“ताकों में सजाने को ये क़ुरान नहीं है” माजिद देवबंदी की ग़ज़ल

सामान-ए-तिजारत मेरा ईमान नहीं है
हर दर पे झुके सर ये मेरी शान नहीं है

हर लफ़्ज़ को सीने में बसा लो तो बने बात
ताकों में सजाने को ये क़ुरान नहीं है

अल्लाह मेरी रिज्क की बरकत न चली जाए
दो रोज़ से घर में कोई महमान नहीं है

हमने तो बनाए हैं समंदर में भी रस्ते
यूं हम को मिटाना कोई आसान नहीं है

दो चार उम्मीदों के दिए हैं अब भी हैं रोशन
माज़ी की हवेली अभी वीरान नहीं है

वो जिस को बुजुर्गों की रिवायत न रहे याद
उस शख्स की लोगों कोई पहचान नहीं है

(माजिद देवबंदी)