तृणमूल कांग्रेस का ड्रामा

यू पी ए हुकूमत की कारकर्दगी का मुशाहिदा ( अनुभव) करने वाले अवाम ने हालिया दिनों में रेलवे बजट और किरायों में इज़ाफ़ा के मसला पर तृणमूल कांग्रेस की बालादस्ती का भी मुशाहिदा किया है। वज़ीर रेलवे की हैसियत से दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफ़े के लिए इसरार करने वाली चीफ़ मिनिस्टर मग़रिबी बंगाल ममता बनर्जी ने मर्कज़ और कांग्रेस दोनों को अपना मुतीअ ( अनुयायी) बना लिया है।

हालात का चलन ठीक नहीं है। हुकमरान पार्टी के वक़ार में मुसलसल बिगाड़ आ रहा है। हुकूमत और पी एम ओ की तर्जीहात बदस्तूर महिदूद ( सीमित) सयासी और हलीफ़ पार्टीयों की मर्ज़ी के इर्दगिर्द घूम रहे हैं। मुल्क की हुक्मरानी का फ़र्ज़ जब किसी जमाती मुफ़ादात के खूंटे से बांध दिया जाए तो मुल्क को बे यक़ीनी के दलदली मंतिक़ों की तरफ़ ढकेल दिया जाएगा या फिर वस्त मुद्दती इंतेख़ाबात की नौबत वाले हालात पैदा होंगे।

वज़ीर रेलवे की हैसियत से दिनेश त्रिवेदी ने तक़रीबन एक दहिय बाद मुसाफ़िर किरायों में इज़ाफ़ा किया है, ये फ़ैसला तृणमूल कांग्रेस से मुशावरत के बगै़र किया गया। क़ीमतों को वापस लेने के लिए ज़ोर देने वाली तृणमूल कांग्रेस की अना को ठेस पहूँची। मुसाफ़िरों पर पड़ने वाले बोझ को कम करने के लिए ज़ोर देने के बजाय उन्हों ने अपने लीडर दिनेश त्रिवेदी को ही हटा देने का फ़ैसला किया।

अवाम की भलाई का ड्रामा करने वाली पार्टीयों ने ज़ाहिर कर दिया है कि उन्हें अपनी सयासी अना की पूजा करनी है। इस लिए अब रेलवे का इज़ाफ़ा शूदा किरायों को वापस तो नहीं लिया गया अलबत्ता ममता बनर्जी ने अपने पार्टी लीडर दिनेश त्रिवेदी को उन से सलाह-ओ-मश्वरा ना करने या उन की इजाज़त हासिल करने से गुरेज़ किए जाने की सज़ा दी।

अगर त्रिवेदी के बजाय अब मुकुल राय ने ये ओहदा सँभाला है तो क्या इज़ाफ़ा शूदा किरायों को वापस लिया जाएगा। अपने बाग़ियाना तीव्र दिखाने वाले त्रिवेदी ने रेलवे के इज़ाफ़ा शूदा किरायों को वापस ना लेने का ऐलान करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया।

इस ड्रामा के बाद आम आदमी को तो कोई फ़ायदा हासिल नहीं हुआ। मुसाफ़िर किराया में इज़ाफ़ा के बाद तृणमूल कांग्रेस की सरबराह का ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब मोल लेने वाले त्रिवेदी को आइन्दा अपनी सयासी ज़िंदगी चलाने के लिए समझौते कर लेने होंगे मगर किरायों में इज़ाफ़ा के हवाले से जो ड्रामा बाज़ी की गई, इससे अवाम को धोका दिया गया है।

बहुत से लोगों को इस बात पर भी हैरत हो रही है कि अपने नाम, मुक़ाम और शोहरत आम को आंच ना आने देने के लिए हुकमरान कांग्रेस ने तृणमूल के आगे घुटने टेक दिए। इक़्तेदार पर बरक़रार रहने की आरज़ू ने एक क़ौमी पार्टी को इलाक़ाई पार्टी की ज़द के आगे झुक जाना पड़ा। काबीना में क़लमदानों का मसला हर मर्तबा मख़लूत इत्तेहाद की नज़र होता रहा है। हुकमरान पार्टी को मर्कज़ में अपने हलीफ़ पार्टीयों के नाज़-ओ-नख़रे बर्दाश्त करने के लिए अभी कई मरहला हाय शौक़ बाक़ी हैं।

यू पी ए दोम की मीयाद ( मुद्द्त) पूरी करने तक हलीफ़ पार्टीयों को नाराज़ करने की कोशिश नहीं की जाएगी, लेकिन इस से आम आदमी पर डाले गए बोझ की किसी को भी फ़िक्र नहीं होगी। आम बजट और रेलवे बजट की पेशकशी के बाद अपोज़ीशन भी बाअज़ फ़ैसलों के ख़िलाफ़ सड़कों पर निकल आने की धमकी देती थी, इस बार अपोज़ीशन ने भी चुप साध ली है जबकि दोनों बजट अवाम की जेब हल्की करके उन्हें परेशान करने के लिए पेश किए गए हैं।

125 करोड़ वाली आबादी वाले हिंदूस्तान में हुक्मरांन तबक़ा और इसकी हलीफ़ पार्टीयां आसानी से अवाम को बेवक़ूफ़ बना सकते हैं तो फिर अवाम के लिए तकलीफ़देह अमर ये है कि वो भी अपने लिए लाहक़ मसाएल से छुटकारा हासिल करना नहीं चाहते। अवाम ने हुक्मरानी के लिए जिन को मुंतखिब किया है, इसकी मनमानी को कुबूल किया है तो आगे चल कर और भी मनमानी की जाएगी।

एक अरब से ज़्यादा आबादी वाले मुल्क में अवाम के ख़िलाफ़ फ़ैसला करके हुकूमत अपने इक़्तेदार को मज़ीद मुस्तहकम करने में कामयाब होती है तो ये अवामी सानिहा से कम नहीं। ये अमर काबिल‍ ए ज़िक़्र है कि इस मुल्क में एक मुहतात अंदाज़ के मुताबिक़ कई क़ुदरती वसाएल हैं जिन को अवाम की तरक़्क़ी-ओ-बहबूद के लिए इस्तेमाल किया जाए तो राहत-ओ-सहूलतों का रिकार्ड क़ायम होगा। मगर हुकूमत के ज़िम्मेदार अफ़राद मुल्क से वसाएल को अपने लिए इस्तेमाल करने लगें तो अवाम के नसीब में मुसीबतें ही आयेंगी ।

तृणमूल कांग्रेस ने बज़ाहिर अवाम की ख़ातिर रेल किरायों के ख़िलाफ़ एहतिजाज किया, अब इसने अपने लीडर का क़लमदान छीन कर किरायों के मसला को फ़रामोश कर दिया है। ममता बनर्जी की तरफ़ से किए गए रेल किरायों को वापस लेने के मुतालिबा में शिद्दत पैदा कर दी जाती तो अवाम का फ़ायदा होता मगर उन्होंने सयासी अना परस्ती की ख़ातिर अपने मुफ़ाद को मल्हूज़ रखा।

मुकुल राय को नया वज़ीर रेलवे बनाने से अगर तृणमूल कांग्रेस को कोई सयासी-ओ-माली मुनफ़अत हासिल होती है तो फिर वज़ारत के जांनशीन को बदलने का ड्रामा महिज़ सयासी मुज़हका ख़ेज़ी के सब से बड़े वाक़्या के सिवा कुछ नहीं है। बहरहाल यू पी ए हुकूमत को अपनी बक़ा के लिए मख़लूत इत्तेहाद की तशरीह-ओ-ताबीर पर क़ायम रहना एक मजबूरी है।

अगर मजबूरी के साथ चलने वाली उसी का नाम हुकूमत है तो फिर ये हुकूमत जारी नहीं रहेगी बल्कि हलीफ़ पार्टीयों की वजह से बे यक़ीनी की सलीब पर झूलती रहेगी। रेल किरायों में इज़ाफ़ा को वापस लेने के लिए अवाम को ही आवाज़ उठानी है मगर ये आवाज़ भी कहीं गुम होती दिखाई दे रही है।