तालिबान के हमले

अफ़्ग़ानिस्तान में तालिबान की ताक़त को कमज़ोर करने के लिए अमेरीकी फ़ौज की 10 साल की कोशिशें नाकाम होती दिखाई दे रही हैं। एतवार के दिन काबुल के सात मुक़ामात और अफ़्ग़ानिस्तान के दीगर तीन शहरों में सिलसिला वार हमले और धमाके , तालिबान की ताक़त के दुबारा मुजतमा होने का सबूत है। तालिबान ने मग़रिबी ममालिक के सिफ़ारतख़ानों पर हमले किए हैं। सदर हामिद करज़ई के महल को भी निशाना बनाया। नाटो फोर्सेस के हेडक्वार्टर्स और पार्लीमेंट की इमारत पर हमले, मग़रिबी इत्तेहादी अफ़्वाज की ताक़तवर मौजूदगी को चैलेंज करते हैं।

2001 में तालिबान को इक़्तेदार से बेदखल कर देने वाली अमेरीकी हिमायत वाली अफ़्ग़ान फ़ौज को हर रोज़ मौत का सामना है। अफ़्ग़ानिस्तान जंग के 10 साल बाद भी इस मुल्क में क़ियाम अमन का मुआमला सिर्फ एक डरावना ख़ाब हो तो मुस्तक़बिल में भी अफ़्ग़ानिस्तान की सरज़मीन पर पाई जाने वाली बदअमनी की कैफ़ीयत सारी दुनिया के अमन के लिए तशवीश की बात हो सकती है। अमेरीका में अपनी दूसरी मीयाद के लिए मुक़ाबला करने वाले सदर बारक ओबामा के लिए अफ़्ग़ानिस्तान की ताज़ा सूरत-ए-हाल बहुत बड़ा धक्का है।

ओबामा ने अफ़्ग़ानिस्तान से 2014 के ख़तम तक बैरूनी जंगी अफ़्वाज की दसतबरदारी से क़ब्ल तालिबान के ख़िलाफ़ तवील मुहिम शुरू करने का अह्द किया था, अब ऐसा मालूम होता है कि इनका ये अह्द तालिबान की बंदूकों और बमों की गूंज की नज़र हो जाएगा। अफ़्ग़ानिस्तान की सरज़मीन और वहां के बाशिंदों की अपनी एक शुजाअत पसंदाना तारीख़ है। हालिया बरसों में ख़ासकर 1978 में रूसी फ़ौज ने अफ़्ग़ानिस्तान पर हमला किया तो यहां 10 साल तक रूसी अफ़्वाज की पै दर पै कार्यवाहीयां होती रहीं लेकिन 10 साल बाद तालिबान ने रूसी फ़ौज को पसपा कर दिया।

2001 में अमेरीकी फ़ौज ने अफ़्ग़ानिस्तान पर हमला किया तो 10 साल बाद फिर एक बार तालिबान ने अपनी ताक़त का मुज़ाहरा शुरू कर दिया है। काबुल में सिलसिला वार हमले की ज़िम्मेदारी कुबूल करने वाले तालिबान ने अपने मुल्क में बैरूनी अफ़्वाज की बढ़ती सरगर्मीयों के ख़िलाफ़ इंतेक़ाम लेने का ऐलान किया है। हालिया दिनों में नाटो अफ़्वाज की ज़्यादतियों की वजह से अफ़्ग़ान बाशिंदों में शदीद ग़म-ओ-ग़ुस्सा पैदा हुआ है। ख़ासकर नाटो हेडक्वार्टर्स पर क़ुरआन मजीद की बेहुर्मती का वाक़्या , अफ़्ग़ान बाशिंदों की नाशों पर अमेरीकी बहरी अफ़्वाज के पेशाब करने का वीडीयो और अवाम के क़त्ल-ए-आम के वाक़्यात ने तालिबान को बैरूनी अफ़्वाज के ख़िलाफ़ हमले करने का मौक़ा फ़राहम किया।

2010 से सदर हामिद करज़ई तालिबान के साथ मुज़ाकरात की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन अब ऐसा मालूम होता है कि अमन की तलाश उन के लिए बहुत महंगी पड़ रही है। अमेरीका और नाटो के ज़िम्मादारान भी तालिबान से मुज़ाकरात चाहते हैं लेकिन अफ़्ग़ानिस्तान में अमन की बहाली के लिए जिन बुनियादी तक़ाज़ों को पूरा करने का सवाल है, वो तालिबान की सरगर्मीयों को रोकना है। इस सिलसिले में अमेरीका अब तक कामयाब नहीं हो सका। काबुल के ये हमले नाटो चोटी कान्फ्रेंस से एक माह क़ब्ल हुए हैं।

इस कान्फ्रेंस में अमेरीका और इसके हलीफ़ ममालिक अफ़्ग़ानिस्तान का कंट्रोल अफ़्ग़ान सिपाहीयों के हवाले करने के मंसूबे को क़तईयत देंगे, लेकिन अब अमेरीका को अज़सर-ए-नौ ग़ौर करना पड़ेगा कि आया वो अफ़्ग़ानिस्तान का कंट्रोल अफ़्ग़ान सिपाहीयों के हवाले करने की ग़लती करने के नुक़्सानात को बर्दाश्त कर सकेगा।

अफ़्ग़ान स्कियोरिटी फोर्सेस भी गुज़श्ता साल सितंबर में काबुल में की गई इसी तरह की कार्यवाईयों से कोई सबक़ नहीं सीखी है और ना ही इस ने तालिबान की कार्यवाईयों को नाकाम बनाने की सलाहीयतें पैदा कर ली हैं। सवाल ये पैदा होता है कि आया मौजूदा हालात और तालिबान की बढ़ती कार्यवाईयों के बाद 2014 तक अफ़्ग़ानिस्तान की स्कियोरिटी अफ़्ग़ान फोर्सेस के हवाले करने के अह्द की पाबंदी की जा सकेगी। अफ़्ग़ानिस्तान में अमरीकी फ़ौज को 1968 की वैतनाम जंग के हालात की तरह सूरत-ए-हाल का सामना करना पड़ रहा है।

अगर चीका अमेरीका की मौजूदा जंगी सलाहीयतों और वैतनाम जंग के दौर में काफ़ी फ़र्क़ है मगर उस की फ़ौज हनूज़ जंग जीतने के लिए उभरे चैलेंज से निमटने से क़ासिर है। तालिबान की मौजूदा ताक़त और सलाहीयतों पर शुबा करने वाले नाटो अफ़्वाज को हो सकता है कि एतवार के हमलों के पीछे तालिबान के बजाय पाकिस्तान के हक़्क़ानी नैटवर्क के मुलव्वस होने का शुबा हो, क्योंकि ये हक़्क़ानी नैटवर्क अफ़्ग़ान । पाक सरहद पर सरगर्म है। अमेरीकी सफ़ीर अयान करवाकर का ये ब्यान पाकिस्तान को नाराज़ कर सकता है मगर इस के साथ उन के मुल़्क की फ़ौज के लिए भी ये बात बाइस-ए-शर्म है कि इस की मौजूदगी के बावजूद सरहदों की हिफ़ाज़त नहीं हो सकती।

इसका मतलब यही है कि अफ़्ग़ानिस्तान में अमन के क़ियाम के लिए बैरूनी अफ़्वाज को जिन उसोलों पर अमल करना है, उन से वो दूर होती जा रही है। सिर्फ चोटी कान्फ्रेंसों में मंसूबे बनाने से अमन क़ायम होने की उमीद नहीं की जा सकती। इसके लिए ज़मीनी हक़ायक़ का जायज़ा लेना और अफ़्ग़ानिस्तान के दाख़िली हालात पर ग़ौर करना ज़रूरी है। बैरूनी अफ़्वाज की जानिब से मुसलसल जो गलतीयां हो रही हैं, इस के नतीजा में तालिबान को अपनी ताक़त के मुज़ाहरा का मौक़ा मिल रहा है और ये सिलसिला तशवीशनाक है।