“तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के”, ‘फै़ज़’ की ग़ज़ल

दोनों जहान तेरी मोहब्बत मे हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के

वीराँ है मयकदा ख़ुमो-साग़र उदास हैं
तुम क्या गये कि रूठ गए दिन बहार के

इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखें हैं हमने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज ’फ़ैज़’
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के

(फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’)