तोता और दूकानदार की कथा

हज़रत मौलाना रुम अलैहि र्रहमा अपनी मसनवी में इस कथा का आग़ाज़ अपने इस शेर से फ़रमाते हैं
तर्जुमा: एक दूकानदार शख़्स के पास एक तोता था। वो सब्ज़ (हरे) रंग का ख़ुशआवाज़ और बातें करने वाला तोता था।
दूकान्दार को अपने तोते से ख़ूब मुहब्बत थी क्योंकि वो ना सिर्फ ख़रीदारों से इंसान की तरह ख़ुशकलामी के साथ बातें किया करता बल्कि दूकान्दार के ग़ियाब(गेर हाज्री) में दूकान की निगहबानी भी किया करता था। एक दिन दूकान्दार घर गया और दूकान तोते को सौंप गया। इत्तिफ़ाक़न एक बिल्ली ने किसी चूहे को पकड़ने के लिए हमला किया। तोता समझा कि बिल्लि शायद मुझे पकड़ना चाहती है इस लिए अपनी जान बचाने के लिए बाक़ौल मौलाना रुम
तर्जुमा: दूकान के दरमयान से उछल पड़ा (और) रोगन बादाम की बोतलें गिरा दीं (जिस से तेल गिरकर बह गया)
जब दूकान्दार दूकान के अंदर आया और तेल गिरा हुआ पाया तो इस ने ग़ुस्सा में तोते के सर पर जोरसे एक ऐसी चपत लगाई कि इस की ज़रब से तोते का सर गंजा होगया। जिस के बाद तोता अपने दूकान्दार से नाराज़ हो गया बल्कि बोलना और बातें करना तक छोड़ दिया। इस से दूकान्दार को बहुत कोफ़त और नदामत हुई। इस ने तोते की कई रोज़ तक ख़ुशामद की। तरह तरह के ताज़ा फल दिए मगर वो हरगिज़ ख़ुश ना हुवा। ख़रीदारों को भी तोते की ख़ामोशी पर बड़ा ताज्जुब और अफ़सोस था।

एक दिन दूकान के सामने से एक कम्बल पोश फ़क़ीर का गुज़र हुवा जो अपना सर मुंडाया हुवा था। जिसे देखते ही तोता फ़ौरन बुलंद आवाज़ से बोल उठा ए गंजे तू किस वजह से गंजा हो गया। क्या तू ने भी बोतल से तेल गिरा दिया था।ये सुन कर लोगों को तो हंसी आ गई कि तोते ने इस फ़क़ीर को भी अपने ऊपर क़ियास किया लेकिन मौलाना रुम इस वाक़िया से सबक़ हासिल करते हुए यूँ नसीहत फ़रमाते हैं
तर्जुमा: (ए अज़ीज़!) पाक लोगों के मुआमला को अपने ऊपर क़ियास ना करो। शेर (दरिन्दा जानवर) और शेर (दोदा) दोनों (अलफ़ाज़) लिखने में एक ही जैसे नज़र आते हें। (इन में फ़र्क़ ये है कि)
तर्जुमा: शेर (दोदा) वो हे कि जिसे आदमी पीता है लेकिन शेर (दरिन्दा जानवर) वो हे कि जो लोगों को फाड़ डाल्ता हे आगे फ़रमाते हें
तर्जुमा: तमाम जहां ईसी (ख़ामख़याली) के बाइस गुमराह हो गया और बहुत कम (शाज़-ओ-नादिर) लोग ही अब्दाल हक़ (औलिया-ए-अल्लाह) के मर्तबा से वाक़िफ़ हुआ करते हैं।

तर्जुमा: बदबख़्त लोग हक़की आँखों से महरूम थे (इस लिए) नेक और बद उन की नज़र में यकसाँ (बराबर) नज़र आए।
तर्जुमा: (अपनी ग़लत क़ियासी से) कभी उन्हों ने अनबिया के साथ बराबरी का दावा कर दिया और कभी औलिया अल्लाह को अपने बराबर समझ लिया
तर्जुमा: (किसी के एत‌राज़ पर) कहने लगे कि अरे हम भी इंसान ओर ये भी इंसान हे (नीज़) हम और ये दोनों सोने (नींद) और खाने (ताम) के पाबंद हें (तो उन में और हम में फ़र्क़ ही कया रहा)। आगे मौलाना ने इस की वज़ाहत फ़रमाई हें कि ज़ाहिरी सूरत यकसाँ या मिल्ती जुल्ती हो तो ये लाज़िम नहीं कि इन की बातिनी हक़ीक़त भी इसी तरह यकसाँ मुसावी या बराबर हो। अपने इस अदा की ताईद में मौलाना ने मुतअद्दिद मिसालें भी दी हैं जैसे
१) ज़ंबूर (भिड़) और शहद की मक्खी मैं बज़ाहिर यकसानियत नज़र आती हे कि फूलों का रस दोनों की ग़िज़ा हे लेकिन फ़र्क़ ये हे कि इसी से भिड़ की डंक मैं ज़हरीला असर पैदा होता हे तो शहद में लज़्ज़त मिठास और शिफ़ा का असर पैदा होता हे।
२) दो किस्म की हिरनों ने एक ही किस्म की घासपति खाई मगर उसी घास ने एक की आंतों में मेंगनियां बनाईं और दूसरे की नाफ़ में कस्तूरी (मुशक) बनाई।
३) दो किस्म के बांस को एक ही घाट से पानी दिया गया मगर एक खोखला रहा और दूसरे के अंदर शक्र पैदा हुई जिसे गन्ना या नीशकर कहते हैं।
४) एक ही रोटी से जब फ़ासिक़ इंसान खाता है तो वो इस के अंदर हसद बुख़ल और शहवत पैदा करती है और वही रोटी एक अल्लाह वाला खाता है तो इस के दिल में अल्लाह का इशक़ और मार्फ़त की रोशनी पैदा होती है।
५) जिस तरह मीठे और तल्ख़ पानी की सूरत एक जैसी मगर दोनों का मज़ा बरअक्स होता है इसी तरह एक नेकोकार और बदकार अगरचे सूरत में एक जैसे नज़र आते हैं लेकिन दोनों की सीरत और हक़ीक़त अलग अलग और उन का अंजाम भी बर अक्स होता है।
६) एक बंदर और इंसान के हरकात व सकनात यकसाँ होने के बावजूद दोनों की हक़ीक़त में कितना फ़र्क़ मौजूद होता है।
७) मोजिज़ा और जादू बज़ाहिर मुशाबेह और यकसाँ करिश्मे नज़र आते हैं लेकिन मोजिज़ा एन रहमत इलाही का नतीजा है जो ख़ुदा के मक़बूलों को अता फ़रमाया जाता है जबकि जादूगरों पर ख़ुदा की लानत है जो मर्दूदीन‌ हक़ होते हैं।
८) एक मोमिन और मुनाफ़िक़ की ज़ाहिरी सूरतें मिल्ती जूल्ती होती हैं बल्कि उन के आमाल-ओ-इबादात भी यकसाँ नज़र आते हैं लेकिन दरहक़ीक़त दोनों में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है। एक का मुक़ाम जन्नत है तो दूसरे का मुक़ाम दोज़ख़।
९) असली और नक़ली सोने में कितना बड़ा फ़र्क़ है कसौटी पर घीसने से ही उन की क़दर-ओ-क़ीमत का सही अंदाज़ा होता है।

ख़ुलासा: अल्लाह वालों को अपने ऊपर क़ियास हरगिज़ ना करना चाहीए और अपने को उन की तरह ना समझना चाहीए अल्लाह वालों का बातिन क़ुरब व क़बोलीत ख़ुदावंदी से इबारत होता है जो उन की एसी क़ाबिल रशक नेमत है कि दुनियावी दौलत से मुस्तग़नी‍ओ‍ बे नीयाज़ इन नूफ़ूस क़ुदसिया की बारगाह में शाह जहां भी अपने सर जूकाया करते और इसी में अपनी शौकत-ओ-सतवत की आफ़ियत-ओ-सलामती समझते हैं। क़ुरब हक़ से सरबुलंद-ओ-सरफ़राज़ इन पाकीज़ा हस्तीयों का क़ुरब और उन का फ़ैज़ाने सुहबत ही आम बंदों के लिए ख़ुदा रसी और ख़ुदा रसाई का अज़ीम वसीला साबित होता है।