तक़वा इख्तेयार करो

हज़रत जाबिर रज़ी० कहते हैं कि रसूल (स०अ०व०) के सामने एक ऐसे शख़्स का ज़िक्र किया गया, जो कसरत के साथ इबादत‍ और इताअत में मशग़ूल रहता है और इसमें बहुत ज़्यादा सई-ओ-एहतिमाम करता है (अगरचे वो गुनाहों से बहुत कम इजतिनाब करता है) और एक दूसरे शख़्स के बारे में ज़िक्र किया गया, जो परहेज़गारी को इख्तेयार करता है (चुनांचे आप ( स०अ०व०) से पूछा गया कि पहला शख़्स अफ़ज़ल है या दूसरा शख़्स?) तो नबी करीम (स०अ०व०) ने फ़रमाया कि (परहेज़गारी के बगै़र कसरत इबादत‍ ओ‍ इताअत और इसमें सई-ओ-एहतिमाम को परहेज़गारी के बराबर ना ठहराओ (अगरचे इस परहेज़गारी के साथ इबादत‍ ओ‍ इताअत की इस क़दर कसरत और सई-ओ-एहतिमाम शामिल ना हो)। (तिरमिज़ी)

लफ़्ज़ वरा असल हदीस ए शरीफ़ का जुज़ु नहीं है, बल्कि किसी रावी का अपना क़ौल है, जिसने इन अलफ़ाज़ के ज़रीया राअत की वज़ाहत की है कि राअत से मुराद वरा है। वाज़िह रहे कि वरा से मुराद तक़वा है, यानी हराम चीज़ों से बचना और जिसके मफ़हूम में इबादात वाजिबा को अदा करना भी शामिल हो सकता है।

हदीस ए शरीफ़ का हासिल ये है कि जो शख़्स इबादत‍ ओ‍ इताआत तो ज़्यादा करे, लेकिन गुनाहों से इजतिनाब के मुआमले में कमज़ोर हो, वो उस शख़्स से अफ़ज़ल नहीं हो सकता, जो परहेज़गारी को इख्तेयार किए हुए हो, अगरचे इसके हाँ इबादत‍ ओ‍ इताअत की कसरत और इसमें ज़्यादा सई-ओ-एहतिमाम ना हो।