विक़ार अहमद और इस के साथीयों की एनकाउंटर में हलाकत के बाद एक तरफ़ जहां क़ौम-ओ-मिल्लत में गम-ओ-ग़ुस्सा-ओ-नाराज़गी पाई जाती है वहीं क़ौम-ओ-मिल्लत की ठेकेदारों के दावेदार इतमीनान से रस्मी रवायात को पूरा करने में मसरूफ़ हैं और इमकानी हालात से निमटने में परेशान हाल पुलिस और हुकूमत के लिए मस्लिहत कार और मददगार किराये के बाउंसर बॉय का रोल अदा कररहे हैं।
विक़ार अहमद और इस के साथीयों पर अगरचे दहश्तगर्दी और दहश्तगरदों से ताल्लुक़ात मुल्क से दुश्मनी-ओ-ग़द्दारी के संगीन इल्ज़ामात पाए जाते थे। ताहम ये इल्ज़ामात अभी साबित नहीं हुए थे। एक आम क़ानूनदां भी ये बात आसानी से मानने तैयार नहीं कि अदालत में मुक़द्दमात की ज़ेरे दरयाफ़ती के दौरान भी किसी को मुजरिम नहीं कहा जा सकता तो भला उन्हें हलाक कैसे किया जा सकता है।
अगर विक़ार अहमद और इस के साथीयों का जुर्म साबित होजाता और उन्हें क़ानून के लिहाज़ से सज़ा-ए-मिलती तो किसी को इस तरह का रंज-ओ-मलाल ग़म-ओ-ग़ुस्सा नहीं होता। जैसा कि उनका एनकाउंटर में किए जाने से पाया जाता है। विक़ार अहमद और इस के साथीयों की हलाकत से लेकर तदफ़ीन और माबाद तदफ़ीन चीफ़ मिनिस्टर से नुमाइंदगी तक मरहले में जमात ने रस्मी रवायात और ज़ाबता की कार्रवाई अंजाम दी।
सवाल ये उठ रहा हैके अपने दम पर हुकूमतों के मुक़द्दर को बदलने के दावेदार और क़ौम-ओ-मिल्लत की नुमाइंदगी का दम भरने वाले ख़ुद को असरदार शख़्सियत साबित करने वाले जमात के क़ाइद चीफ़ मिनिस्टर से बरसरे मौक़ा जवाब क्युं हासिल कर नहीं पाए ? बड़े ग्रुप की नुमाइंदगी के साथ चीफ़ मिनिस्टर के मीटिंग पहूंचने वाले क़ाइद आख़िर क्युं चीफ़ मिनिस्टर से फ़ौरी इक़दामात करवाने में नाकाम रहे।
जमात के इस क़ाइद के किरदार और इस रोल पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। कहीं एसा तो नहीं कि महलूक नौजवान सईदाबाद पालिसी के हामी और जमात की पालिसीयों को ना पसंद करने वाले थे। फिर चीफ़ मिनिस्टर से तीन दिन बाद एलान पर ख़ामोश कैसे लौट गए और ना ही इन नौजवानों की मय्यत को देखा और ना ही नमाजे जनाज़ा जो फ़र्ज़ किफ़ाया है में शिरकत की और ना ही उनके मकानात को पुर्सा देने पहूंचे।
किया सोगवारों इन दुखियारे दलों को दिलासा देना भी जमात के क़ाइद और चीफ़ मिनिस्टर से मुलाक़ात करनेवाली टीम के किसी रुकन को गवारा नहीं हुआ फिर क्या बात हैके सईदाबाद पालिसी से इतनी दूरी क्युं। अलबत्ता जमात के एक रुकने असेंबली नमाजे जनाज़ा में शरीक थे और तदफ़ीन तक उन्होंने साथ निभाया।
उन के रोल पर शुबहात ज़ाहिर किए जा रहे हैं चूँकि इस रुकने असेंबली का जो रोल था वो पुलिस की माइतरी कमेटी रुकन जैसा रोल रहा। दोनों जनाज़ों के रास्तों के रुख़ को मोड़ना , ब्रहम हुजूम और जनाज़े में शरीक अफ़राद को पुलिस के रोल से ख़ौफ़ज़दा करना एसा ही रोल रहा।
सईदाबाद पालिसी का ज़िक्र और उन से मुख़ालिफ़त की साबिक़ा मिसालें भी पाई जाती हैं। जब एक आलमे दीन के मकान में पुलिस दाख़िल होती है और मकान में सिर्फ़ ख़वातीन होती हैं। पुलिस हरासाँ-ओ-परेशान करती है। तब भी जमात के सदर या कोई रुकन उस की मुख़ालिफ़त नहीं की तो दावेदारी का ढोंग कब तक और किस वजह से क़ौम-ओ-मिल्लत की दहाई। जमात और इस के सदर के रोल पर मुख़्तलिफ़ बातें शहर में इन दिनों मौज़ू बेहस बनी हुई हैं।