहीं है और इस परेशानी के दीगर अस्बाब में से एक सबब ये है कि उस क़ौम का अपने ख़ालिक़ , मालिक और पालनहार से रिश्ता बहुत कमज़ोर हो गया , जो इंतिहाई तशवीशनाकहै ।

इस पस मंज़र में हमारे शहर की एक मस्जिद के बाहर के हिस्से में निस्ब एक बोर्ड पर बड़े पते की बात लिखी थी और वो ये है कि जो ईमान तुम्हें घर से मस्जिद तक नहीं ले जा सकता , वो क़ब्र से जन्नत तक कैसे ले जाएगा ? ये तहरीर हमें दावत फ़िक्र देती है कि हम अपना और अपने ईमान-ओ-आमाल का मुहासिबा करें और नमाज़ जैसे अहम तरीन इस्लामी रुक्न की जानिब से अपने ऊपर पड़े ग़फ़लत के पर्दे चाक़ करें और अपने ख़ुदा से रिश्ता एक बार फिर इस्तिवार करें ।

ये हमारे लिए लम्हा फ़िक्र ये है कि इस शादी में तक़रीबं हज़रात मुस्लमान ही होंगे लेकिन फिर किस चीज़ ने उन्हें नमाज़ जैसी अहम इबादत से रोक दिया । क़ारईन आप ने जुमा की नमाज़ में देखा होगा कि शहर की शायद ही कोई मस्जिद ऐसी होगी जो अपनी तंग दामिनी की शिकायत ना करती हो । वक़्फ़ बोर्ड रेकॉर्ड के मुताबिक़ शहर में तक़रीबं 8 हज़ार मसाजिद हैं लेकिन कोई ऐसी मस्जिद नहीं रहती जो जुमा के दिन आख़िरी सफ़ तक ना भर्ती हो ।

फिर आम दिनों में दो तीन सफ़ तक ही मुसल्ली क्यों रहते हैं । बक़ीया कहाँ चले जाते हैं । उन्हें ज़मीन निगल जाती है यह आसमान । आज कल चेहरे और हुलिए से मुस्लिम और गैर मुस्लिम का फ़र्क़ तो बाक़ी नहीं रहा । सिर्फ़ नमाज़ ही रह गई है । जो दोनों में इम्तियाज़ करती है फिर अगर ये भी बाक़ी ना रहे तो हम कैसे मुस्लमान हैं ? जब कि अगर हम ख़ुद नमाज़ के पाबंद हों तो हमारे घर का माहौल भी अच्छा होगा ।

हमारे बच्चे भी नेक और नमाज़ी होंगे जो मौत के बाद हमारे लिए सदक़ा जारीया होंगे अगर हम नमाज़ पढ़ कर अपने वालिदैन के लिए दुआ नहीं करेंगे तो क्या हम अपने बच्चों से उस की उम्मीद रख सकते हैं ? शहर की तक़रीबं मसाजिद के तहत मलगियां हैं लेकिन बहुत कम किराया दार हैं जो नमाज़ का एहतिमाम करते हैं । मतवलियान मसाजिद को चाहीए कि मलगियां किराया पर देते वक़्त ही ये शर्त रखी जाए कि नमाज़ की पाबंदी करनी होगी ।

इसी के साथ कुछ ऐसी भी इत्तिलाआत मौसूल हुई हैं कि दुकान और ऑफ़िस में काम करने वाले मुस्लिम मुलाज़िम जब नमाज़ के वक़्त मस्जिद जाते हैं तो उन के सेठ बावजूद मुस्लमान होने कि आँख भाओ चढ़ाते हैं अगरचे ज़बान से कुछ नहीं कहते जब कि ये कितनी बुरी सोच है कि नमाज़ के वक्फा में काम रुक जाए, नुक़्सान होगा ।

उन्हें याद रखना चाहीए कि जो फ़ायदा देने वाला है अगर वही राज़ी ना हुआ तो नफ़ा कहाँ से आ सकता है ? ये बात साईंस से साबित हो चुकी है कि वुज़ू और नमाज़ के अरकान में कितनी सेहत बख्श चीज़ें हैं नीज़ जो हज़रात नमाज़ के पाबंद होते उन्हें ना सिर्फ़ मुस्लिम मुआशरे में क़दर की निगाह से देखा जाता है बल्कि गैर मुस्लिम भी उन का एहतिराम करते हैं और उन्हें नेक , शरीफ़ , ईमानदार और सच्चा इंसान समझते हैं इस के बावजूद हमारे अंदर कोई तबदीली नहीं आ रही है और ना हम इस के लिए हस्सास हैं ।

आख़िर में आईमा , ख़ुतबए उल्मा और वाअज़ेन हज़रात की शान में इस दरख़ास्त के साथ कि गुस्ताख़ी माफ़ अर्ज़ है कि हम लंबी लंबी तक़रीरें , इस्लाही प्रोग्राम्स और जलसे जलूस सब कर रहे हैं फिर भी अवाम में अमल बेदारी पैदा नहीं हो रही । आख़िर उस की वजह क्या हो सकती ? कहीं क़ुरआन शरीफ़ की ये आयत तो नहीं है : क्या तुम लोगों को भलाई का हुक्म करते हो और अपने आप को भुलाए बैठे हो?